पिछले लेख में आपने पढ़ा कि अपने नाना और गुरु विश्वामित्र के सुझाव पर परशुराम महादेव, श्रीहरि और ब्रह्मदेव की तपस्या करते हैं। त्रिदेवों से परशुराम को अनेक दिव्यास्त्र और वरदान प्राप्त होते हैं जिनमे उनका प्रसिद्ध परशु भी होता है। उन दिव्यास्त्रों और वरदानों के कारण परशुराम तीनों लोकों में अजेय हो जाते हैं। अब आगे…
त्रिदेवों से वरदान प्राप्त कर परशुराम अपने माता पिता के पास वापस आ गए। शीघ्र ही उनकी प्रसिद्धि पूरे विश्व में फ़ैल गयी और सभी ने एक स्वर में उन्हें भगवान विष्णु का अवतार होना स्वीकार किया। उसी समय एक अप्रिय घटना घट गयी। एक दिन उनकी माता रेणुका जल लेने गंगा तट पर गयी। वहाँ गंधर्वराज चित्ररथ कई अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे। जब रेणुका ने चित्ररथ के रूप को देखा तो एक क्षण के लिए उसपर आसक्त हो गयी। शीघ्र ही उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी है इसी कारण वो तुरंत जल लेकर वापस आश्रम आ गयी।
जब जमदग्नि ने रेणुका का क्लांत मुख देखा तो उन्हें संदेह हुआ। उन्होंने अपनी योगविद्या से ये जान लिया कि उनकी पत्नी चित्ररथ पर आसक्त हो गयी थी। ये जानकर उन्हें अत्यंत क्रोध हुआ। उन्होंने अपने बड़े पुत्र रुक्मवान को आज्ञा दी कि वो मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप अपनी माता रेणुका का वध कर दे। जब रुक्मवान ने ऐसी आज्ञा सुनी तो काँप उठा। उसने अपनी माता का वध करने में असमर्थता जताई। तब जमदग्नि ने वही आज्ञा अपने तीन अन्य पुत्रों को दी किन्तु वे सभी अपनी माता का वध करने का साहस न जुटा पाए। इस पर जमदग्नि ने अपने सभी पुत्रों को चेतना खो देने का श्राप दे दिया।
अंत में जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को उनकी माता के वध की आज्ञा दी। परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा पाकर अपनी माता का मस्तक अपने परशु से काट डाला। अपने पुत्र की ऐसी पितृभक्ति देख कर जमदग्नि अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे कहा कि – ‘हे पुत्र! तुम धन्य हो। अपने पिता की आज्ञा पूर्ति हेतु अपनी ही माता का वध किसी अन्य के लिए सहज नहीं था। यही कारण था कि तुम्हारे चार भाइयों ने मेरी आज्ञा नहीं मानी। मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुमने अकेले चारो भाइयों द्वारा नहीं किये गए कार्य को कर दिया अतः तुम मुझसे चार वरदान माँग लो।’ तब परशुराम ने उनसे चार वरदान माँगें:
- उनकी माँ रेणुका पुनर्जीवित हो जाये।
- उन्हें इस घटना की स्मृति ना रहे।
- मेरे चारों भाइयों की चेतना वापस आ जाये।
- मैं परमायु हो जाऊँ।
महर्षि जमदग्नि ने उन्हें ये चारों वरदान दिए और रेणुका को पुनः अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार परशुराम ने ना केवल अपने पिता की आज्ञा मानी पर अंततः अपनी माता को भी जीवनदान दिया। कुछ समय बाद उनका विवाह ‘धारिणी’ से हुआ। कहते हैं कि स्वयं माता लक्ष्मी ही धारिणी के रूप में अवतरित हुई थी। हम सभी श्रीराम को उनके एकपत्नीव्रत के लिए याद करते हैं किन्तु उनसे बहुत पहले परशुराम ने इसकी परंपरा रखी थी।
एक बार हैहयवंशी सहस्त्रार्जुन आखेट के बाद महर्षि जमदग्नि के आश्रम पहुँचा। ये वही सहस्त्रार्जुन था जिसने स्वयं रावण को भी युद्ध में परास्त किया था। जब वो अपनी सेना के साथ वहाँ पहुंचा तो जमदग्नि ने कामधेनु गाय के चमत्कार से सभी लोगों को भोजन करवाया। सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली ये चमत्कारी गाय ऋषि को देवराज इंद्र की सहायता से मिली थी। कामधेनु का चमत्कार देख कर कर्त्यवीर्यअर्जुन ने जमदग्नि से प्रार्थना की कि वे वह गाय उसे दे दें। जब जमदग्नि ने मना किया तो उसने अपनी सेना की सहायता से आश्रम में उत्पात मचा दिया और कामधेनु को जबरन अपने साथ ले गया।
उस समय परशुराम आश्रम में उपस्थित नहीं थे। जब वे वापस आये तो अपने पिता से आश्रम की ऐसी स्थिति का कारण पूछा। जब उन्हें पता चला कि सहस्त्रार्जुन ने उसके पिता का अपमान किया और कामधेनु को जबरन अपने साथ ले गया है तो वे महर्षि अगस्त्य द्वारा प्राप्त रथ पर बैठ कर उसी ओर गए जिधर राजा की सेना गयी थी। वे शीघ्र ही सहस्त्रार्जुन तक पहुँच गए और उसे युद्ध के लिए ललकारा।
