प्रेम का गणित अपरिमेय है। कविवर बिहारी ने लिखा है ’’या अनुरागी चित्त की गति समझे नहीं कोय। ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों त्यों उज्जवल होय।’’ हम जब जोड़ते हैं अपना सब कुछ खोते चले जाते हैं और जब घटाते हैं तो सब कुछ पा लेते हैं। विडंबना है कि श्रीकृष्ण राधा को नहीं मिले, पर युगों-युगों से आज तक उसी के हैं और रुक्मिणी जिसे मिले उसे कभी मिले ही नहीं।
जहां श्रीकृष्ण का जन्म भाद्र पद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ, वहीं इसके 15 दिन बाद शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राधा जी का अवतरण वृषभान एवं कीर्तिदा के यहां आज से 5200 वर्ष पूर्व ब्रज के रावल गांव में हुआ। राधा जी के बारे में महाभारत एवं श्रीमद्भागवत गीता में कोई उल्लेख नहीं है। जो भी जानकारी मिलती है वह ब्रह्मवैवर्त पुराण, पद्म पुराण एवं विष्णु पुराण तथा गर्ग संहिता मैं वर्णित है।
राधा अष्टमी का पर्व बरसाना में मनाया जाता है, जो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के 15 दिन बाद पड़ता है। राधा जी का परिवार कालांतर में बरसाना में जाकर बस गया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय 39 के अनुसार, श्रीकृष्ण एवं राधा के बीच प्रथम भेंट नंदगांव बरसाने के बीच संकेत नामक स्थान पर हुई। नंद जी भी नंद गांव से वृंदावन आकर कंस के प्रकोप से बचने के लिए बस गए थे।
यदुवंशियों के कुल गुरु गर्ग ऋषि द्वारा रचित गर्ग संहिता में राधा एवं श्रीकृष्ण के बाल्यलीला का पूर्ण वर्णन है। राधा जी श्रीकृष्ण से 11 माह बड़ी थीं परंतु कुछ स्थानों पर उनकी उम्र 12 वर्ष बताई जाती है जबकि उस समय श्रीकृष्ण की आयु 8 वर्ष थी। इस प्रकार राधा जी श्री कृष्ण से 4 वर्ष बड़ी थीं। श्रीकृष्ण राधा जी से विवाह करना चाहते थे परंतु यशोदा और नंद बाबा इससे सहमत नहीं थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को बहुतेरे समझाने का प्रयास किया, परंतु श्रीकृष्ण ने राधा जी से विवाह करने की जिद ठान ली। उस समय राधा जी का मंगनी आयन घोष नामक ग्वाल से हो चुकी थी, जो कंस की सेना में था। यशोदा जी ने कृष्ण जी को बहुतेरे समझाया कि उनका विवाह उच्च कुल की लड़की से होगा, राधा उनके लिए उपयुक्त नहीं है और उनका परिवार भी सामाजिक दृष्टि से यशोदा जी के परिवार के समकक्ष नहीं था।
मथुरा से लौटने के बाद राधा जी का विवाह अयन घोष (कुछ ग्रंथों में रायना) से होना था। यहां महत्वपूर्ण है कि श्रीकृष्ण का विवाह राधा जी से क्यों नहीं हुआ? एक तो राधा जी की मंगनी हो चुकी थी तथा यशोदा एवं नंद बाबा राधा से श्रीकृष्ण के विवाह के लिए सहमत नहीं थे। राधा जी ग्वाल थीं। राधा स्वयं को भी राजमहलों के लिए उपयुक्त नहीं मानती थीं। यशोदा श्रीकृष्ण का विवाह राजपरिवार में करना चाहती थीं। सामाजिक नियमों व सामाजिक पृष्ठभूमि उनके विवाह की अनुमति नहीं देती थी, हालांकि कृष्ण विवाह करना चाहते थे। जब नंद बाबा ने यह देखा कि कृष्ण किसी भी तरह सहमत नहीं है तो वह उन्हें यदुवंशियों के कुल गुरु गर्ग ऋषि के पास ले गए, जिन्होंने श्रीकृष्ण से यह सत्य उद्घाटित किया कि वास्तव में यशोदा एवं नंद बाबा उनके माता-पिता नहीं हैं बल्कि उनके वास्तविक माता-पिता देवकी एवं वासुदेव हैं। उनका जन्म बृहत्तर कार्य को पूर्ण करने और धर्म की स्थापना के लिए हुआ है तथा उन्हें अभी जीवन में बहुत सी कठिनाइयों एवं युद्ध में विजय प्राप्त करनी है। इस प्रकार उनका भटकना उचित नहीं होगा।
श्रीकृष्ण ने यह सब जान कर अपने अंदर एक अद्भुत परिवर्तन महसूस किया और वह गुमसुम हो गए। उसके बाद वृंदावन छोड़कर मथुरा अक्रूर जी के साथ चले गए। कंस का वध कर उन्होंने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजपद पुनः दिया और अपने माता-पिता को कंस की कैद से मुक्त कराया। जाते समय उन्होंने पुनः वृंदावन लौटने का आश्वासन राधा जी को दिया था, परंतु उन्होंने अपना यह वादा कभी नहीं निभाया और इसकी कसक राधा जी और गोपियों को हमेशा रही। राधा के लिए किशन कन्हैया थे और रुक्मणी के लिए कन्हैया कृष्ण। पत्नी होने के बाद भी वे रुक्मणी को नहीं मिले और कुछ न होकर भी राधा को श्रीकृष्ण मिल गए। प्रेम का स्वरूप ही ऐसा है जहां सब कुछ पाने वाला सब कुछ खो देता है और सब कुछ खोने वाला सब कुछ पा लेता है।
