पानी के पास ठौर-ठिकाना बनाने और उसे बूंद-बूंद सहेजने वाली पूर्वजों की जल संस्कृति को तिलांजलि देने का नतीजा हमारे सामने है। देश के सभी बड़े शहर जीरो डे के करीब पहुंचते दिख रहे हैं। छोटे शहरों और गांव, कस्बों की हालत भी बहुत ठीक नहीं है। पानी के लिए लोगों को वहां कसरत करनी पड़ रही है। अब समस्या दोहरी हो चली है। ताल-तलैयों, पोखर और नदियों के सूखने से एक तो पेयजल है नहीं, जो है प्रदूषण के चलते उसका रूप-रंग और स्वाद तेजी से बदल रहा है।
पानी की किल्लत बारहमासी बन चुकी है। अच्छी बात यह है कि लोगों के आंख-कान अब इस समस्या को लेकर खुल चुके हैं। सरकारें भी सचेत हो चली हैं। सब हरकत में आने लगे हैं। जल संरक्षण की बातें होने लगी हैं। सरकारें अपनी नीतियों को देश को पानीदार बनाने पर केंद्रित करने लगी हैं। समाज के तमाम लोग पानी की बूंद-बूंद बचाने-सहेजने की मुहिम में चुपचाप लगे हैं। नदियों को साफ-सुथरा बनाकर उनका अस्तित्व बरकरार रखने की चिंता मन में पैठती दिख रही है। साल 2020 में ये जागरूकता का क्रम और गहरा असर छोड़ेगा, लिहाजा हमारे पानीदार बनने की संभावना और बलवती होती है। बता रहे हैं अभिषेक पारीक:
एक समय सूखे के कारण देश के कुछ इलाकों की स्थिति काफी चिंतनीय थी। सिंचाई और पीने का पानी लगभग खत्म था, बेरोजगारी बढ़ी थी, महिलाएं दूरदराज क्षेत्रों से पानी लाती थीं और पलायन तेज था। बारिश की स्थिति यहां आज भी वैसी ही है, लेकिन लगन और मेहनत से यहां के लोगों ने प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बना लिया। इनमें से कई स्थानों में सालाना 250 मिमी से भी कम वर्षा होती है। लेकिन वर्षा जल संचयन ने इन इलाकों की तस्वीर बदल दी है। अब वहां समृद्धि है, खुशहाली है और रोजगार हैं। इन इलाकों में गर्मियों के दौरान भी पानी की कमी नहीं दिखती। इससे कृषि उत्पादन व आय में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। इस बदलाव पर एक नजर :
अलवर राजस्थान
350-450 मिमी: औसत वार्षिक वर्षा
1985 के हालात
किशोरी सहित कई गांव डार्क जोन थे। भूजल स्तर दो सौ फीट से भी नीचे था। महिलाएं दूरदराज के इलाकों से पानी भरकर लाती थीं। कृषि उत्पादन नगण्य था और युवा काम की तलाश में पलायन कर रहे थे।
बदले हालात
जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने वहां वर्षा जल संचयन की मुहिम शुरू की। 1,058 गांवों में आठ हजार से अधिक जोहड़ (कुंड) बने और पौधरोपण किया। मानसून बाद ही सूख जाने वाली अरवरी नदी 1995 में सदानीरा बनी। अब वर्ष में तीन फसलें पैदा होती हैं। रोजगार बढ़े, 85 फीसद पलायन रुका। 70 गांवों के 150 लोगों ने अरवरी को स्वच्छ रखने के लिए एक संगठन बनाया है।
रालेगण सिद्धिे महाराष्ट्र
250-300 मिमी: औसत वार्षिक वर्षा
1980 के हालात
1,700 एकड़ भूमि में से सिर्फ 80 एकड़ भूमि पर सिंचाई संभव थी। पुरुष ईंट-भट्ठों में काम करने बाहर जाते थे। जो गांव में थे वे अवैध शराब बनाकर परिवार का पेट पालते थे। परिवार दिनोंदिन कर्ज में डूब रहे थे। शिशु मृत्यु दर अधिक थी।
बदले हालात
समाजसेवी अन्ना हजारे ने 18 साल पहले गांव में वर्षा जल संचयन की शुरुआत की। तालाब, चेक डैम और कुएं बनाए गए। आज 1200 एकड़ कृषि भूमि सिंचाई योग्य हो गई है। किसान 60 लाख रुपये कीमत की तीन फसल प्रति वर्ष उगा रहे हैं। सब्जी, राशन और दूध भी बेच रहे हैं। गांव में चार लाख पौधरोपण हुआ। गांव में शराबबंदी हो गई है। गांव के बच्चे तालाबों में तैराकी सीखकर राज्य स्तरीय पुरस्कार जीत रहे हैं।
राज समधियालाे राजकोट, गुजरात
300 मिमी से कम: औसत वार्षिक वर्षा
1985 के हालात
भूजल स्तर घटकर 250 मीटर तक पहुंच गया था।
बदले हालात
डिस्ट्रिक्ट रूरल डेवलपमेंट अथॉरिटी कार्यक्रम से प्राप्त धन से ग्रामीणों ने करीब दो हजार हेक्टेयर भूमि पर 45 चेक डैम बनाए और 35 हजार पौधे रोपे। 2001 में गांव की आय 4.5 करोड़ हो गई। एक ही ऋतु में तीन फसलें उगने लगीं। इससे लोगों की आय में तेज इजाफा हळ्आ। 2003 में तो एक बूंद बारिश नहींहुई, फिर भी भूजल स्तर बढ़कर 15 मीटर तक आ गया था। 1985 में मीठे पानी के बारहमासी कुएं दो थे जो 2002 में 14 हो गए। 1985 की तुलना में प्रति हेक्टेयर औसत आय 4,600 से बढ़कर 2002 में 31 हजार हो गई। गळ्जरात के इस गांव ने पानी और पर्यावरण के बूते इस मळ्काम को हासिल किया।
