-अमित कुमार सिंह
नई दिल्ली। पूरे देश के मीडिया, पत्रकार, सिविल सोसाइटी युवाओं ने इसकी समृद्धि दर को ऐतिहासिक स्तर तक पहुंचा दिया है। भले ही हमारी जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट आई लेकिन हम आक्रोश के सेंसेक्स में लगातार तेजी बरकरार रखे हुए हैं। जब मैं पिछले 7 वर्षों से भारत को देखता हूं तो पाता हूं कि भारतीय समाज को वर्चुअल दुनिया ने हाईजैक कर लिया है। हमारी वास्तविक समझ पर अभी पर्दा पड़ चुका है और उसकी जगह उस वर्चुअल रियलिटी ने ले ली है जिसका एकमात्र मकसद गुस्सा और आक्रोश निर्मित करना है। इसके निर्माण कार्य के लिए सिवाय महीने के दो तीन सौ रुपए के इंटरनेट डाटा के अलावा और किसी कच्चे माल की जरूरत नहीं होती। इस पर वैश्विक आर्थिक मंदी और पांडेमिक का असर भी नहीं होता। मेरे ख्याल से हाल के वर्षों में इसका पहला अखिल भारतीय प्रयोग अन्ना हजारे अरविंद केजरीवाल की टीम ने किया। इसने अखिल भारतीय स्तर पर अपने धरना प्रदर्शन से अभूतपूर्व रूप से आक्रोश निर्मित करने में सफलता पाई। अन्ना आंदोलन आक्रोश निर्माण इंडस्ट्री का स्टार्टअप साबित हुआ। इस स्टार्टअप इंडस्ट्री के अपने प्रयोग द्वारा अभीष्ट मकसद में सफल हो जाने के बाद तो जैसे इसकी तलाश में बैठे हैं अन्य कई समूहों के लिए अलादीन का चिराग हाथ लग गया। बस फिर क्या था 2014 के चुनाव प्रचार में मोदी ने सोशल मीडिया और वर्चुअल दुनिया में अन्ना हजारे वाले सूत्र को सही तरीके से अप्लाई किया और संगठित उद्योग के तौर पर इसकी नींव रखी।
जैसा कि आप सब जानते हैं 2014 के चुनाव में घृणा और आक्रोश निर्माण का यह प्रयोग इस कदर सफल हुआ कि भारत में विपक्ष का सफाया हो गया। आक्रोश की सुनामी ने अखिल भारतीय दल को लील लिया। बहुत दिनों तक तो विपक्ष को समझ ही नहीं आया कि वह इसका मुकाबला कैसे करें! लेकिन फिर जेएनयू में घटित घटना से उनका हौसला वापस लौटा और उनको यह भरोसा हुआ विश्वविद्यालय के कुछ छात्र भी एक मजबूत सरकार के खिलाफ उसी किस्म का राष्ट्रीय आक्रोश पैदा कर सकते है। इसलिए हताश और निराश होने की जरूरत नहीं है। तब से विपक्ष भी इस मंत्र को समझ चुका है। अब सत्ता पक्ष, विपक्ष के समर्थक हजारों लोग दिन-रात फेसबुक और सोशल मीडिया पर अपने अपने हाइपोथिसिस के पक्ष में आक्रोश निर्माण में लगे रहते हैं। शेयर बाजार के सेंसेक्स की तरह हर दिन किसी दिन आक्रोश का सेंसेक्स ऊपर जाता है और कभी-कभी यह कुछ अंकों की गिरावट के साथ नीचे आता है। यदि कोई ऐसी घटना घटी जिसमें विपक्ष के लिए मौका होता है तो उस दिन विपक्षी दलों के आक्रोश के मुद्दों का बोलबाला होता है। जिस दिन दक्षिणपंथी खेमे को
चारा मिलता है उस दिन फिर से विपक्ष पर सरकारी दल समर्थक समूह भारी पड़ते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को इस बात से मतलब नहीं रह गया है कि वे जो आक्रोश बना रहे हैं अगर यह सौ करोड़ जनता का स्थाई भाव बन गया तो आगे इस देश में कोई भी सरकार नहीं चलेगी। क्योंकि 125 करोड़ के देश में 10- 20 करोड़ लोगों को तो आक्रोशित करना हमेशा आसान होगा। 