वैश्विक महामारी के चलते पहली बार भारत में 23 मार्च को लॉकडाउन लगा था। सड़कें सूनी हो गई थीं। इक्का-दुक्का कोई वाहन ही कभी-कभार सड़क पर दिखाई देता था। इनमें भी पुलिस की गाडि़यां ही ज्यादा दिखाई देती थीं या फिर कभी-कभी कोई एंबुलेंस की आवाज आती थी। कुछ वाहन ऐसे भी सड़कों पर दिखाई दे रहे थे जो बार-बार लोगों महामारी से बचने के लिए घरों में ही रहने को कह रहे थे। इस नजारे को एक वर्ष हो चुका है। एक वर्ष बाद सड़कों पर पहले ही की तरह लोगों की चहलकदमी है। कुछ एक राज्यों को छोड़ दें तो सभी जगहों पर बाजारों में फिर से भीड़-भाड़ दिखाई देती है। सरकारी दफ्तरों समेत दूसरे निजी संस्थान भी खुल चुके हैं। हालांकि कई जगहों पर कर्मचारियों से वर्क फ्रॉम होम के जरिए ही काम लिया जा रहा है।
लॉकडाउन के एक वर्ष बाद देश में जो नजारा बदला हुआ दिखाई देता है उसका खामियाजा भी उठाना पड़ रहा है। कुछ राज्यों में एक बार फिर से मामले बढ़ रहे हैं। सरकार और विशेषज्ञ लगातार इस बात को कह रहे हैं कि लोगों की लापरवाही पूरे समाज और देश के लिए खतरनाक बन सकती है। विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि मामलों के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह लोगों का इस महामारी के प्रति लापरवाह होना ही है। विशेषज्ञों की इस बात में दम दिखाई देता है। एक वर्ष के बाद सड़कों पर कई ऐसे लोग दिखाई देते हैं जिनके मुंह पर मास्क नहीं होता है। ये नजार हर जगह अब दिखाई दे रहा है।
बीते एक वर्ष की ही बात करें तो लॉकडाउन के दौरान लोगों के अंदर काफी कुछ बदलाव आया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के असिसटेंट प्रोफेसर डॉक्टर सुनील बाबू भी इस बात से इनकार नहीं करते हैं। उनका मानना है कि लॉकडाउन के दौरान और इसके बाद के समय में जो समय परिवार के बीच गुजरा वो बेहद कीमती था। इस वक्त ने परिवार और इसकी अहमियत का लोगों को एहसास करवाया है। जो लोग हमेशा समय नहीं है की रट लगाते थे उन्हें परिवार के बीच समय बिताने का पूरा मौका भी मिला। लॉकडाउन और इसके बाद के समय में लोगों में अमूलचूक परिवर्तन भी देखने को मिला। उन्होंने अपने घरों की साज सज्जा पर ध्यान दिया। इतना ही नहीं, लोगों ने अपने घरों में गैरजरूरी चीजों का उपयोग कैसे बेहतर तरीके से किया जा सके इसको भी जाना। अपने परिवार के बीच समय बिताते समय उन्होंने उस पल को जिया जिसके लिए वो तरस रहे थे। इससे उन्हें एक नई एनर्जी मिली है।
प्रोफेसर बाबू के मुताबिक इस दौरान बच्चों के बीच में एक डर देखने को मिला जिसके चलते वो घर के बाहर ज्यादा फेमिलियर नहीं हो सके। इस दौरान जो बच्चे पैदा हुए उनमें और उनके पैरेंट्स में भी ये डर देखा गया। हालांकि इस दौरान जो बच्चे छोटे थे उन्होंने कई सारी चीजें सीखीं और ये जाना कि जानवर भी उनके दोस्त बन सकते हैं। हालांकि 2020 में लगे लॉकडाउन के दौरान ये भी देखने को मिला कि यदि कहीं पर कोई कोरोना मरीज मिल जाता था तो लोग उसके पूरे परिवार से ही दूरी बना लेते थे। एहतियातन ये गलत नहीं था लेकिन सामाजिक दृष्टि से ये सही नहीं था।
ऐसा कम ही देखने को मिला जब किसी कोरोना मरीज या उसके परिवार की मदद के लिए दूसरे लोग आगे आए हों। ये दूरी केवल लोगों की ही तरफ से दिखाई नहीं दी बल्कि उन लोगों में भी दिखाई दी जहां इस वायरस से संक्रमित कोई मरीज था। वो ऐसा समझने लगे थे कि पता नहीं क्या हो गया है। वो खुद को ही समाज से अलग रखने की कोशिश करने में जुट गए थे और जानकारियों को छिपाने में व्यस्त हो गए थे। 2020 के लॉकडाउन में लोगों ने दूसरों के दर्द को महसूस भी किया। जिस वक्त लोग पैदल ही अपने घरों की तरफ जा रहे थे तो लोगों ने उनके लिए खाने-पीने का इंतजाम किया। ये लोगों द्वारा दी जा रही निजी तौर पर मदद थी, जिसने समाज के उस रूप को सभी के सामने लाने में मदद की जिसकी हम कल्पना करते हैं।
इस दौरान कुछ खबरें ऐसी भी कानों में पड़ी जब लॉकडाउन में एक मां ने अपने बच्चे को लाने के लिए करीब सैकड़ों किमी का सफर स्कूटी पर किया। रास्ते भर उसको पुलिसकर्मियों का भी साथ मिला। ऐसी खबरें समाज की बुनियाद को मजबूत करती हैं। ये बताती हैं कि दर्द का रिश्ता हमेशा एक ही होता है जिसका अहसास हर किसी को होता है। प्रोफेसर बाबू के मुताबिक वर्ष 2020 देश और दुनिया के लोगों को काफी कुछ सिखा गया है। बदलती तकनीक, तकनीक पर विश्वास और इसका इस्तेमाल इसी दौर में लोगों ने सीखा। इसका जीता जागता सुबूत स्कूलों में चलने वाली ऑनलाइन क्लासेज से दिया जा सकता है। इस दौर में तकनीक का इतना बेहतर इस्तेमाल इससे कहीं अधिक हो भी नहीं सकता था। शॉपिंग कल्चर में बड़ा बदलाव देखने को मिला। इसके अलावा एजूकेशन सेक्टर में जबरदस्त बदलाव आया। हालांकि ये कहीं सही तो कहीं गलत रहा है। आर्थिक तौर पर पिछड़े लोग इसका फायदा नहीं उठा सके।