माहुदी दाहोद, गुजरात
830 मिमी (1999 में 350 मिमी): औसत वार्षिक वर्षा
1999 से पहले के हालात
गांव विकट जल संकट से जूझ रहा था।
बदले हालात
ग्रामीणों ने स्थानीय मचान नदी के मुहाने के आसपास बड़ी संख्या में चेक डैम बनाए। सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था की। सैकड़ों पौधे लगाए। वार्षिक कृषि उत्पादन 900 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से बढ़कर चार हजार क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गया। साल में तीन फसलें उग रही हैं। पलायन घटा, पीने का स्वच्छ जल मिला। 1999 में सालाना औसत आय 35 हजार से ऊपर पहुंच गई। घर-घर में नल प्रणाली के जरिये पानी पहुंचाया गया। चारा बढ़ा तो दुग्ध उत्पादन बढ़ा।
गांधीग्रामे कच्छ, गुजरात
340 मिमी: औसत वार्षिक वर्षा
2000 से पहले के हालात
पानी संकट से खेती में बाधा उत्पन्न होती थी।
बदले हालात
ग्रामीणों ने पांच बड़े चेक डैम, 72 छोटे चेक डैम और 72 छोटे-बड़े नालों का निर्माण किया। इससे 2001 में जब 165 मिमी वर्षा हुई तब भी गांव के तालाबों और अन्य जल स्रोतों में पानी उचित मात्रा में मौजूद था। कुओं से ग्रामीणों को पानी नलों के जरिये मिलने लगा। किसान गेहूं, प्याज और जीरे जैसी नई फसलें उगाने लगे। रोजगार बढ़ा। बैंक से लोन लेकर ग्रामीणों ने एक बांध बनाया।
डेरवाड़ी गांवे अहमद नगर, महाराष्ट्र
300 मिमी: औसत वार्षिक वर्षा
1996 के हालात
सूखा प्रभावित गांव में पीने और सिंचाई का पानी मिलने की संभावना कम थी। ठीकठाक बारिश के बावजूद कृषि उत्पादन काफी कम था।
बदले हालात
ग्रामीणों ने वन विभाग से प्रतिबंधित वन क्षेत्र में खेती करने की अनुमति ली। उन्होंने रिज टू वैली अवधारणा पर काम किया। किसानों को पानी मिलने लगा, जिससे वे विभिन्न फसलें उगाने लगे। रोजगार बढ़ा, डेयरी, नर्सरी, पॉल्ट्री क्षेत्र में विकास हुआ गांव में महिला सहायता समूह बने।
जल योद्धा बिन जल भयावह कल देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो समाज और देश के लिए पानी को बचाने के प्रयास बड़े स्तर पर कर रहे हैं। ऐसी ही कुछ खास शख्सियतों पर एक नजर :
आबिद सूर्ती
उम्र 84 साल। पानी बचाने का इनका जोश युवाओं को पछाड़ देता है। मुंबई में 2007 से घर-घर जाकर लीकेज की निशुल्क मरम्मत करवाते हैं। ड्रॉप डेड फाउंडेशन नामक उनका एक एनजीओ है। 2007 में ही उन्होंने 1,666 घरों में दस्तक दी। 414 लीकेज पाइप ठीक करवाए और करीब 4.14 लाख लीटर पानी बचाया। यह सिलसिला जारी है।
अयप्पा मसागी
कर्नाटक निवासी अयप्पा ने हजारों लोगों को वर्षा जल संचयन सिखाया। गडग गांव में उन्होंने रबर और कॉफी की खेती के लिए छह एकड़ जमीन खरीदी। वह दिखाना चाहते थे कि कम वर्षा के बाद भी वह खेती कर सकते हैं। वर्षों की रिसर्च के बाद जल स्रोतों को रिचार्ज करने और बिना सिंचाई के खेती की तकनीक खोजी। 11 राज्यों में वर्षा जल संचयन के हजारों प्रोजेक्ट विकसित कर चुके हैं। साथ ही छह सौ झीलों का निर्माण भी किया है।
शिरीष आप्टे
महाराष्ट्र के पूर्वी विदर्भ में लघु सिंचाई विभाग में बतौर इंजीनियर काम कर रहे शिरीष ने वहां सरकारी मळ्कदमों में फंसे तालाबों के पुनरुद्धार का 2008 में बीड़ा उठाया। दो साल में ही पहला तालाब ठीक हो गया। इससे इलाके में भूजल स्तर में बढ़ोतरी हुई, कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई और मछली पालन बढ़ा। बाद में उनके नक्शेकदम पर सरकार भी सक्रिय हुई। वहां करीब एक हजार तालाब मळ्कदमे में फंस सूख रहे थे।
राजेंद्र सिंह
1959 में राजस्थान में स्वास्थ्य केंद्रों के निर्माण के उद्देश्य से गए, लेकिन उनको लगा कि लोगों को स्वास्थ्य से अधिक पानी की जरूरत है। उन्होंने ग्रामीणों के संग मिलकर जोहड़ (छोटे तालाब) बनाने शुरू किए। अब तक उनके द्वारा करीब 8,600 जोहड़ बनाए गए जो राजस्थान के 1,058 गांवों को लाभांवित कर रहे हैं।
अमला रुइया
मुंबई की अमला ने चैरिटेबल ट्रस्ट बनाकर राजस्थान के सर्वाधिक सूखा प्रभावित सौ गांवों में जल संचयन की स्थाई व्यवस्था की। 200 से अधिक चेक डैम बनाए गए। दो लाख लोग लाभांवित हुए