70- 80 करोड़ लोग अगर आक्रोशित ना भी हो और केवल 20 करोड़ लोग भी आक्रोशित हो जाए और इनमें से केवल 10 -15 लाख लोग भी लोग सड़क पर उतर आए तो किसी भी सरकार के खिलाफ अखिल भारतीय प्रदर्शन आसानी से खड़ा कर लेंगे। फिर टीवी मीडिया तो है ही जो 10 -15 लाख लोगों के सड़क पर उतरने पर उन लोगों की भावना को दिन रात टीवी पर दिखा दिखा कर और सोशल मीडिया के इस धड़े के समर्थक अपने आईटी सेल प्रचार तंत्र से 15 दिन में इसे आसानी से 50 करोड़ लोगों की भावना में तब्दील कर देंगे और बस फिर काम पूरा। सरकार शासन तो करेगी लेकिन जनता पर उसकी पकड़ खत्म हो जाएगी। पर ऐसे में वह 5 साल केवल एंगर के परसेप्शन को मैनेज करने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देगी। फिर अगर सौभाग्य से यह सरकार चली जाए और दूसरी आ जाएगी तो सत्ता पक्ष के लोग इंतजार में बैठे रहेंगे कि अब उनको सड़क पर उतरना है और वे फिर से उन 15 लाख लोगों को ढूंढ लेंगे जो पूरे राज्य में आक्रोश पैदा करने का काम करेंगे। धीरे धीरे इसका परिणाम यह होगा कि भारत में रहने वाले अलग-अलग बहुधर्मी बहूजातीय समाज के बीच 20 वर्षों में सारा भाईचारा समाप्त हो जाएगा। क्योंकि इनमें से हर एक वर्ग के भीतर कभी न कभी आक्रोश निर्माण की प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए दूसरे किसी वर्ग के प्रति घृणा या आक्रोश भरा गया होगा तो अब यह दूसरे वर्ग को अपना दुश्मन मानेगा। फिर जब इनके आक्रोश की मियाद खत्म होने लगेगी तक किसी दूसरे वर्ग को पंचिंग बैग के तौर पर खड़ा किया जाएगा और इस तरह यह व्यापार जितना फलेगा भारत में राज्य भले मजबूत हो जाए लेकिन समाज टूट जाएगा।
राज्य पुलिस प्रशासन से चलता है वह कुछ लोगों को जेल भेज देगा, कुछ पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज करवा देगा कुछ को डरा देगा कुछ के खिलाफ पुलिस का इस्तेमाल करेगा और इस तरह वह इन समूहों को बल प्रयोग से नियंत्रित करने की कोशिश करेगा। कई बार अगर वह ऐसा नहीं कर पाएगा तो किसी एक समूह के प्रति ऐसी घृणा का भाव पैदा करेगा जिससे वह समूह अन्य वर्गों की निगाह में अनैतिक सिद्ध करके डिस्क्रेडिट किया जा सके। और अब तक घृणा में अंधी जनता इस जाल में इतना उलझ चुकी होगी और सामाजिक भाईचारे का ताना-बाना इस स्तर तक छिन्न-भिन्न हो चुका होगा कि वह चीजों को केवल राजनीतिक चश्मे से देखने की आदी हो चुकी होगी।जनता के अलग-अलग वर्ग में प्रोपोगेंडा फैलाने वाला अलग-अलग मीडिया चैनल और समूह होगा जिसकी बात को केवल एक वर्ग के लोग सुनेंगे और सच मानेंगे। दूसरे वर्ग के लोगों का अपना अलग मीडिया समूह और चैनल होगा। भावुक और आक्रोशित जनता जो आर्थिक मसलों, राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले, समाज के मुद्दों को राजनीति से अलग नहीं कर पाएंगी या अलग करने की क्षमता खो चुकी होगी वह इस प्रक्रिया में अपने दोस्त, पड़ोसी खोती जाएगी।
