कांग्रेस का गढ़ रही अमेठी संसदीय क्षेत्र की भी अजब कहानी है। 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के तब के युवराज संजय गांधी ने जब चुनाव लड़ने के लिए मन बनाया तो कांग्रेस शासित सभी राज्यों के मुख्य मंत्री संजय गांधी को अपने-अपने राज्यों में चुनाव लड़ने के लिए बुलाने लगे। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी संजय गांधी को अमेठी से लड़ने के लिए बुलाया। आए अमेठी संजय गांधी, हेलीकाप्टर से नारायण दत्त तिवारी को साथ ले कर। अमेठी की खासियत यह है कि रायबरेली से सटा हुआ है। जो तब इंदिरा गांधी का संसदीय क्षेत्र था। आज सोनिया गांधी का है। सो जब गुड़ बोओ, गन्ना बोओ की सीख देने वाले संजय गांधी ने हेलीकाप्टर से अमेठी भ्रमण करते हुए जब नीचे खासी हरियाली देखी तो तिवारी जी से पूछा कि यह कौन सी फसल है ? तो तिवारी जी ने लपक कर जवाब दिया कि यहां की सारी फसलें हरी-भरी हैं।
असल में तिवारी जी को खुद नहीं मालूम था कि यह कौन सी फसल थी सो हड़बड़ा कर हरी-भरी बता दिया था। तब, जब कि अमेठी का इलाका, ऊसर इलाका है। वह जो हरा-भरा दिख रहा था, वह कोई फसल नहीं, सरपत थी। जिसे जानवर भी नहीं खाते। बहरहाल संजय गांधी को वह हरा-भरा इलाक़ा पसंद आ गया। वह चुनाव लड़ गए। लेकिन जनता लहर में हार गए। लेकिन जनता सरकार के गिरने के बाद 1980 के चुनाव में संजय गांधी जीत गए। जीत कर पता चला कि यह तो ऊसर है। सो अमेठी को इण्डस्ट्रियल हब बनाना चाहते थे वह। लेकिन संजय गांधी का हवाई जहाज दुर्घटना में निधन हो गया। सो उन का यह सपना भी तभी टूट गया। बाद के दिनों में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में राजीव गांधी कांग्रेस से चुनाव लड़े। राजीव गांधी के खिलाफ मेनका गांधी ने चुनाव लड़ा। लेकिन जैसे जनता लहर में संजय गांधी चुनाव हार गए थे , वैसे ही इंदिरा लहर में मेनका गांधी भी चुनाव हार गईं । इस के पहले 1981 में हुआ उपचुनाव भी राजीव गांधी ने जीता था।
लेकिन 1984 में राजीव गांधी को चुनाव जिताने के लिए अमेठी में जिस तरह भारी पैमाने पर बूथ कैप्चरिंग हुई वह अदभुत थी । अमेठी के इस चुनाव को कवर करने के लिए लखनऊ से दो पत्रकार गए थे और एक फ़ोटोग्राफ़र। दैनिक जागरण से वीरेंद्र सक्सेना और आज से अजय कुमार। फ़ोटोग्राफ़र थे दैनिक जागरण से बी डी गर्ग। जम कर हो रही बूथ कैप्चरिंग का प्रमाण सिर्फ फ़ोटो से ही साबित किया जा सकता था। तब के दिनों चैनल वगैरह तो थे नहीं । सो बी डी गर्ग ने धुआंधार फ़ोटो खींची इस बूथ कैप्चरिंग की। जगह-जगह बी डी गर्ग और बाकी पत्रकारों से कांग्रेसी गुंडों से लगातार झड़प होती रही। बूथ कैप्चरिंग को ले कर। इन कांगेसी गुंडों की कमान दिल्ली में बैठे अरुण नेहरु के हाथ थी। बी डी गर्ग होशियार और अनुभवी फ़ोटोग्राफ़र थे। वह समझ गए कि देर-सवेर कांग्रेसी गुंडे उन के कैमरे पर भी मेहरबान हो सकते हैं। सो वह फ़ोटो खींचते जाते थे और रील निकाल-निकाल कर झाड़ियों में फेंकते जाते।
