कर्तव्यों का बोध कराती मूल्यपरक शिक्षा प्रणाली!

रमेश पोखरियाल निशंक, मानव संसाधन विकास मंत्री

लखनऊ : विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र के वृहदतम शिक्षा तंत्रों में से एक होने के गौरव के साथ-2 हमें एक बड़ी जिम्मेदारी का भी अहसास है। हमें पता है कि अच्छी शिक्षा के माध्यम से ही हम नव भारत के निर्माण की आधारशिला तैयार कर सकते है। हम बखूबी जानते हैं कि हम लगभग 33 करोड़ विद्यार्थियों के भविष्या का निर्माण कर रहे हैं और उनके स्वर्णिम भविष्य का निर्माण तभी हो सकता है जब हम उनका परिचय उन शाश्वत मूल्यों से कराएंगे जो मानवता के आधार स्तंभ हैं। मुझे लगता है कि यदि कोई व्यक्ति गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहता है तो यह उसका कर्तव्य है कि उसका कोई भी कृत्य ऐसा न हो जो किसी और के गरिमापूर्ण जीवन को बाधित करता हो। अगर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए तो उसे यह सुनिश्चिहत करना चाहिए कि जब दूसरा अपनी भावनाओं को उसके समक्ष रखे तो वह धैर्य, सहिष्णुष्ता, सहनशीलता का परिचय दें।

सबसे हैरानी वाली बात यह है कि दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देश मूल अधिकारों की बात करते हैं, परंतु मूल कर्तव्यों के विषय में मूक हैं। हमारे संविधान में कर्तव्यों का समावेश सोवियत संघ से प्रेरित रहा है। जिस दिन हम अपने विद्यार्थियों को कर्तव्यों का महत्व समझा पाएं हमारी काफी समस्याएं अपने आप ही हल हो जाएंगी। जब हम भारत केन्द्रित, संस्कार युक्त शिक्षा की बात करते हैं तो मुझे लगता है कि हमारे संवैधानिक कर्तव्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसमें शामिल हो जाते हैं। देश में 33 साल बाद नई शिक्षा नीति देश में आ रही है। नवाचारयुक्त, मूल्यपरक, संस्कारयुक्त, शोधपरक, अनुसंधान को बढ़ावा देती यह नई शिक्षा नीति देश के सामाजिक आर्थिक जीवन में नए सूत्रपात का आगाज करेगी। नई शिक्षा नीति देश को वैश्विक पटल पर एक महाशक्ति के रूप में स्थाीपित करने के लिए समर्पित है। आज अपने बच्चों को यह समझाना अत्यंत आवश्यक है कि विविधता से परिपूर्ण भारत एक देश नहीं बल्कि पूरा उपमहाद्वीप है, जिसके विभिन्न भागों में अलग-अलग रीति रिवाज और अलग- अलग परंपराएं हैं। इस रंग बिरंगी विविधता के जितने दर्शन भारत में होते हैं उतना शायद ही विश्व के किसी अन्य क्षेत्र में होते होंगे।

भारतीय संस्कृति ने मानव सभ्यता की आध्यात्मिक निधि में हमेशा ही बहुत बड़ा योगदान दिया है और हमें इसके सरंक्षण के लिए समर्पित होने की आवश्यकता है। यह संस्कृति अध्यात्म की एक निरंतर बहती धारा है, जिसको ऋषियों-मुनियों, संतों और सूफियों ने अपने पवित्र जीवन दर्शन से लगातार सींचा है। इन्हीं के नाम से भारत की बाहुल्य संस्कृति को आधार मिलता है। यहां हर 100 किलोमीटर पर हमारी बोली बदल जाती है, कुछ 200 किलोमीटर दूर जाने पर हमारे खानपान, परिधान बदल जाते हैं, हमारी भाषाएं बदल जाती है और 1000 किलोमीटर दूर जाने पर पूरी जीवन शैली की पृथक रंग उजागर होता है, पर इन सब के बावजूद हम सदियों से एकता के सूत्र में समावेशित हैं। हमारी संस्कृति हमें एकता, समरसता, सहयोग, भाईचारा, सत्य, अहिंसा, त्याग, विनम्रता, समानता आदि जैसे मूल्य जीवन में अपनाकर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आज मनुष्य तन-मन की व्याधियों से जूझ रहा है। ऐसे में ये विचार संस्कार ही बचाव का रास्ता है। विचार से ही हम विश्व गुरु बने और फिर विचारों से विजय हासिल करेंगे। तेजी से बदलते डिजिटल युग में हम किस प्रकार शिक्षा के माध्यम से उपने मूल्यों को सरक्षित संवर्धित करे यह बड़ी चुन्नौती है। नयी शिक्षा नीति से हमने अपने विद्यार्थियों को जड़ों से जोड़ने का प्रयास किया है।

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