राष्ट्र होता क्या है?क्या केवल एक भूभाग या फिर उसमें साथ रहने वाले लोगों के बीच एकता और बंधुत्व का भाव?अगर यह साथ रहने वाले लोगों के बीच एकता और बंधुत्व का भाव होता है तब इसका मूल मंत्र यही होना चाहिए कि आप राजनीति करिए, मुद्दे उठाइए लेकिन मुद्दे उठाने का तरीका यह रखिए जिससे लोग मुद्दे से परिचित हो और उस पर तथ्यात्मक तौर पर मत बना सकें ना कि उनको बरगला कर उनमें कृत्रिम गुस्सा भरा जाए। कृत्रिम और निर्मित गुस्से की खराबी यह है कि इसमें व्यक्ति का नजरिया बदला जाता है। उसकी जीवन और जगत के प्रति पूरी सोच बदल दी जाती है। तब ऐसा व्यक्ति तथ्य जानने के बाद भी गुस्से से दूर नहीं होता जैसे जातीय पहचान को लेकर भरा गुस्सा। इस गुस्से में अगर आप जान भी जाए कि जाति जैसी कोई चीज तथ्यात्मक रूप से नहीं होती और पूरी दुनिया में कहीं नहीं पाती है सिवाय भारत के तब भी क्षत्रियों का ब्राह्मणों के प्रति, ब्राह्मणों का क्षत्रियों के प्रति, सवर्णों का दलितों के प्रति, दलितों का सवणो के प्रति गुस्सा कहां खत्म हो रहा है?इस तरह की निर्मित गुस्से की आयु ज्यादा लंबी होती है। तब राष्ट्रीय एकता की बात तो भूल ही जाइए। इसलिए अगर हम सब यह मानते हैं कि हमको अपने सारे मतभेदों के बावजूद इसी राज्य में रहना है और हमारा फिजिकल स्पेस इसी राज्य की सीमा के भीतर होगा तब राजनीति और विरोध कि वह प्रणाली ढूंढनी ही होगी जिसमें विरोध करने के बावजूद गुस्सा पैदा नहीं किया जाता।
इस संदर्भ में मैं हमेशा भारत के 2 बड़े महापुरुषों को आदर्श मानता हूं पहला गौतम बुद्ध जिन की कहानी आपने सुनी होगी। एक व्यक्ति बुद्ध को लगातार गाली दे रहा था और उसके बावजूद भी वे उत्तेजित नहीं हो रहे थे तब इन से किसी ने पूछा कि वह आपको गाली दे रहा है अपशब्द कह रहा है फिर भी आप क्रोधित क्यों नहीं हो रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि वह गाली दे रहा है लेकिन मैं उसकी गाली ले नहीं रहा हूं। हो सकता है यह महज कहानी हो और बुद्ध के साथ ऐसा कुछ ना घटा हो लेकिन तब भी यह कहानी बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरा मोहनदास करमचंद गांधी जिन्होंने असहयोग आंदोलन वापस लेकर भारत में गुस्से की राजनीति से किसी भी तरह के पवित्र साध्य को प्राप्त करने की प्रणाली को नकार दिया था। असहयोग आंदोलन भारत की आजादी के लिए था और इससे बड़ा लक्ष्य और कुछ और नहीं हो सकता था। गांधी ने उसके लिए भी गुस्सा और आक्रोश पैदा करने की प्रणाली को समर्थन नहीं दिया। भले ही इस कारण गांधी को समय-समय पर भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे जननायकों के खिलाफ खड़ा होना पड़ा। कई बार तो लोकप्रिय जनमत के गुस्से का सामना भी करना पड़ा। फिर भी उन्होंने अपनी प्रणाली परिवर्तित नहीं की। मैं मानता हूं कि भारत की आजादी के बाद की भारतीय समाज के स्थायित्व और एकता की सबसे बड़ी संजीवनी गांधी द्वारा 1920 -21 में ही अहिंसा के मूल्य की स्थापना द्वारा लगाई गई थी। यह काफी लंबे समय तक भारत में कारगर रही लेकिन अब उसकी प्रभावशीलता को हिंदू कट्टरवादी संगठनों, मुस्लिम मौलवियों, वामपंथियों और अंबेडकरवादियों ने खत्म कर दिया। इसलिए हमारे पास अब केवल दो ही विकल्प है, या तो भारत का प्रत्येक नागरिक अपने भीतर थोड़ा सा गांधी पैदा करें और सबके थोड़े-थोड़े योगदान से बूंद बूंद से सागर भर के हम इस देश में गुस्से की मात्रा को न्यून करने में सहयोग दें। या फिर हम फिर से किसी ऐसे चमत्कारी नेता के भारत के पटल पर आने की बाट जोहे जो गौतम बुद्ध, गांधी की तरह इस देश में नीलकंठ बन कर गुस्से के जहर को सोखने का काम करेगा।