उत्तराखंड के बेटे डॉ.दीवान सिंह रावत ने कर दिखाया बड़ा कमाल
अमेरिका की कंपनी से वाणिज्यिक उपयोग के लिए हुआ करार
नैनीताल : नैनीताल में पढ़े व उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद के मूल निवासी दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा प्रोफेसर डॉ.दीवान सिंह रावत ने लाइलाज पार्किंसन बीमारी की औषधि खोज निकाली है। उनकी अमेरिकन पेटेंट प्राप्त औषधि को अमेरिका की एक कंपनी बाजार में निकालेगी। इसके लिए डॉ.रावत का अमेरिकी कंपनी से करार हो गया है। औषधि विज्ञान के लिए यह बहुत बड़ी खोज बताई जा रही है। उल्लेखनीय है कि देश के पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड विलसन रीगन भी अपने अंतिम समय में, वर्षों तक इसी पार्किंसन नाम की लाइलाज बीमारी से पीड़ित रहे थे। उम्मीद की जा रही है कि अब जल्द ही दुनिया में लाइलाज पार्किंसन की डॉ.रावत की खोजी हुई औषधि बाजार में आ जाएगी, और भविष्य में वाजपेयी और रीगन सरीखे सभी खास व आम लोगों सहित पूरी मानव सभ्यता को इस जानलेवा व कष्टप्रद बीमारी से मुक्ति मिल पाएगी।
डॉ.रावत ने बताया कि वैज्ञानिक कंपाउंड बनाते रहते हैं, किंतु करीब 10 हजार कंपाउंड बनाने पर एक कंपाउंड ही बाजार में आ पाता है और इस प्रक्रिया में 16 से 18 वर्ष लग जाते हैं, एक दवा बनाने में करीब 450 मिलियन डॉलर का खर्च आता है। ऐसे में अनेकों वैज्ञानिक अपने पूरे सेवा काल में अपनी खोजी दवाओं को बाजार में लाने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं। लेकिन डॉ.रावत की खोज करीब सात वर्ष में और काफी कम खर्च में ही बाजार में आने जा रही है। पहाड़ की कठिन परिस्थितियां व्यक्ति को इतना मजबूत कर देती हैं कि यहां के लोग कुछ भी ठान लें तो उसे पूरा करके ही मानते हैं। डॉ.रावत उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद के ताकुला से आगे कठपुड़ियाछीना के पास दुर्गम गांव रैखोली के निवासी हैं। किसी भी आम पहाड़ी की तरह उन्होंने गांव में खेतों में हल जोतने से लेकर गोबर डॉलने तक हर कष्ट झेला है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में ही हुई।
नौवीं कक्षा के बाद डॉ.रावत नैनीताल आ गए और यहां भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय से 10वीं व 12वीं तथा आगे यहीं डीएसबी परिसर से 1993 में टॉप करते हुए एमएससी की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने लखनऊ से प्रो डीएस भाकुनी के निर्देशन में पीएचडी की डिग्री हासिल की। इसके बावजूद उन्हें दो वर्ष उद्योगों में प्राइवेट नौकरी भी करनी पड़ी। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 1999 में अमेरिका चले गए और तीन वर्ष वहां रहकर अध्ययन आगे बढ़ाया। वापस लौटकर 2002 में मोहाली और फिर 2003 में अपनी प्रतिभा से सीधे प्रवेश कर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे। 2010 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘सबसे युवा प्रोफेसर’ के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए।