पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव तिथि ऐलान के बाद सियासी सरगरमी तेज हो गयी है। मुख्य मुकाबला भाजपा व टीएमसी में है। दोनों में जय श्रीराम और मुस्लिम तुष्टिकरण के बीच की दरार बढ़ती जा रही है। ऐसे में मुस्लिम मतों का विभाजन और ओवैसी की बंगाल में एंट्री ममता के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। अगर मुस्लिम वोटबैंक का विभाजन रोकने में ममता दीदी नाकाम हुई तो भाजपा कड़ी टक्क्र देने की स्थिति में होगी। बाजी किसके हाथ लगेगी यह तो 3 मई के चुनावी परिणाम तय करेंगे, लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या ममता दीदी की तोड़फोड़ व बमबाजी के आगे भाजपा का राष्ट्रवाद व जयश्रीराम भारी पडने वाला है?
सुरेश गांधी
फिरहाल, गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस, औरोबिंदो घोष, बंकिमचन्द्र चैटर्जी जैसी महान विभूतियों के जीवन चरित्र की विरासत को अपनी भूमि में समेटे यह धरती आज अपनी सांस्कृतिक धरोहर नहीं बल्कि अपनी हिंसक राजनीति के कारण चर्चा में है। यह किसी से छुपा नहीं है कि बंगाल में चाहे स्थानीय चुनाव ही क्यों न हों, चुनावों के दौरान हिंसा आम बात है। लेकिन जिस प्रकार तिथि ऐलान से पहले जगह-जगह तोडफोड़, बमबाजी, सरेराह कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई उससे साफ है कि इस बार कुछ ज्यादा ही हिंसा होने वाली है। वो तब जब बीजेपी ने ममता सरकार को गुंडों की पार्टी बताकर चुनावी मुद्दा ही बना दिया है। हालांकि माँ माटी और मानुष, नारे के सहारे ममता बाहरी बनाम बंगाली बताकर माहौल अपने पक्ष में करने की हर संभव कोशिश में जुटी है। इस फैक्टर को ममता ने बंगाली अस्मिता से जोड़ दिया है। इसका फायदा उन्हें मिलता दिख रहा है। लेकिन इसे वोट में कितना बदल पाती है यह बड़ा सवाल हैं। मतलब साफ है पश्चिम बंगाल में जाति फैक्टर सिर चढ़कर बोलरहा है। भाजपा और टीएमसी दोनों ही पार्टियां सभी जातियों को साधने में जुटी हैं।
जाति फैक्टर का नाम आते ही सबसे पहले मतुआ समुदाय का जिक्र आता है। मतुआ समुदाय बंगाल में अनुसूचित जनजाति की आबादी का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है। इस जाति का बंगाल की करीब 70 सीटों पर सीधा असर है। इसीलिए भाजपा इस जाति का दिल जीतने में लगी हुई है। जबकि ममता पूरी तरह मुस्लिम मतों के बिखराव को रोकने में दिन-रात एक कर दी है। यह अलग बात है कि मुसलमानों का नेता कहने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी बिहार में अपनी हाजिरी दर्ज कराने के बाद बंगाल में कूद गई है। ऐसे में उम्मीद लगाई जा रही है कि ओवैसी के आने से ममता बनर्जी का खासा नुकसान उठाना पड़ेगा। ओवैसी फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के सहारे ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम वोटों के अपने पाले में करना चाहते हैं। बता दें कि पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में 30 फीसद मुस्लिम हैं। और अभी तक मुस्लिम वोट लेफ्ट या टीएमसी के पास था। लेकिन सिद्दीकी के नई पार्टी लॉन्च करने और उनके साथ असदुद्दीन ओवैसी के आने से मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होनी लाज़मी है। जिसका सीधा नुकसान टीएमसी को होगा।