अंततः तीनों पत्रकारों समेत फ़ोटोग्राफ़र बी डी गर्ग भी कांग्रेसी गुंडों से पिट गए। बल्कि बुरी तरह पिट गए । बी डी गर्ग के कैमरे पर भी हमला हुआ। रील निकाल ली गई। लुटे-पिटे पत्रकार अमेठी से लखनऊ लौटे। पिट भले गए थे यह पत्रकार पर इन्हें संतोष था इस बात का कि प्रधान मंत्री राजीव गांधी के चुनाव क्षेत्र से बूथ कैप्चरिंग की बड़ी ख़बर ले कर वह लौट रहे हैं । लेकिन यह रिपोर्टर जब लखनऊ लौट कर अपने-अपने अख़बार के दफ़्तरों में पहुंचे तब और मुश्किल हो गई। क्यों कि इन रिपोर्टरों के दफ़्तर पहुंचने से पहले अरुण नेहरु का फ़ोन इन अख़बार दफ़्तरों में आ चुका था। रिपोर्टरों को दफ़्तर में ख़ूब डांटा गया। जलील किया गया। कहा गया कि आप लोग अमेठी रिपोर्टिंग करने गए थे कि क्रांति करने। वहां मार-पीट करने गए थे? रिपोर्टरों ने प्रतिवाद किया और बताया कि अमेठी में भारी बूथ कैप्चरिंग होते देख कर आए हैं और वहां कांग्रेसी गुंडों ने उन की पिटाई की है। लेकिन किसी भी अख़बार में रिपोर्टरों की एक नहीं सुनी गई। उलटे उन्हें और जलील किया गया। कहा गया कि बूथ कैप्चरिंग की जगह प्लेन सी, रुटीन ख़बर लिखें। यही हुआ। दूसरे दिन रुटीन ख़बर ही सारे अख़बारों में छपी। प्रचंड इंदिरा लहर में कांग्रेस पूरे देश में जीत का झंडा लहरा कर बंपर बहुमत लाई थी। राजीव गांधी ने प्रधान मंत्री पद की शपथ ले ली। बात आई-गई हो गई।
लेकिन सचमुच बात आई-गई नहीं हुई। अख़बारों में अमेठी के बूथ कैप्चरिंग की ख़बर और फ़ोटो भले नहीं छपी पर पत्रकारों के बीच बूथ कैप्चरिंग और पत्रकारों की पिटाई की ख़बर चर्चा का विषय बनी रही। लेकिन लखनऊ के किसी अख़बार में इस ख़बर को छापने की हिम्मत नहीं हुई। पर लखनऊ में तैनात जनसत्ता , दिल्ली के संवाददाता जयप्रकाश शाही को जब यह पता चला तो उन्हों ने इन पत्रकारों से बातचीत की। सभी ने बूथ कैप्चरिंग की पुष्टि करते हुए पूरी डिटेल बताई। शाही ने फ़ोटोग्राफ़र बी डी गर्ग से भी बात की । और कहा कि एक भी फ़ोटो मिल जाए तो ख़बर लिख दूंगा। बी डी गर्ग ने शाही से कहा कि अब क्या फ़ायदा , अब तो सरकार गठित हो गई । जयप्रकाश शाही ने कहा कि सरकार की ऐसी-तैसी। बस आप फ़ोटो दीजिए , सरकार गिर जाएगी। राजनारायण के मुकदमे पर जस्टिस जगमोहन सिनहा इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित करने का इतिहास दर्ज कर चुके थे ।
जयप्रकाश शाही भी धुन के पक्के रिपोर्टर थे । कई ख़बरें ब्रेक कर चुके थे । अंततः बी डी गर्ग को ले कर वह अमेठी गए । संयोग ही था कि झाड़ियों में फेंकी कुछ रीलें मिल गईं । बी डी गर्ग ने फ़ोटो डेवलप कर शाही को सौंप दी। शाही ने फ़ोटो समेत डिटेल रिपोर्ट जनसत्ता को भेज दी। जनसत्ता के अंदर के पन्ने पर खोज ख़बर के तहत यह अमेठी में बूथ कैप्चरिंग की खबर कोई आधे पन्ने की छपी। ख़बर छपते ही बवाल हो गया। उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी को सीधे राजीव गांधी का फ़ोन आया। तिवारी जी ने बी डी गर्ग को बुलवाया और स्टेट प्लेन से ले कर उन्हें दिल्ली पहुंचे। राजीव गांधी से मिलवाया। सारी निगेटिव पी एम ओ में सौंप दी। शाम तक लखनऊ लौट कर बी डी गर्ग ने एक बयान जारी कर बताया कि मैं ने ऐसी कोई फ़ोटो नहीं खींची है , क्यों कि अमेठी में कोई बूथ कैप्चरिंग नहीं हुई थी। जनसत्ता में छपी सभी फ़ोटो फर्जी हैं । बाद में जनसत्ता में भी इस ख़बर का बाक़ायदा खंडन छपा। उन दिनों मैं जनसत्ता , दिल्ली में ही था। जयप्रकाश शाही अपने समय की रिपोर्टिंग के सूर्य थे । उन की ख़बरों का कोई शानी नहीं था। इस लिए इस खंडन पर मुझे यकीन नहीं हुआ।
