बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता, डायरेक्टर और लेखक ‘गुरुदत्त’ का आज 9 जुलाई के दिन बर्थडे होता था। आज भी ये एक्टर अपने प्रशंसनीय काम के वजह से जाने जाते हैं। गुरुदत्त का असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था। गुरुदत्त का जन्म 1925 में कर्णाटक के बंगलौर शहर में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल में हेडमास्टर थे, जिनकी बाद में बैंक में नौकरी लग गयी थी और उनकी माँ एक साधारण गृहिणी थीं। गुरुदत्त ने अपने बचपन के दिन कोलकाता में गुजारे। बंगाल की संस्कृति से उनका बहुत गहरा लगाव था। गुरुदत्त बंगाली संस्कृति से इतना प्रभावित हुए कि इसी संस्कृति के चलते उन्होंने अपने बचपन का नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण से बदलकर गुरुदत्त रख लिया। पैसों की कमी के चलते पढ़ाई में अच्छे होने के बावजूद भी गुरुदत्त 10वीं के आगे नहीं पढ़ सके। संगीत और कला में रुचि होने के चलते गुरु दत्त ने अपनी प्रतिभा से स्कॉलरशिप हासिल की और ‘उदय शंकर इंडिया कल्चर’ सेंटर में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने डांस सीखा। 5 साल तक उदय शंकर से डांस सीखने के बाद गुरु दत्त को पुणे के प्रभात स्टूडियो में बतौर कोरियोग्राफर काम करने का मौका मिला।
बॉलीवुड में अपना पहला कदम उन्होनें 1946 में रखा। साल 1946 में गुरुदत्त ने प्रभात स्टूडियो की एक फिल्म ‘हम एक हैं’ से बतौर कोरियोग्राफर अपना फिल्मी करियर शुरू किया।तब वो महज 21 साल के थे। इस फ़िल्म में दुर्गा खोटे, कमला कोटनिस, अलका अचरेकर, रिहाना और रंजीत कुमारी जैसी सशक्त अभिनेत्रियां काम कर रही थीं और गुरुदत्त ने अपने करियर की शुरुआत ही इन सकुशल डांसर्स अभिनेत्रियों को डांस सीखने से की, इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की गुरुदत्त कितने उच्च कोटि के डांसर रहे होंगे। उनकी प्रतिभा और दुनिया को देखने का उनका अंदाज़ उन्हें सबसे अलग बनाता है।देव आनंद ने ही उन्हें ‘बाज़ी’ में पहला बड़ा ब्रेक दिया। इसके बाद गुरुदत्त ने पीछे मुड़कर नहीं देखा । 26 वर्ष की आयु में गुरुदत्त ने ‘बाज़ी’ का निर्देशन किया। ‘बाज़ी’ देव आनंद की फ़िल्म निर्माण कम्पनी नवकेतन की भी पहली फ़िल्म थी। ‘बाज़ी’ की अपार सफलता के बाद गुरुदत्त ने देव आनंद को लेकर एक और फ़िल्म का निर्देशन किया- ‘जाल’। यह फ़िल्म भी सुपरहिट रही। आज भी गुरुदत्त चर्चा में हैं तो यह उनके हुनर का ही कमाल है। आज ही नहीं, आगे भी भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की जब भी चर्चा होगी बार-बार गुरुदत्त का नाम लिया जाएगा। ‘प्यासा’, ‘साहिब, बीबी और गुलाम’, ‘चौदहवी का चाँद’ जैसी सुपरहिट फिल्मों से सबके दिलों को जीत चुके थे।
फिर ऐसा क्या हुआ कि बॉलीवुड के एक जाने माने नाम बन चुके गुरुदत्त ने 3 बार अपनी जान लेने की कोशिश की ।
इसकी असली वजह तो आज तक राज़ ही बनकर रह गयी। पर हाँ उनकी निजी ज़िन्दगी को देखते हुए कहा जा सकता है की उनकी सुसाइड की वजह कहीं ना कहीं उनकी निजी ज़िन्दगी ही रही होगी। ‘बाज़ी’ की शूटिंग के दौरान से ही गुरुदत्त और गीता राय एक-दूसरे के निकट आए। जहां एक ओर दत्त गीता की आवाज़ के दीवाने हो गए थे, वहीं दूसरी ओर गीता भी दत्त के काम और उनकी पर्सनालिटी पर मुग्ध थीं। कम बोलने वाले, गंभीर, लेकिन आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह जाने वाले गुरुदत्त ने गीता को इम्प्रेस कर दिया था। एक दिन जब रिहर्सल और रिकॉर्डिग से फुर्सत मिली, तो गुरुदत्त ने गीता को शादी के लिए प्रोपोज़ कर दिया। गीता गुरुदत्त को चाहने लगी थीं, लेकिन बिना माता-पिता की मर्जी के वे शादी नहीं कर सकती थीं। ‘बाज़ी’ अभी रिलीज़ नहीं हुई थी। गीता ने कहा, परिवार वालों से कहना होगा। बाद में गीता राय के माता पिता की राजी से दोनों का विवाह साल 1953 में हुआ। लेकिन गुरुदत्त का वैवाहिक संबंध खुशनुमा नहीं रहा। गुरुदत्त और गीता दत्त की एक बेटी भी थी।
इसी बीच गुरुदत्त ने वहीदा रेहमान के साथ फिल्म ‘प्यासा’ में काम किया। इसी फिल्म के दौरान गुरुदत्त और वहीदा रेहमान के बीच बढ़ती नज़दीकियों की खबरें सामने आने लगी। वहीदा रेहमान को हिंदी फिल्मों में लेकर आने का मुख्य श्रेय भी गुरुदत्त को ही जाता है। वहीदा रेहमान और गुरुदत्त के बढ़ते रिश्ते के चलते गुरुदत्त की शादीशुदा ज़िन्दगी ज्यादा लम्बे समय तक नहीं टिक पायी। साल 1957 से दोनों अलग अलग रहने लगे। साथ ही साथ गुरुदत्त की आखिरी फिल्म ‘कागज के फूल’ की असफलता ने उन्हें पूरी तरह से तोड़ दिया। गुरुदत्त ना अपनी पत्नी और बीवी गीता दत्त को अपनी जिंदगी में वापस ला पाए और ना ही वहीदा रेहमान ने उनका साथ दिया। अपने दोनों प्यार से हारे हुए गुरुदत्त ने 2 बार और सुसाइड करने की कोशिश की थी पर वो दोनों कोशिशें असफल रही । आखिर में साल 1964 के अक्टूबर महीने में उन्होंने तीसरी बार अपनी जान देने की कोशिश की और वो सफल रही। माना जाता है की उस रात गुरुदत्त ने काफी शराब पीने के बाद नींद की गोलियां खायी थीं और अगली सुबह अपने बैडरूम में मृत पाए गए।
इसी के साथ 39 साल की कम उम्र में गुरुदत्त ने ज़िन्दगी से हार मान ली और अपने प्रशंसनीय काम से सदा के लिए लोगों के दिलों में जगह बनाकर चले गए।