कन्नौज की समाजवादी प्रयोगशाला में इस बार होगा लिटमस टेस्ट

-विमल पाठक

लखनऊ : ऐतिहासिक नगरी कन्नौज की धरती यूं तो अपने इतिहास और सुगंध के लिए पूरी दुनिया मे जानी रही है,लेकिन इससे इतर देश के सियासी नक्शे में कन्नौज की धरती समाजवादियों के लिए हमेशा से बहुत उर्वरा रही हैएऔर अपने संसदीय इतिहास में समाजवादी सुगंध बिखेरने के लिए मशहूर रही है,लेकिन समाजवादी नेताओं ने इसे अपनी प्रयोगशाला समझ कर बीते पांच दशकों में इतने प्रयोग कर डाले कि इस बार का आम चुनाव उनके लिए आसान नही दिख रहा है बल्कि यूं कहें कि कन्नौज में इस बार नव समाजवाद के लिए लिटमस टेस्ट की बारी है। बीते समय की बात करे तो आजादी के बाद जब पूरे देश की सियासत मे कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था तब उस दौर में समाजवादी पुरोधा डॉ राम मनोहर लोहिया ने कन्नौज की भूमि पर समाजवाद का बीजारोपण किया 1963 में जब कन्नौज फर्रुखाबाद संसदीय क्षेत्र का हिस्सा था डॉ लोहिया ने उपचुनाव में यहां से जीत कर संसद में कदम रखा ,डॉ लोहिया के चुनाव इंचार्ज इटावा की धरती के प्रखर समाजवादी नेता कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने लोहिया के चुनाव को धार दी और कन्नौज डॉ लोहिया की राजनैतिक कर्मभूमि बन गईए इसके बाद 1967 के आम चुनाव में डॉ लोहिया ने कन्नौज से ही दुबारा चुनाव जीतकर उस दौर में कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया था। और उसी समय से इस क्षेत्र में समाजवाद की जो फसल बोई उसे उसके बाद आज तक समाजवाद के नाम पर काटा जाता रहा हैए हालांकि 1971में यस यन मिश्रा और 1984 में शीला दीक्षित जरूर यहाँ से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर कामयाब हो गयी लेकिन इसके बाद से ये भूमि कांग्रेस के लिए सियासी बंजर ही साबित हुई है,जहाँ अब कांग्रेस अपना प्रत्याशी भी मैदान में उतारने की जरूरत नही समझती है।

बात समाजवाद की करे तो 1977 में जनता पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर राम प्रकाश त्रिपाठी के बाद 1980 में छोटे सिंह यादव यहां से सांसद बने यही वो समय था जब समाजवादी राजनीत में मुलायम सिंह यादव अपना प्रभुत्व बनाने का प्रयास कर रहे थे लिहाजा 1989 में मुलायम के यूपी का मुख्यमंत्री बनने के बाद कन्नौज से लेकर समाजवाद तक पूरी तौर पर मुलायम मय हो गया और 1989 में दोबारा छोटे सिंह यादव सांसद बने तो 1991 में तीसरी बार1996 में पार्टी के तौर पर बीजेपी को पहली बार कामयाबी मिली जब चंद्र भूषण सिंह यहां से सांसद बने लेकिन महज 2 साल तक ही क्योंकि 1998 में फिर चुनाव हुए और तब तक प्रदेश में मुलायम सिंह यादव अपनी समाजवादी पार्टी का संगठन मजबूती से खड़ा कर चुके थे और उससे ज्यादा समझ चुके थे कन्नौज की नब्ज लिहाजा 1998 में सपा से प्रदीप यादव को चुनाव जिताने के बाद 1999 में खुद मुलायम सिंह कन्नौज से उम्मीदवार बने और जीते भी लेकिन महज साल भर के अंदर ही नया प्रयोग करते हुए ये सीट उत्तराधिकार के रूप में अपने बेटे को सौंप कर अखिलेश के राजनैतिक जीवन की शुरुआत कराई उस समय प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका में रहे लोकतांत्रिक कांग्रेस के मुखिया नरेश अग्रवाल के अहम किरदार के चलते अखिलेश यादव ने साल 2000 के उपचुनाव में यहां से चुनाव जीता।

