फ़‍िल्‍म ‘संस्‍कार’ के बहाने याद किये गए गिरीश कर्नाड

लखनऊ : महान नाटककार, फ़‍िल्‍मकार और अभिनेता गिरीश कर्नाड की स्‍मृति में उनकी पहली फ़‍िल्‍म ‘संस्‍कार’ का प्रदर्शन किया गया और फ़‍िल्‍म की पटकथा समेत उसके सभी पहलुओं पर और गिरीश कर्नाड के समूचे व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व पर ‘लखनऊ सिनेफ़ाइल्‍स’ की ओर से अनुराग लाइब्रेरी हॉल, निराला नगर में विस्‍तृत चर्चा का अयोजन किया गया। 1970 में बनी कन्‍नड़ फ़‍िल्‍म ‘संस्‍कार’ यू. आर. अनन्‍तमूर्ति के उपन्‍यास पर आधारित थी। इस फ़‍िल्‍म में गिरीश कर्नाड ने कर्नाटक के एक गाँव दुर्वासापुर में रहने वाले एक कर्मठ ब्राह्मण प्रणेशाचार्य का किरदार निभाया है जिसका धर्मशास्‍त्रों में अडिग विश्‍वास और और उसे वह जीवन और समाज पर कठोरता से लागू करने की कोशिश करता है। प्रणेशाचार्य की एक दूसरे धर्माचार्य नारायणअप्‍पा से नैतिकता-अनैतिकता पर अक्‍सर बहस होती है।
नारायणप्‍पा भौतिकवादी जीवनदृष्टि को मानने वाला होता है, वह मदिरा का सेवन करता है, गोमांस खाता है और देवदासी कल्‍ली के साथ प्रेम संबंध स्‍थापित करता है। गाँव के अन्‍य ब्राह्मण नारायणप्‍पा को जात बाहर करने का प्रस्‍ताव रखते हैं, लेकिन प्रणेशाचार्य ऐसा नहीं करता है क्‍योंकि उसे लगता है कि वह तर्क से नारायणप्‍पा का समझा लेगा। इसी बीच नारायणप्‍पा की मौत हो जाती है। गाँव के ब्राह्मण उसका अन्तिम संस्‍कार करने से मना कर देते हैं क्‍योकि उसने ब्राह्मण धर्म के रीति-रिवाजों का उल्‍लंघन किया था। लेकिन समस्‍या यह खड़ी होती है कि चू‍ँकि नारायणप्‍पा को जात-बाहर नहीं किया गया था, इसलिए उसके शव का अन्तिम संस्‍कार कोई गैर-ब्राह्मण नहीं कर सकता। हालाँकि जब यह पता चलता है कि अंतिम संस्‍कार करने वाले को कल्‍ली के सोने के आभूषण मिलेंगे तो ब्राह्मणों में आपस में होड़ भी लग जाती है।  इस समस्‍या का शास्‍त्र सम्‍मत समाधान खोजने की जिम्‍मेदारी प्रणेशाचार्य को दी जाती है।
प्रणेशाचार्य सारे धर्मग्रन्‍थों की खाक छान मारता है, लेकिन उसे कोई समाधान नहीं मिलता। इस बीच एक रात एक मन्दिर में वह देवदासी कल्‍ली के सौन्‍दर्य पर मोहित हो जाता है और उसके साथ शारीरिक सम्‍बन्‍ध बना लेता है। अगले दिन प्रणेशाचार्य को आत्‍मग्‍लानि होती है कि उसने वही ‘अनैतिक’ काम किया जिसके लिए वह नारायणप्‍पा की आलोचना करता था। वह गाँव छोड़ देता है और दर-दर भटकता है। उधर गाँव में नारायणप्‍पा की लाश सड़ने लगती है जिसकी वजह से प्‍लेग फैल जाता है और कई लोगों की मौत होने लगती है। फ़‍िल्‍म के अन्‍त में दिखाया गया है कि प्रणेशाचार्य को धार्मिक पाखण्‍ड का एहसास हो जाता है और वह  वापस गाँव लौटने का फैसला करता है। फ़‍िल्‍म के बाद हुई चर्चा के दौरान गिरीश कर्नाड के बहुमुखी व्‍यक्तित्‍व पर भी बातचीत हुई। कर्नाड एक महान नाटककार, फ़‍िल्‍मकार और अभिनेता तो थे ही, लेकिन उससे भी ज्‍़यादा महत्‍त्‍वपूर्ण बात यह है कि वे साम्‍प्रदायिक और फ़ासीवादी ताक़तों का मुखर विरोध करने का कोई भी मौका नहीं चूकते थे। स्‍वास्‍थ्‍य बेहद खराब होने के बावजूद गौरी लंकेश की मृत्‍यु के बाद हुए तमाम प्रदर्शनों में वे शामिल हुए। इस प्रकार उन्‍होंने जीवन के अन्तिम साँस तक एक सच्‍चे कलाकार होने का दायित्‍व निभाया। चर्चा में यह बात उभर कर आयी कि फ़‍िल्‍म में ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज़ों की जकड़न में फँसे भारतीय समाज के ढोंग और पाखण्‍ड पर बहुत करारी चोट की गयी है। फ़‍िल्‍म में धर्मग्रन्‍थों के हवाले से जायज ठहराये जाने वाले जातिगत उत्‍पीड़न और स्त्रियों के दोयम दर्जे की स्थिति का भी मार्मिक चित्रण किया गया है।
चिंतक आनंद सिंह कहते हैं कि आधी सदी पहले बनी होने के बावजूद कई मायनों में यह फ़‍िल्‍म आज भी बेहद प्रासंगिक है। विशेषकर हिन्‍दुत्‍ववादी राजनीति के उभार के दौर में ऐसी फ़‍िल्‍मों का महत्‍व पहले से कहीं ज्‍़यादा बढ़ जाता है। शिक्षक इन्द्र कुमार का कहना था कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए हमें अपने घर से शुरुआत करनी होगी। आज बहुत से लोग जाति बंधन तोड़कर अन्य मजहब से अपने सम्बन्ध जोड़ रहे हैं। धर्म कि आड़ में समाज में घुस आये पाखंड व संस्कार के नाम पर खुली लूट को हर हाल में उखाड़ फेकने कि ज़रूरत है। लेकिन हमारे गॉवों का सूरते हाल आज भी वैसे का वैसा ही है। वरिष्ठ पत्रकार प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव ने अपनी बात रखते हुए कहा कि एक तरफ हम ये मानते हैं कि ये सब गलत है लेकिन सामाजिक दबाव के चलते न चाहते हुए भी हम वो सब करते ही हैं। वो कहते हैं कि मुझे नहीं लगता कि इस स्थिति में कोई बदलाव होगा। धर्म के आड़ में संस्कारों के पाखंड कि जो अफीम हमें चटाई गई है उसका असर जल्दी जाने वाला नहीं है। चर्चा में भाग लेने वालों में ‘लखनऊ सिनेफ़ाइल्‍स’ के कर्ताधर्ता आनंद सिंह, सत्य प्रकाश राय, इंद्रजीत, अखिल, राजेश मौर्या, मीनाक्षी आदि प्रमुख रहे I

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