‘चिटठी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देस जहां तुम चले गए’। ये उस गीत की पंक्तियां हैं जिसको मशहूर गायक जगजीत सिंह ने आवाज दी थी। यूं तो ये गीत उनके बेटे की आकस्मिक मौत के काफी समय बाद उन्होंने गाया था। इस गीत के जरिये उनका वो दर्द भी सामने आया था जो उन्हें अपने बेटे को खोने से मिला था। लेकिन, अब जबकि खुद जगजीत इस दुनिया से विदा ले चुके हैं तो उनके चाहने वालों के लिए ये पक्तियां उन्हें एक श्रद्धांजलि की तरह ही हैं।
जगजीत सिंह को यूं ही गजल सम्राट नहीं कहा जाता है। ये उपाधि उन्हें इस वजह से मिली थी कि क्योंकि उनकी ही बदौलत गजल आम आदमी तक पहुंच सकी। उससे पहले गजल उर्दू जानने वालों तक ही सीमित थी। उन्होंने गजलों को उस अंदाज में पेश किया जो सुनने वालों के दिलों तक उतरती चली गई। गजलों और उनके संगीत को लेकर भी जगजीत सिंह ने कई तरह के प्रयोग किए। गजलों में इंडियन और वेस्टर्न म्यूजिक की मौजूदगी के साथ उनकी महकती आवाज ने कई गीतों और गजलों को भी अमर कर दिया।
उन्होंने गुजरे दौर के शायरों से लेकर नए जमाने के शायरों की भी गजलों और गीतों को अपनी आवाज दी। बात चाहे गालिब की हो या मीर की या हो फिराक गोरखपुरी का कलाम या फिर फैज और निदा फाजली की लिखी गजलें, उनके होठों पर आते ही उनमें चार चांद लग जाते थे। यही वजह थी कि वर्ष 2003 में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। वर्ष 2014 में उनके सम्मान में दो डाक टिकट भी जारी किए गए थे।
लोग अक्सर उनके लाइव शो के लिए महीनों तक इंतजार करते थे और उनके शो के टिकट भी हाथोंहाथ बिक जाते थे। इस तरह के लाइव शो में कई बार उन्होंने अपने जीवन के वो किस्से भी सुनाए जिन्हें सुन लोग अपनी हंसी रोक नहीं पाए। ऐसे ही एक शो में उन्होंने अपने पहले प्यार का भी जिक्र किया था जो परवान नहीं चढ़ सका था। वो एक लड़की के प्यार में इस कदर पागल हो गए थे कि अक्सर उसके घर के बाहर साइकिल की चैन टूटने या पहिये की हवा निकलने का बहाना बनाकर खड़े हो जाते थे। ये सिलसिला काफी आगे तक बढ़ा और साइकिल से जगजीत मोटरसाइकिल पर आ गए। लेकिन नतीजा सिफर ही निकला। जगजीत की पढ़ाई में दिलचस्पी कुछ कम ही थी। यही वजह थी कि वह एग्जाम में कई बार फेल भी हुए। जैसे-तैसे कॉलेज की पढ़ाई के लिए जालंधन के डीएवी कॉलेज में एडमिशन मिला तो यहां पर भी उनका ज्यादातर समय गर्ल्स कॉलेज के इर्दगिर्द की कटता था। इसके अलावा उन्हें फिल्म देखना भी काफी पसंद था। इसके लिए अपनी जेब खर्च के पैसों का इस्तेमाल करते थे और कई बार ब्लैक में टिकट लेने की वजह से ये खत्म भी हो जाते थे। बहरहाल, ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से हिस्ट्री में पोस्ट ग्रेजुएशन किया।
जहां तक संगीत की बात है तो उन्हें यह अपने पिता से विरासत में मिला था। इसकी शुरुआत राजस्थान के गंगानगर, जहां उनका जन्म (8 फरवरी 1941) हुआ था, से हुई थी। उनके पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकार कर्मचारी थे। धमानी ने अपने इस बेटे का नाम जीत रखा था। जगजीत का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ जिले के दल्ला गांव से ताल्लुक रखता था। उनकी मां का नाम बच्चन कौर था जो पंजाब के ही समरल्ला के उट्टालन गांव की रहने वाली थीं।