इन्हीं समीकरणा से घबराकर ममता बंगाल की धरती पर खड़े होकर गैर बंगला भाषी को बाहरी कहने का काम कर रही हैं। या यूं कहे भारत की विशाल सांस्क्रतिक विरासत के आभामंडल को अस्वीकार करने का असफल प्रयास करती नज़र आती हैं। क्योंकि ग़ुलामी के दौर में जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस देश के अलग अलग हिस्सों से अलग अलग आवाजें उठ रही थीं तो वो बंगाल की ही धरती थी जहाँ से दो ऐसी आवाजें उठी थीं जिसने पूरे देश को एक ही सुर में बांध दिया था। वो बंगाल का ही सुर था जिसने पूरे भारत की आवाज़ को एक ही स्वर प्रदान किया था। वो स्वर जिसकी गूंज से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलने लगी थी। वो गूंज जो कल तक इस धरती पुत्रों के इस पुण्य भूमि के प्रति प्रेम त्याग और बलिदान का प्रतीक थी वो आज इस देश की पहचान है। वंदे मातरम का नारा लगाते देश भर में न जाने कितने आज़ादी के मतवाले इस मिट्टी पर हंसते हंसते कुर्बान हो गए। आज वो नारा हमारा राष्ट्र गीत है और इसे देने वाले बंकिमचन्द्र चैटर्जी जिस भूमि की वंदना कर रहे हैं वो मात्र बंगाल की नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र की है।
लेकिन अफसोस है ममता बाहरी बनाम बंगाली का नारा देकर उसकी विरासत पर पलीता लगा रही है। ’खेला होबे’ यानी खेल होगा का नारा दे रहे है। दीदी और उनकी पार्टी इस नारे के जरिए बताना चाहती है कि इस बार बंगाल में बड़ा खेल होने वाला है। ये खेल क्या है इसे शायद दीदी ही बेहतर समझती होंगी। लेकिन कहीं उनका ओवर कॉन्फिडेंस उनपर उल्टा ना पड़ जाए। क्योंकि खेल तो तब होता है, जब कोई बहुत बड़ा बदलाव होता है। एक-एक करके टीएमसी के कई सहयोगी उनका साथ छोड़ रहे हैं। जैस शुवेंदु अधिकारी, वैशाली डालमिया.. ऐसे सैकड़ों नेता और कार्यकर्ताओं ने दीदी का साथ छोड़ दिया। अमित शाह तो ये तक कह चुके हैं कि चुनाव खत्म होते-होते दीदी और उनके भतीजे अकेले रह जाएंगे। क्योंकि लोकसभा चुनाव 2019 में मतुआ समाज का भाजपा का दामन थामना ममता दीदी की परेशानी का सबब साबित हुआ था। अगर विधानसभा चुनाव में भी मुस्लिम वोटबैंक के विभाजन के साथ मतुआ समाज का करीब 2 करोड़ वोटबैंक भाजपा की झोली में आ जाता है तो निश्चित तौर पर 10 साल से सत्ता पर काबित ममता दीदी के साथ बड़ा खेला हो सकता है। इसके अलावा दीदी की जय श्रीराम के नारे से चिढ़ होना भाजपा केलिए फायदे का सौदा साबित होता जा रहा है। यदि राम के नाम पर हिन्दू वोटबैंक को एकजुट करने में भाजपा कामयाब हो जाता है तो असली खेला उल्टे ममता के साथ हो सकता है।
पिछला चुनावों की बात करें तो ममता की पार्टी टीएमसी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 211 सीटों पर फतह का परचम लहराया था। इसके बाद दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही थी। जिसने महज़ 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन इस बार के चुनाव पिछले बार से काफी अलग हैं। भाजपा और टीएमसी के दरमियान सीधी टक्कर देखने को मिल रही है और दोनों ही पार्टियों ने अपना पूरा दमखम झोका हुआ है। वैसे तो ममता बनर्जी के बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में दोनों ही कार्यकाल देश भर में चर्चा का विषय रहे हैं। चाहे वो 2011 का उनका कार्यकाल हो जब उन्होंने लगभग 34 साल तक बंगाल में शासन करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को भारी बहुमत के साथ सत्ता से बेदखल करके राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली हो या फिर वो 2016 हो जब वो 294 सीटों में से 211 सीटों पर जीतकर एकबार फिर पहले से अधिक ताकत के साथ राज्य की मुख्यमंत्री बनी हों। दीदी एक प्रकार से बंगाल में विपक्ष का ही