सहस्त्रार्जुन निःसंदेह महान योद्धा थे किन्तु एक तो वे अपनी वृद्धावस्था में थे और परशुराम तरुण थे, और दूसरे परशुराम के पास त्रिदेवों से प्राप्त कई महान अस्त्र थे जिसकी काट सहस्त्रार्जुन के पास नहीं थी। दोनों में कई दिनों तक भयानक युद्ध चला और अंततः परशुराम ने महादेव द्वारा प्रदत्त महान परशु से सहस्त्रार्जुन की १००० भुजाएँ काट डाली और उनका वध कर दिया। उसके बाद वे कामधेनु को लेकर वापस आश्रम में वापस आ गए।
जब कर्त्यवीर्यअर्जुन के पुत्रों ने सुना कि परशुराम ने उनके पिता का वध कर दिया है तो वे सेना लेकर जमदग्नि के आश्रम पहुँचे। उस समय भी परशुराम वहाँ उपस्थित नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति में सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने क्रोध में आकर जमदग्नि की हत्या कर दी। अपने पति को मरा देख कर परशुराम की माँ रेणुका ने भी प्राण त्याग दिए। जब परशुराम वापस आश्रम आये तो अपने माता और पिता को मृत देखा। उन्हें पता चला कि ये अनर्थ सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने किया है। इस कृत्य से उन्हें इतना अधिक दुःख हुआ कि उन्होंने हैहयवंश के समूल नाश की प्रतिज्ञा कर ली।
वे क्रोध में भरकर अकेले ही सहस्त्रार्जुन की राजधानी महिष्मति पहुँचे और उनके सभी पुत्रों का सेना सहित वध कर दिया। सत्य कहा जाये तो उस समय क्षत्रियों का वो विनाश आवश्यक था क्यूंकि उनका अत्याचार हद से अधिक बढ़ गया था। किन्तु परशुराम का क्रोध सारी सीमाओं को पार कर गया था। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों और उनकी सेना का समूल नाश करने के बाद भी उन्हें शांति नहीं मिली। वे इतने अधिक क्रोध में थे कि उन्होंने पूरे में एक-एक हैहैयवंशियों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा।
कहा जाता है कि उन्होंने पूरे आर्यावर्त में घूम घूम कर कुल २१ अभियान किये और अपने इन अभियानों में हैहयवंश के ६४ कुलों का समूल नाश कर दिया। उस समय पूरे विश्व में हैहयवंशी ही क्षत्रियों का नेतृत्व करते थे। इसी कारण ये कहा जाता है कि परशुराम ने २१ बार पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश कर दिया। वो इतने क्रोध में थे कि उन्होंने सम्यक पञ्चक स्थान पर क्षत्रियों के रक्त से ५ सरोवर भर दिए। उसके बाद उन्होंने अपने पिता का श्राद्ध भी हैहयवंशी राजकुमारों के रक्त से ही किया।
किन्तु इसके बाद भी परशुराम का क्रोध समाप्त नहीं हुआ और उन्होंने बचे हुए क्षत्रियों को भी चुन-चुन कर मारना आरम्भ कर दिया। उनके इस घोर कृत्य से दुखी होकर अन्त में उनके दादा महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। वे अपने दादा की आज्ञा टाल नहीं सके और अंततः क्षत्रियों का विनाश रुका। फिर उन्होंने सम्यक पञ्चक स्थान ही अपने इस कृत्य का पश्चाताप किया जहाँ देवराज इंद्र ने उन्हें वरदान दिया कि इस स्थान पर जो कोई भी अपने प्राण त्यागेगा वो निश्चय ही स्वर्ग जाएगा। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए इसी स्थान का चुनाव किया।
किन्तु ऋषियों को इस बात की आशंका थी कि क्षत्रियों को पुनः बढ़ता देख कर परशुराम फिर से उनका विनाश आरभ कर सकते हैं। इस कारण परशुराम के दादा महर्षि ऋचीक के पूर्वज महर्षि कश्यप ने परशुराम से एक अश्वमेघ यज्ञ करने और उसके बाद उन्हें दान देने को कहा। महर्षि कश्यप की आज्ञा मान कर परशुराम ने यज्ञ करने के लिए बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी। उसके बाद यज्ञ करने के पश्चात महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा।
उन्होंने परशुराम से कहा कि ‘हे वत्स! ये पृथ्वी तुमने मुझे दान कर दी है अतः अब तुम यहाँ नहीं रह सकते। दिन में तो तुम पृथ्वी पर आ सकते हो किन्तु रात्रि में तुम्हे इस पृथ्वी को छोड़ना होगा। मैं तुम्हे महेंद्र पर्वत का स्थान देता हूँ जहाँ तुम निवास कर सकते हो। साथ ही तुम पृथ्वी, पाताल और आकाश सब जगह विचरण कर सके इसी लिए मैं तुम्हे स्वछन्द विचरण करने की शक्ति भी देता हूँ।’ उनकी आज्ञा मान कर परशुराम महेंद्र पर्वत पर जा कर बस गए। महर्षि कश्यप से प्राप्त शक्ति के कारण वे सब जगह आ जा सकते थे किन्तु रात्रि में वे पृथ्वी पर नहीं रुक सकते थे।