गंगानगर में ही पंडित छगन लाल शर्मा से उन्होंने संगीत की शुरुआती शिक्षा ली थी। इसके बाद सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की बारीकियां सीखीं। उनके पिता चाहते थे कि जगजीत एक अफसर बने, लेकिन जगजीत को न पढ़ाई में दिलचस्पी थी और न ही किसी सरकारी औहदे में। कुरुक्षेत्र में पीजी करते हुए वहां के कुलपति को उनके अंदर एक गायक दिखाई दिया, जो संगीत के आसमान में चमकता तारा बन सकता था। उन्होंने ही जगजीत को संगीत के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। 1965 में उनके ही कहने पर जगजीत ने मुंबई का रुख किया था। यहां पर न घर था न कमाई का साधन। शुरुआत में किराए के मकान में गुजारा किया और खर्च का जरिया बनी विज्ञापनों के लिए गाई जाने वाली जिंगल्स। स्कूल और कॉलेज का प्यार उनका पीछे छूट चुका था और कामयाबी की राह में कई मुश्किलें भी थीं। ऐसे में उनके जीवन में चित्रा आईं और 1967 में दोनों ने शादी कर ली।
ये दौर मुश्किलों और संघर्षों से भरा था। यूं तो कॉलेज में भी अपना इंप्रेशन जमाने के लिए जगजीत गाने गाते थे लेकिन मुंबई की बात कुछ अलग थी। यहां पर पहले से ही मोहम्मद रफी समेत कई दिग्गज मजबूती के साथ अपना पैर जमाए बैठे थे। संगीत को लेकर लगातार फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री में प्रयोग चल रहा था। ऐसे में जगजीत क्लासिक म्यूजिक को पकड़े बैठे थे। यही चीज उस वक्त की सबसे बड़ी म्यूजिक कंपनी एचएमवी को भा गई। उनका पहला एलबम द अनफॉरगेटेबल्स 1976 में रिलीज हुआ और लोगों ने इसको काफी पंसद भी किया। उस वक्त लॉन्ग प्ले डिस्क पर जगह मिलना कोई बड़ा सम्मान मिलने के बराबर हुआ करता था। इसको हासिल करने के बाद जगजीत संगीत में सफलता की सीढि़यां लगातार चढ़ते गए।
मैं रोया परदेस में, दैरो हरम में रहने वालों, मैखाने में फूट न डालो, मैं नशे में हूं, हम तो हैं परदेस में, कागज की कश्ती, हे राम, बांके बिहारी कृष्ण मुरारी मेरी बारी कहां छिपे जैसे हजारों गीत-गजल ऐसे हैं जिनको लेकर उन्होंने अनूठे प्रयोग किए। संगीत और सुरों की जुगलबंदी में उनका कोई जवाब नहीं था। लोग उनकी आवाज में इस कदर शामिल हो जाते थे कि उनके साथ ही गुनगुनाने लगते थे। लंदन के एलबर्ट हॉल इसका एक उदाहरण है, जहां मैं नशे में हूं को लोगों ने साथ साथ गुनगुनाया था।
हिंदी फिल्मों की बात करें तो इसकी शुरुआत 1971 में फिल्म प्रेमगीत से हुई थी। ‘मेरा गीत अमर कर दो’ आज भी लोगों के दिलों की धड़कनें बढ़ा देता है। इनके अलावा हिंदी फिल्मों के कई गीतों को आवाज देकर उन्होंने उन्हें अमर बना दिया। कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान गायकों को भारत में आने से रोकने का उन्होंने समर्थन किया था। इसको लेकर काफी विवाद भी हुआ था। हालांकि इसके बावजूद जगजीत ने पाकिस्तान में रह रहे और गजलों के शहंशाह कहे जाने वाले मेंहदी हसन के इलाज के लिए आर्थिक मदद भी की थी। इसके अलावा गुलाम अली के साथ भी उन्होंने कई गजलों को आवाज दी है।
जगजीत का अचानक दुनिया को अलविदा कहना हर किसी के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। ब्रेन हैमरेज होने के कारण उन्हें 23 सितंबर 2011 को मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। इसके चलते उनकी सर्जरी भी की गई, लेकिन उनकी हालत लगातार खराब होती चली गई। 10 अक्टूबर 2011 को उनका निधन हो गया था। इसको इत्तफाक ही कहा जाएगा कि इसी दिन गुलाम अली के साथ उनका एक शो होना था।