जज्बे और त्याग से अनु ने भीख मांगने वाले बच्चों की बदल दी जिंदगी, ऐसे बढ़ा मनोबल

मुफलिसी में जी रहे लोगों के जीवन को नया मुकाम देना, मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं है। आमतौर पर सड़कों पर भीख मांग रहे बच्चों को हम कुछ सिक्के देकर अपने मानवीय दायित्यों की पूर्ति कर लेते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसे नौनिहालों का जीवन पूरी तरह बदल देते हैं। ऐसा ही नेक कार्य कर रही है एक भगवाधारी युवती। वह ऐसे लोगों के बीच न सिर्फ उठती- बैठती हैं, बल्कि उनके जीवन को सुधारने के लिए खुद को समर्पित भी कर दिया है।

हम बात कर रहे हैं, हरियाणा की हिसार निवासी भगवाधारी अनु चिनिया की जिन्होंने अपने अथक प्रयास से भीख मांगते बच्चों के हाथ में कटोरा की जगह किताब पकड़ा दिया है। जो बच्चे पांच साल पहले रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड व शहर के प्रमुख चौराहों पर भीख मांगते नजर आते थे, वे अब अपनी कक्षाओं के मॉनिटर बन गए हैं। वे न सिर्फ किताबी ज्ञान हासिल कर रहे हैं, बल्कि दूसरे बच्चों के साथ खेलों सहित अन्य गतिविधियों में हिस्सा ले रहे हैं। वे मेडल भी जीत रहे हैं। इनकी प्रतिभा अब रंग ला रही है। परीक्षा के आधार पर चयनित स्लम बस्तियों के 11 बच्चे अब शहर के नजदीक तलवंडी राणा के छात्रावास में रहते हैं।

आज हिसार ही नहीं, फतेहाबाद, हांसी, अग्रोहा, उकलाना सहित कई स्लम बस्तियों के बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। चिनिया का लक्ष्य पूरे प्रदेश के स्लम बस्तियों के बच्चों को शिक्षित कर उन्हें मुख्यधारा में लाना है। हिसार में 17 जगह स्लम एरिया है। यहां के 544 बच्चों का अनु ने सरकारी स्कूल में दाखिला कराया। बच्चे शुरुआत में स्कूल जाना बंद कर देते थे क्योंकि इन बच्चों में बाहर घूमने की बुरी आदत थी।

कदम-कदम पर आई बाधा, नहीं हारी हिम्मत

‘भीख नहीं किताब दो’ संस्था की प्रमुख अनु चिनिया बताती हैं कि जब उन्होंने स्लम के बच्चों को पढ़ाने की ठानी तो उनका चौतरफा विरोध हुआ। सरकारी स्कूल में कंप्यूटर शिक्षक की नौकरी छूटने से परिवार वाले खिन्न थे। स्लम में रहने वाले लोग भी मुझसे नाराज थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे पढ़ें। भीख को अपना पुश्तैनी काम मानने वाले लोग कहते थे कि कमाएंगे नहीं तो खाना कैसे मिलेगा। सूर्यनगर स्लम बस्ती से मैंने अपना अभियान शुरू किया। बस्ती के पप्पू अंकल, जिनके 11 बच्चे थे, बोले-आप अच्छे घर की लग रही हैं। आप इस चक्कर में न पडें। लेकिन मैंने ठान लिया था- कुछ भी हो यहां के बच्चों को बदल कर रहूंगी। मैं वहां हर रोज जाती और पेड़ के नीचे सफाई कर चटाई बिछाकर बैठ जाती। छह सात दिन बाद पप्पू अंकल ने बच्चों को भेजना शुरू कर दिया। कुछ और बच्चे भी आने लगे। 11 दिन बाद मैंने देखा कि जिस जगह को मैं खुद साफ करती थी, उसे पहले से बच्चों ने साफ कर रखा था। फिर बस्ती के कुछ और लोग मेरे साथ आए और एक महीने में 70 से 80 बच्चों को मैं पढ़ाने लगी।

ऐसे बढ़ा़ मनोबल

अनु चिनिया के अनुसार, जब बच्चे अधिक हुए तो इसकी चर्चा पूरे शहर में हुई। फिर एक कार्यक्रम में मुझे आइजी अनिल राव मिले। उन्होंने मेरे काम की प्रशंसा करते हुए मदद का आश्वासन दिया। मैंने उनसे बच्चों के लिए जगह मांगी, क्योंकि बस्ती में ही रहने के कारण बच्चों का मन पढ़ाई में कम लगता था और वे भागकर घर पहुंच जाते थे। फिर उन्होंने टाउन पार्क के करीब जगह दिलाई और वहां बच्चों की नियमित पढ़ाई शुरू हो गई। बाद में बच्चों का स्कूल में नामांकन कराया। कुछ दिन बाद ही स्कूल से शिकायत आ गई कि ये दूसरों बच्चों के साथ मारपीट करते हैं। साफ-सफाई नहीं रखते, इनको नहीं पढ़ा सकते। इससे मुझे जोर का झटका लगा। चार माह तक बच्चों को आचार-व्यवहार की ट्रेनिंग दी। जब दोबारा स्कूल भेजा तो अच्छा परिणाम आया। जब सफलता मिली तो स्लम बस्ती के लोगों की सोच में भी बदलाव आया।

ऐसे समझें बदलाव को

रोहन : उम्र 12 साल

काम : बस स्टैंड पर भीख मांगना

बदलाव : पढ़ा़ई के साथ ही दौड़ में भी अव्वल। सैनिक स्पोट्र्स अकादमी बहवलपुर में आयोजित प्रतियोगिता में दौड़ में पहले स्थान पर रहा

लक्ष्य : पुलिस अधिकारी बनना

देवा : उम्र 12 साल

काम : कबाड़ चुनना

बदलाव : हमेशा प्रथम श्रेणी में पास होता है। देर रात तक पढ़ता रहता है। स्कूल प्रबंधन ने मॉनिटर बना रखा है।

बच्चों को बदलते-बदलते खुद बदल गई अनु

अनु चिनिया का उद्देश्य बच्चों के जीवन में बदलाव लाना था लेकिन वह इस काम में इस कदर खो गईं कि उन्होंने खुद को ही बदल लिया। अब वह अपने घर नहीं जातीं और आश्रम में ही रहती हैं। वह शादी भी नहीं करना चाहतीं, क्योंकि उन्हें डर लगता है कि कहीं उनका पति उनकी राह में बाधा न बन जाए। भगवा धारण करने का कारण पूछने पर वह कहती है- जींस पहनने पर समाज की दृष्टि अलग थी। इसलिए, धीरे-धीरे पहले चोला बदला तो मन भी बदल गया।

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