बाद के दिनों में फ़रवरी , 1985 में जब मैं स्वतंत्र भारत , लखनऊ आ गया तो एक बार फुर्सत में जयप्रकाश शाही से इस अमेठी बूथ कैप्चरिंग वाली ख़बर और खंडन की चर्चा की और पूछा कि इस ख़बर पर कैसे चूक गए आप ? शाही बहुत आहत हो कर , लगभग घायल हो कर बोले , मैं नहीं चूका , यह साला फ़ोटोग्राफ़र बी डी गर्ग बिक गया और पलट गया। ख़बर तो सौ फीसदी सही थी ! और वह चुप हो गए । मायूस हो गए । ऐसे , जैसे कोई विजेता हार गया हो । शाही बोले , चूक हुई कि फ़ोटो तो ख़रीद लिया था , निगेटिव भी ख़रीद लिया होता तो यह अपमान न पीना पड़ता। कि मैं फर्जी ख़बर लिखता हूं।
सचमुच इस घटना के बाद बी डी गर्ग की माली हालत काफी सुधर गई थी। रातो-रात सरकारी घर मिल गया था। स्कूटर की जगह कार आ गई थी। देखते ही देखते वह लाखों में खेलने लगे थे। सरकार में जो काम हो , वह चुटकी बजाते ही करवा लेते थे। जब तक राजीव गांधी की सरकार थी लखनऊ से दिल्ली तक उन की जय-जय थी। अब बी डी गर्ग नहीं हैं , उन की कहानियां हैं। जयप्रकाश शाही भी नहीं हैं । उन की भी सिर्फ़ कहानियां शेष हैं। एक रोड एक्सीडेंट में हम शाही जी को खो बैठे। ऐसे ही चुनाव का मौसम था। 18 फ़रवरी , 1998 का दिन था। संभल से मुलायम सिंह यादव चुनाव लड़ रहे थे । हम लोग संभल कवरेज के लिए जा रहे थे। अम्बेसडर कार में पीछे की सीट पर जयप्रकाश शाही और हम अगल-बगल ही बैठे थे। जैसे कि लखनऊ में हमारे घर भी अगल-बगल हैं। गोरखपुर में हमारे गांव आस-पास हैं। पत्रकारिता में भी हम शाही जी के कहने से ही आए। नहीं हम तो कविताएं लिखते थे , कहानी लिखते थे । खैर दिन के तीन बजे थे , खैराबाद , सीतापुर में हमारी कार एक ट्रक से टकरा गई। आमने-सामने की टक्कर थी। शाही जी और ड्राइवर मौके पर ही नहीं रहे। शाही जी तब हिंदुस्तान अख़बार में थे। हम राष्ट्रीय सहारा में । हम और आज अख़बार के गोपेश पांडेय महीनों मौत से लड़ने के बाद किसी तरह जीवन में लौटे ।
बहरहाल उन्हीं दिनों 1985 में एक बार आज के अजय कुमार से अमेठी की उस बूथ कैप्चरिंग के बाबत बात चली। बात करते-करते अजय कुमार अचानक रो पड़े। गला भर आया उन का , आंख से आंसू। अजय कुमार कहने लगे , पांडेय जी , अमेठी में उस दिन पिटने का बिलकुल मलाल नहीं था। बल्कि ख़ुशी थी कि पिटे भी तो क्या , हमारे पास बहुत बड़ी ख़बर है। एक बड़ी ख़बर ले कर लौट रहे हैं। मुश्किल तब हुई जब लखनऊ के दफ़्तर आ कर डांट खानी पड़ी। बनारस तक से फ़ोन पर डांट पड़ी। यह डांट , यह बेइज्जती अमेठी में पिटाई से ज़्यादा बड़ी थी। ज़्यादा यातनादाई थी कि उस ख़बर को लिखने से रोक दिया गया था , जिसे पिटने की कीमत पर भी हम बड़ी बहादुरी से ले आए थे। इस घटना के बाद अजय कुमार का दिल आज अख़बार से टूट गया। जल्दी ही वह आज छोड़ कर तब के समय की शानदार पत्रिका माया के ब्यूरो चीफ़ बन गए लखनऊ में। आज भी वह 75 पार कर शानदार और स्वस्थ जीवन बसर कर रहे हैं । निरंतर लिखते हुए सक्रिय पत्रकारिता करते हुए।
दिसंबर , 1984 के लोकसभा चुनाव में अमेठी की बूथ कैप्चरिंग तब और महत्वपूर्ण हो जाती है कि जब पूरे देश में इंदिरा गांधी की हत्या के नाते , इंदिरा लहर थी । प्रचंड लहर थी । तब किस बात का डर था तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी को कि वह भारी बूथ कैप्चरिंग करवाने पर आमादा थे। पत्रकारों की पिटाई करवानी पड़ गई । ख़बर रुकवानी पड़ गई। आश्वस्त क्यों नहीं थे राजीव गांधी अपनी जीत के प्रति। किस बात का डर था भला। यह सवाल तो आज भी शेष है । अलग बात है कि अब राजीव गांधी भी नहीं हैं , न ही तब के उन के कमांडर अरुण नेहरु। लेकिन किसी के रहने , न रहने से सवाल कहां समाप्त होते हैं भला । सवाल तो शेष ही रहते हैं उन स्मृति-शेष लोगों के साथ ही।