सफाया करने में कामयाब हो गई थीं क्योंकि विपक्ष के नाम पर बंगाल में तीन ही दल हैं जिनमें से कम्युनिस्ट के 34 वर्ष के कार्यकाल और उसकी कार्यशैली ने ही बंगाल में उसकी जड़ें कमजोर करीं तो कांग्रेस बंगाल समेत पूरे देश में ही अपनी जमीन तलाश रही है। लेकिन वो बीजेपी जो 2011 तक मात्र 4 प्रतिशत वोट शेयर के साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बंगाल में अपना अस्तित्व तलाश रही थी, 2019 में 40 प्रतिशत वोट शेयर के साथ तृणमूल को उसके ही गढ़ में ललकारती है बल्कि 295 की विधानसभा में 200 सीटों का लक्ष्य रखकर दीदी को बेचैन भी कर देती है।
इसी राजनैतिक उठापटक के परिणामस्वरूप आज उसी बंगाल की राजनीति में भूचाल आया हुआ है. लेकिन जब बात राजनीतिक दाँव पेंच से आगे निकल कर हिंसक राजनीति का रूप ले ले तो निश्चित ही देश भर में चर्चा ही नहीं गहन मंथन का भी विषय बन जाती है। क्योंकि जिस प्रकार से आए दिन तृणमूल और भाजपा के कार्यकर्ताओं की हिंसक झड़प की खबरें सामने आती हैं वो वहाँ की राजनीति के गिरते स्तर को ही उजागर करती हैं। भाजपा का कहना है कि अबतक की राजनैतिक हिंसा में बंगाल में उनके 130 से ऊपर कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। साल की शुरुआत में ही बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमले को लेकर खासा बवाल हुआ और उसी दौरान बीजेपी महासचिव और पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय को भी चोटें आयी थीं और ये तो पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद होने वाली हिंसा का नमूना भर रहा। 2014 से अभी तक की बात करें तो बीजेपी का दावा है कि उसके 300 कार्यकर्ता हिंसा के शिकार हो चुके हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 के चुनाव में पूरे देश में जहां 16 राजनीतिक कार्यकर्ता चुनाव से जुड़ी हिंसा में मारे गये और उनमें सात तो पश्चिम बंगाल से ही थे। आंकड़ों के मुताबिक, 1999 से 2016 के बीच 18 साल के दौरान पश्चिम बंगाल में औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं दर्ज की गयीं।
खास यह है कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की ओर से बढ़ती चुनौतियों के बीच अपना वजूद बचाने के लिए ही कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ने इस वर्ष राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में तालमेल का फैसला किया है? पश्चिम बंगाल के राजनीतिक हलकों में भी यही सवाल पूछा जा रहा है। इसकी वजह यह है कि ये दोनों पार्टियां पहले भी एक साथ मिल कर चुनाव लड़ चुकी हैं, लेकिन तब उन्हें कोई खास फायदा नहीं हुआ था। अब राजनीति के हाशिए पर पहुंच चुकी ये पार्टियां मौजूदा तालमेल के जरिये शायद अपना वजूद बचाने की ही लड़ाई लड़ रही हैं। हालांकि उनका दावा तो तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने का है, लेकिन आंकड़े उनके इस दावे की गवाही नहीं देते। वर्ष 2011 के बाद से लेफ्ट और कांग्रेस की राजनीतिक जमीन लगातार खिसकती रही है। बीते वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में स्थानीय स्तर पर अनौपचारिक तालमेल के बावजूद कांग्रेस जहां छह से घट कर दो सीटों पर आ गयी थी, वहीं लेफ्ट का खाता तक नहीं खुल सका था। ऐसे में सत्ता के दावेदार के तौर पर उभरती भाजपा और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के बीच की टक्कर में इन दोनों ही पार्टियों को अपना अस्तित्व समाप्त होने का खतरा महसूस हो रहा है।