राष्ट्रीय स्तर पर आज ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में जल की जितनी आवश्यकता है, उतनी आपूíत नहीं हो पा रही है। विभिन्न महानगरों में जलापूर्ति की समस्या एक भारी संकट का रूप ले चुकी है। इस संकट का कारण सतही और भूजल, दोनों के हर समय समुचित मात्र में उपलब्ध नहीं होना है। अत: अब समय आ गया है कि हमें जल संरक्षण, जल संग्रहण अथवा जल संचयन के परंपरागत तौर तरीकों को ढूंढना चाहिए। अगर ये किन्हीं कारणों से लुप्त हो गए हों तो उन्हें सामने लाया जाना चाहिए।
जल संसाधनों के संरक्षण एवं उचित प्रबंधन के लिए एकमात्र सही विकल्प गांव स्तर पर जन सहभागिता के माध्यम से छोटे, मझोले और बड़े तालाबों का निर्माण जन शक्ति ही करे। ऐसी अवधारणा से जलवृष्टि उपरांत अनावश्यक बह जाने वाले वर्षा जल का संचयन कर सतही जलापूíत एवं भूजल संभरण में वृद्धि की जा सकती है। सतत जल संरक्षण का अभ्यास प्राकृतिक संसाधन की उपलब्धता को संतुलित बनाए रखने में सहायक होगा। वर्षा जल संरक्षण भारत में वैदिक काल से ही किया जाता रहा है।
प्राय: पोखर, बावली, तालाब, ताल-तलैया, खडिन, टैंक आदि में जल संचयन किया जाता था, जो आज की संस्कृति में देखना दुर्लभ होता जा रहा है। प्रत्येक गांव में छोटे-छोटे तालाबों एवं पोखरों से वृष्टि उपरांत भूमि सतह पर जो जल प्रवाहित होता है, उसको बहुत ही कम समय, कम मेहनत और कम खर्च में संचयित किया जा सकता है। इस संसाधन का उपयोग कृषकों के खेतों में सिंचाई के लिए और पशुओं आदि के पीने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।
आरंभ में यह मॉडल देश के 115 आकांक्षी जिलों में बड़ी सहजता से लागू किया जा सकता है। इस अभियान को मूर्तरूप देने में स्थानीय बेरोजगारों, श्रमिकों को मनरेगा से काम मिल सकता है। जनशक्ति के सामथ्र्य से इन प्रत्येक आकांक्षी जिलों में एक बड़ा जल संरक्षण अभियान खड़ा हो सकता है। इससे निकट भविष्य में भारी मात्र में जल संरक्षण कर सतह पर जल उपलब्धता में वृद्धि ही नहीं, बल्कि भूजल संभरण (रिचार्ज) को भी बढ़ाया जा सकता है, जिसे हम जल की भविष्य निधि कह सकते हैं।
वर्षा जल संचयन एवं संरक्षण भारतीय संस्कृति एवं परंपरा का अभिन्न अंग रहा है। वैदिक ग्रंथों में इस बात का जिक्र रहा है कि हम प्रत्येक वस्तु के लिए धरती मां का दोहन जितना भी करते रहें, परंतु जल समुचित मात्र में धरती को अवश्य वापस करते रहें, अन्यथा पृथ्वी पर जीवन यापन का संतुलन बिगड़ जाएगा। यही असंतुलन आज हम देख रहे हंै। यह ध्यान रहे कि ग्रामीण एवं शहरी स्थितियां और परिस्थितियां परस्पर एक-दूसरे के विपरीत होती हंै। ग्रामीण क्षेत्र में वर्षा जल का संचयन एवं संरक्षण ग्राम पंचायत स्तर पर छोटे-छोटे जल ग्रहण क्षेत्र को इकाई मान कर करना श्रेयस्कर होगा।
प्राय: ग्रामीण क्षेत्र कृषि व्यवसाय बहुल होता है। कृषि व्यवसाय की सुरक्षा जल सुरक्षा प्राप्त कर लेने से ही संभव हो पाती है। आजकल भिन्न-भिन्न स्थानों एवं समय पर जलवृष्टि का रूप बदल सा गया है। आमतौर पर वर्षा वाले दिनों की संख्या घटती हुई प्रतीत होती है। इतना ही नहीं बहुत कम समय में यानी एक से तीन दिनों में इतनी अतिवृष्टि होती है कि कभी-कभी किन्हीं क्षेत्रों में बारिश की मात्र एक महीने से डेढ़ महीने में होने वाली वर्षा के बराबर होती है। कभी कभार असामयिक वर्षा का परिमाण भी बहुत होता है। ऐसी परिस्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि पर छोटे-बड़े जलाशय बनाकर तैयार रखने से वर्षा जल संरक्षण त्वरित गति से हो सकेगा। सिद्धांतत: प्रयास ऐसे होने चाहिए कि इकाई क्षेत्र में होने वाली वर्षा तथा उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले जल अपवाह उस क्षेत्र के परिधि से बाहर न जाने पाए।
शहरी क्षेत्रों में छोटे-बड़े मकानों की छत, पक्की सड़कों तथा फुटपाथों से प्राप्त वर्षा जल बड़े नालों के माध्यम से त्वरित गति से नदियों में व्यर्थ बह जाता है। इस व्यर्थ बह जाने वाले जल को रोकने का पूरा प्रयास किया जाना चाहिए। यह प्रयास कैसे होगा? वर्षा जल का संरक्षण मुख्यत: दो उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। पहला, संचयित जल का शीघ्र उपयोग करने के लिए भूमि सतह पर अथवा भूमिगत टंकी में जल को भंडारण किया जाना। दूसरा, भविष्य में उपयोग करने के लिए वर्षा जल को भूमि के अंदर संभरित करना जिससे भूजलाशय का पुनर्भरण हो।
शहरी क्षेत्र में संभरण गड्ढों (रिचार्ज पिट) द्वारा वर्षा जल का संरक्षण बहुत ही सुगमता से किया जा सकता है। छत अथवा फर्श द्वारा जनित जल अपवाह जिस भी नाली तंत्र के माध्यम से संभरण गड्ढे तक जाता है उसमें ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि पहली बारिश से निकला अपवाह गड्ढे को संभरित न करे। ऐसी सावधानी इसलिए आवश्यक है कि पहला अपवाह अपने में गाद, गंदगी, महीन रेत, धूल तथा अकार्बनिक रसायन को घोले हुए होता है। यदि इस जल से संभरण किया जाए तो भूजल के नियमित प्रदूषित होने और संभरण गड्ढे के चोक होने की संभावना रहती है।
कुल मिलाकर जन सहभागी पद्धति से राष्ट्रव्यापी जल संरक्षण कर केवल जलापूर्ति का ही समाधान नहीं किया जा सकता, बल्कि सूखे एवं बाढ़ की पुनरावृत्ति को भी रोका जा सकता है। इस प्रकार जन शक्ति से जल को शक्ति प्रदान की जा सकती है।