‘मेरा गांव कार्बेट पार्क से सटा है और यहां हाथी और गुलदार के आतंक ने नींद उड़ाई हुई है। ये जंगली जानवर कब खेत-खलिहान लेकर घरों की देहरी तक धमक जाएं कहा नहीं जा सकता। फसलों को तो हाथी बुरी तरह चौपट कर रहे हैं। मेरी खुद की 33 बीघा कृषि भूमि है, मगर हाथी हर बार ही फसल को रौंद डालते हैं। लिहाजा, मैंने खेती करना ही छोड़ दिया है। न सिर्फ मैं, बल्कि अन्य किसान भी इसी दिक्कत के चलते खेती से विमुख हो रहे हैं। सभी पसोपेश में हैं कि क्या करें और क्या नहीं।’ विश्व प्रसिद्ध कार्बेट नेशनल पार्क से लगे कोटद्वार क्षेत्र के ग्राम रामपुर (कुंभीचौड़) निवासी किसान कमल सिंह की यह व्यथा 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड की मौजूदा तस्वीर बताने को काफी है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि वन एवं वन्यजीवों का संरक्षण कर उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण में भागीदारी निभा रहा है, मगर इससे जुड़ी आमजन की दुश्वारियां कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाए। हालांकि, वातानुकूलित कक्षों में बैठकर इसे लेकर मंथन जरूर होता है, मगर यह वोट खींचने का माध्यम नहीं बन सका। इसकी सबसे बड़ी दिक्कत है आमजन की कम सहभागिता। उस पर रही-सही कसर पूरी कर दी सरकार की नीतियों ने। जंगली जानवरों से आज दुश्मनी जैसे हालात पैदा हो गए हैं। हालांकि, वन्यजीवों के हमलों में प्रभावितों को दी जाने वाली मुआवजा राशि जरूर बढ़ा दी गई, मगर इसके लिए भी एड़ियां रगड़नी पड़ती हैं और तब भी यह वक्त पर नहीं मिल पाती, लेकिन अफसोस, चुनावी चौपालों में इसकी कोई चर्चा नहीं है।
देश-दुनिया में विशिष्ट स्थान
प्राचीन काल से देवभूमि उत्तराखंड में वनों का संरक्षण यहां की परंपरा में शामिल है, जो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अब तक चली आ रही है। खुद दिक्कतें सहने के बावजूद जंगलों को बचाकर प्रदेशवासी देश के पर्यावरण में अहम भूमिका निभा रहे हैं। प्रदेश से सालाना मिल रही तीन लाख करोड़ की पर्यावरणीय सेवाओं में 98 हजार करोड़ का योगदान अकेले वनों का है। यही नहीं, यहां के जंगलों में न केवल राष्ट्रीय पशु बाघ का कुनबा खूब फल-फूल रहा है, बल्कि राष्ट्रीय विरासत पशु हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों का भी। यह सभी उत्तराखंड को देश-दुनिया में विशिष्ट स्थान प्रदान करते हैं।
वन और जन में बढ़ती दूरी
तस्वीर का एक स्याह पहलू भी है। वन अधिनियम 1980 के अस्तित्व में आने के बाद वन कानूनों की जटिलताओं ने जन और वन के रिश्तों में खटास पैदा की है। 71 फीसद वन भूभाग होने के बावजूद वनों पर हक-हकूक नहीं मिल पा रहा, जबकि वन अधिनियम से पहले ऐसी दिक्कत नहीं थी। विकास कार्यों पर भी वन कानूनों का पहरा है। स्रोत से पानी की लाइन गांव तक ले जाने के लिए वन भूमि हस्तांतरण को खासे पापड़ बेलने पर भी मंजूरी नहीं मिलती। नतीजतन, पेयजल, सड़क आदि से जुड़ी तमाम योजनाएं धरातल पर आकार नहीं ले पा रहीं। भागीरथी इको सेंसेटिव जोन की बंदिशों से 10 जलविद्युत योजनाएं लटकी हुई हैं। इस सबके चलते वन एवं जन के रिश्तों में दूरी बढ़ी है।
घर आंगन महफूज न खेत-खलिहान
विषम भूगोल वाले इस राज्य में पहाड़ से मैदान तक शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां वन्यजीवों का खौफ न तारी हो। खासकर पर्वतीय क्षेत्र में वन्यजीवों के आंतक के चलते दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित हुई है। गुलदारों के खौफ से तो समूचा राज्य सहमा हुआ है। वह पालतू जानवरों की तरह घूम रहे हैं। वन्यजीवों के हमलों की 80 फीसद से ज्यादा घटनाएं भी गुलदारों की हैं। यानी घर आंगन महफूज हैं न खेत-खलिहान ही। मैदानी इलाकों में गुलदार व हाथियों ने नींद उड़ाई हुई है। ङ्क्षहसक वन्यजीवों ने जान सांसत में डाली हुई है तो हाथी, बंदर, लंगूर, सूअर जैसे जानवर फसलों को चौपट कर रहे हैं। नतीजतन, मानव और वन्यजीवों के बीच जंग छिड़ी हुई है, जिसमें दोनों को जान देकर कीमत चुकानी पड़ रही है।
वन्यजीवों के बाधित गलियारे
तस्वीर का एक और पहलू भी है और वह है जंगली जानवरों के एक से दूसरे जंगल में आने-जाने को बाधित गलियारे। ये कहीं अतिक्रमण से अटे हैं तो कहीं सड़क व रेल मार्ग इनकी राह रोक रहे हैं। राज्य में 11 वन्यजीव गलियारे चिह्नित हैं, मगर इन्हें खुलवाने को ठोस पहल होती नहीं दीख रही। यह भी एक कारण है कि जंगली जानवर जंगल की देहरी लांघ आबादी की ओर रुख कर रहे हैं।