सांसद बनने के बाद 2012 में यूपी का मुख्यमंत्री बनने तक 3 बार संसद में कन्नौज का प्रतिनिधित्व किया और मुख्यमंत्री बनने के बाद हुए उपचुनाव में फिर अनूठा प्रयोग करते हुए अपनी पत्नी डिम्पल को यहां से निर्विरोध संसद भेजकर ये साबित करने का प्रयास किया कि उनके इस किले में कोई सेंध नही लगा सकता।लेकिन 2014 में हुए आमचुनाव में जब बीजेपी के प्रत्याशी ने समाजवादी प्रत्याशी को कड़ी टक्कर दी और डिम्पल यादव की जीत का आंकड़ा महज बीस हज़ार वोटों के अंदर ही सिमट गया ।इस बार 2019 के चुनावों तक गंगा किनारे बसे कन्नौज की सियासत में बहुत पानी बह चुका है, 2014 के बाद कन्नौज की राजनीति में बड़े बदलाव आए है ,चाहे 2017 के विधानसभा चुनाव रहे हो या उसके बाद स्थानीय निकायों के चुनाव समाजवादियों के लिए अनुकूल नही रहे संसदीय क्षेत्र की 5 विधानसभा सीटों में बमुश्किल 1 सीट और कन्नौज की 3 नगर पालिका में कहीं भी समाजवादी पार्टी को कामयाबी नही मिल पाई शायद इसी वजह से समाजवादी पार्टी का मुखिया बनने के बाद अखिलेश ने खुद एलान भी किया था कि डिम्पल अब कन्नौज से नही लड़ेंगी।

हालांकि इस बार फिर अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिम्पल यादव को मैदान में उतार कर एक बड़ा दांव या यूं कहें प्रयोग किया जरूर है,लेकिन रास्ते आसान कतई नही है इस बार के चुनावों में समाजवादी भूमि पर समाजवाद के लिए ही तमाम सवाल खड़े है,सबसे पहला सवाल यही की यहां से संसद पहुंचने के बाद सांसद डिम्पल कन्नौज का रास्ता क्यों भूल जाती है दूसरा समाजवादी सत्ता के दौरान सिर्फ एक जाति विशेष का प्रभुत्व क्षेत्र के लोंगो के लिये चिंता सबब है, हालांकि अखिलेश सरकार की सत्ता के दौरान कन्नौज को तमाम विकास की योजनाओं से जुड़ने का मौका जरूर मिला लेकिन एक आम कन्नौजी कभी ये एहसास नही कर पाया कि उसका नुमाइंदा प्रदेश सरकार की बागडोर संभाल रहा हैए वहीं समाजवादी सांसद का सजातीय प्रतिनिधि जिस तरह समाजवादी सत्ता के दौरान स्थानीय प्रशासन को बौना बनाकर स्थानीय सरकार चलाता रहा है उसको लेकर जनसामान्य में नाराज़गी दिखाई पड़ती है।

एक बड़ा सवाल ये भी है कि अपनी दो दशक के राजनैतिक जीवन मे भी अखिलेश अपनी राजनैतिक कर्मभूमि में जनसामान्य से वो नजदीकी नही बना पाए जो कि उनसे अपेक्षित रही तकरीबन 35 फीसदी मुस्लिम 16 फीसदी यादव और 15 फीसदी ब्राम्हण तथा 10 फीसदी अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाताओं के आँकड़े वाले इस क्षेत्र में महज जाति विशेष के के सहारे अखिलेश अब तक अपनी पताका फहराते आये है।हालांकि इस बार महागठबंधन के जरिये बसपा का साथ सपा प्रत्याशी के लिए वोटों की गणित में सुधार ला सकता है बाबजूद इसके सवालों के घेरे में इस बार सपा प्रत्याशी ही है जिसका जिक्र खुद अखिलेश अपनी जनसभाओं में कर चुके है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार समाजवाद की इस उर्वरा भूमि पर नव समाजवाद अपनी साख किस हद तक कायम रख पाता है।

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com