कालांतर में राधा जी का विवाह यशोदा जी के भाई रायाण (अयन घोष) के साथ हुआ। इस प्रकार इस रिश्ते से श्रीकृष्ण जी की राधा मामी भी लगती थीं। प्रसंग आता है कि कालांतर में सूर्य ग्रहण के दौरान कुरूक्षेत्र में यशोदा और नंद जी के साथ राधा आई थीं और श्रीकृष्ण जी भी अपने परिवार के साथ वहां आए हुए थे। जहां पर राधा और श्रीकृष्ण की भेंट हुई। रुक्मणी ने राधा को गर्म दूध पीने को दिया परंतु अगले दिन श्रीकृष्ण जी के शरीर में फफोले निकल आए। रुक्मणी ने श्रीकृष्ण जी से पूछा तो उन्होंने पूरी बात बताई। रुक्मणी का अपने प्रेम पर गुमान खंडित हो गया।
कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की 16108 रानियां थी जिनमें रुक्मणी, जामवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा एवं लक्ष्मणा को पटरानी का दर्जा प्राप्त था। वास्तव में श्रीकृष्ण ने इन 8 पटरानियों के साथ विधिवत शादियां की थीं। इतने पर भी राधा के बिना श्याम अधूरे रहें। कृष्ण भक्ति मार्गी शाखा के साधकों, कवियों और संतों ने राधा कृष्ण की प्रेम भक्ति में भी वैराग्य ढूंढ लिया। जय देव का गीत गोविंद, रसखान के दोहे, सूरदास के पद, हरिदास का संगीत और वल्लभ, निम्बार्क, राधावल्लभ, सखी एवं चैतन्य संप्रदायों के साधकों ने राधा एवं श्रीकृष्ण के प्रेम का ऐसा वर्णन किया कि उसके सम्मोहन में सारी सृष्टि डूब गई। महाभारत एवं श्रीमद् भागवत कथा व श्रीमद् भागवत गीता में राधा कृष्ण के संबंधों का उल्लेख नहीं है, परंतु इनकी स्तुति के बिना इन ग्रंथों का पाठ न तो प्रारंभ होता है और न समाप्त।
’’राधा तो है जोगिनी मत करियो परवाह
वृंदावन का बिलखना कान्हा सहा न जाए।।’’
रसखान ने अपने दोहों में लिखा-
’’ प्रेम अगम अनुपम अमित,
सागर सरिस बखान।
जो आवत यही डिग बहुरि
जात नाहीं रसखान ।।
कमल तंतु सो छीन अरु,
कठिन खडग की धार ।।
अति सूधो टेढ़ो बहुरि,
प्रेम पंथ अनिवार ।।’’
राधा जी ने अपना जीवन एक गृहस्थ की भांति जिया, परंतु उनके मन में मुरली मनोहर सदैव बसे रहे। अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर वानप्रस्थ अवस्था में राधा जी को श्रीकृष्ण से मिलने की इच्छा उत्पन्न हुई और वह द्वारिका चली आईं। द्वारिका में उनकी भेंट श्रीकृष्ण से हुई तथा आंखों के संकेत से ही दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। राधा जी ने वहां राजप्रासाद की देखरेख करने हेतु देविका का पद स्वीकार कर लिया। इस प्रकार वे कार्य करते हुए कभी-कभार श्रीकृष्ण के दर्शन कर लेती थीं।
वृद्धावस्था आने पर वह द्वारिका के निकट एक गांव में रहने लगीं। जब जीवन का अंत समय निकट आया तो वह निर्जन वन में चली गईं। योग माया से श्रीकृष्ण ने सब जान लिया और वहां पहुंच गये। दोनों की आंखों में आंसू थे। श्रीकृष्ण ने उनसे कुछ मांगने को कहा, परंतु राधा जी ने नकार दिया और किसी भी इच्छा के शेष न होने की बात कही। श्रीकृष्ण को देख लेने के बाद उनकी कोई इच्छा अशेष ना रही।
श्रीकृष्ण जी ने पुनः कुछ मांगने को कहा। तब राधा ने उन्हें बांसुरी की वहीं तान सुनाने को कहा जो वह बचपन में वृंदावन में बाल लीला करते हुए बजाया करते थे। श्रीकृष्ण जी ने वही धुन छेड़ी। राधा जी की आत्मा उसे आत्मसात करती गई। उनके कर्ण गह्वरों में सिर्फ एक संगीत था जो आत्मा की गहराइयों से निकला था। राधा की दृष्टि श्रीकृष्ण पर पड़ी। आंखों से आंसुओं की दो धाराएं बह निकलीं। आंखें श्रीकृष्ण में अटक गईं और शरीर निढाल होकर श्रीकृष्ण के चरणों में निष्प्राण होकर लुढ़क गया। श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी तोड़ दी और फिर कभी नहीं बजाई। यह स्थान वर्तमान महाराष्ट्र में है, जहां आज राधा रानी मंदिर स्थित है।
राधे राधे!