दर्शन, न्याय, वेदांत व तर्कशास्त्र पर होती थी चर्चा
कुशीनगर : तिब्बत उच्च शिक्षा संस्थान, सारनाथ के कुलपति प्रो.गेसे नवांग ने कहा कि भारत के प्राचीन बौद्ध विहारों में दर्शन, न्याय, मनोविज्ञान, वेदांत, तर्कशास्त्र आदि सबके बारे में उच्चस्तरीय विमर्श हुआ है। वह विचार बहुत सकारात्मक और सृजनात्मक था। 13वीं शताब्दी के बाद जब बौद्ध दर्शन कमजोर हुआ तो संवाद की प्रक्रिया रुक गई, जिसका नतीजा हुआ हम वैचारिक रूप से कमजोर हुए। एशियाई देशों में बौद्ध धर्म सत्ता और ताकत के बल पर नहीं संवाद और विचार के बल पर बढ़ा।
कुलपति रविवार शाम को कुशीनगर में सिद्धार्थ विश्वविद्यालय के तत्वावधान में आधुनिक युग मे बौद्ध धर्म दर्शन की प्रासंगिकता विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी को मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि तिब्बत छठीं सातवीं शताब्दी तक बहुत योद्धा देश था। उसका विस्तार पिचिंग से ईरान तक था। बौद्ध धर्म के स्वीकार्यता के बाद वह सामरिक रुप से कमजोर हुआ। आज के समय में विज्ञान ने बुद्धत्व को बहुत स्वीकार किया है। विज्ञान कहता है कि हम जीन्स के प्रभाव को भी मेडिटेशन या विपश्यना के माध्यम से बदल सकते हैं। उन्होंने कहा कि करुणा और क्रोध का प्रभाव तुरन्त पड़ता है। इसका प्रभाव दूसरों पर बाद में पहले खुद पर पड़ता है। बौद्ध धर्म भावनाओं पर नियंत्रण पर बहुत जोर देता है। इसी से दुनिया की सभी समस्याओं का हल सम्भव है। बौद्ध स्मारक विकास परिषद नई दिल्ली के अध्यक्ष प्रो. अरविंद आलोक ने कहा कि बुद्ध का चिंतन और उपदेश किसी एक जाति, सम्प्रदाय या वर्ग के लिए नही है। यह मनुष्य मात्र के सर्वांगीण विकास के लिए है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में दर्शन के पूर्व अध्यक्ष प्रो. हरिशंकर ने कहा कि बुद्ध शब्द एक अनुभूति है। अपनी अनुभूति को प्रपंच शून्यता के माध्यम से सार्वजनिक करना निरोध के माध्यम से ही सम्भव है और बुद्ध ने यही किया है। बुद्ध ने मानवता के स्वरूप देखा और गोत्र की अवधारणा बदल दिया। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष प्रो. आरसी सिन्हा, गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष प्रो. सभाजीत मिश्र, विधायक रजनीकांत मणि त्रिपाठी ने सम्बोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता सिद्धार्थ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने की।