होली एक लोक-पर्व है। हालांकि होलिका-दहन की पौराणिक कथा है, किंतु होली पर रंग की परंपरा लोक जीवन का आविष्कार है। होलिका-दहन की कथा का संबंध भी बुराई पर अच्छाई की जीत के सिद्धांत पर आधारित हैं। इसी कथा में भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार का भी उद्धरण मिलता है। फागुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन की परंपरा है और चैत्र की प्रतिपदा पर रंग खेलकर फागुन को विदा किया जाता है।
भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि ‘जब-जब इस भूमि पर अधर्म-पाप बढ़ जाते हैं, दुष्टजन और राक्षस चारों ओर इतना आतंक मचा देते हैं कि प्रजा का जीना दुखभरा हो जाता है, ऐसे त्रस्त समय में इन दुष्टों के सर्वनाश के लिए और सज्जनों की रक्षा करने के लिए मैं हर युग में इस भूतल पर अवतरित होता हूं।”
होली की कथा
होली के त्योहार के संबंध में एक ऐसी ही कथा है कि बहुत पहले हिरष्यकशिपु नाम का एक अति भयंकर, खूंखार असुर हुआ था। उसने हिमालय पर अनेक वर्षों तक ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त करने के लिए घनघोर तपस्या की कि मैं अमर रहूं। ब्रह्माजी ने संतुष्ट होकर उसे ऐसा वरदान देदिया कि ‘तुम किसी अस्त्र-शस्त्र से, किसी मनुष्य या पशु से, दिन में-रात में या जमीन या आकाश में कहीं” भी मारे नहीं जाओगे।
जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया था, तभी देवताओं ने राक्षसों की राजधानी पर आक्रमण कर दिया और इंद्र उस राक्षस की पत्नी कयाधू को बंदी बनाकर स्वर्ग ले गए तभी रास्ते में नारदजी ने इंद्र को रोककर कहा कि ‘इस पतिव्रता को मत ले जाओ, क्योंकि इसके गर्भ में जो पुत्र है वह भगवान का परम भक्त है।”
यह सुनकर इंद्र ने छोड़ दिया तब देवर्षि नारद उसे अपने आश्रम में ले गए और पुत्री की तरह उसका पोषण करते रहे। गर्भस्थ बालक को नित्य भगवद् भक्ति का उपदेश याद रहे।
इस बीच अभय वरदान प्राप्त करने के बाद हिरण्यकशिपु ने हिमालय से आकर देवताओं पर आक्रमण कर अपना दैत्यलोक पुन: प्राप्त कर लिया।
हिरण्यकशिपु भगवान का महान शत्रु था और धर्म विरोधी हो चुका था। माता पांच वर्ष के प्रल्हाद को एक दिन अपने पिता के पास भेजा। बालक ने उन्हें प्रणाम किया, तब हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी गोद में बिठाकर पूछा कि ‘पुत्र! जो तुमने मेरे गुरु पुत्र से सीखा वह बताओ।” प्रल्हाद ने कहा कि ‘पिताजी! संसार में सारे प्राणी किसी न किसी कष्ट से दुखी रहते हैं अत: शाश्वत सुख पाने के लिए मनुष्य को सदा हरि का आश्रय लेना चाहिए।”
भगवान का नाम सुनते ही हिरण्यकशिपु को क्रोध आ गया और उसने प्रल्हाद को गोद से उतार कर धमकाया कि भगवान का नाम न लेकर मेरा नाम ले। किंतु बार-बार समझाने पर भी प्रल्हाद भगवान का ही नाम लेता रहा। तब दैत्यराज के लिए यह असह्य हो गया। उसने अपने दैत्यों को यह आज्ञा दी कि ‘इसे मार डालो।” दैत्यों ने प्रल्हाद को पहाड़ की चोटी से नीचे फेंक दिया। भगवान की कृपा से नीचे फूलों का मुलायम बिछौना बिछ गया। प्रल्हाद बच गया। तब उसे जहर दिया गया। वह जहर भी भगवद्कृपा से अमृत हो गया। इस प्रकार प्रल्हाद पर किसी भी चीज का कोई असर नहीं हुआ।
जब सारे उपाय बेकार हो गए तब हिरण्यकशिपु ने लकड़ियों का एक बड़ा ढेर बनाया और अपनी बहन होलिका की गोद में प्रल्हाद को रखकर होलिका को लकड़ी के ढेर पर बैठा दिया और उस ढेर में राक्षस ने आग लगा दी।
होलिका को वरदान में ऐसी चादर मिली थी जिसे ओढ़ लेने पर वह जल नहीं सकती थी। प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि वह चादर उड़कर प्रल्हाद के शरीर पर गिरी। इससे होलिका राक्षसी तो जल गई और भक्त प्रल्हाद सकुशल आग से बाहर आ गया।
इसी कथा के आधार पर भारत में कई प्रांतों में संध्या हो जाने के बाद जगह-जगह होली जलाई जाती है, जिसका अर्थ यह है कि बुराई पर सच्चाई की विजय हुई।
इसके आगे की कथा है कि ऐसा घनघोर अपमान होने पर क्रोध में हिरण्यकशिपु न कहा कि ‘अब मैं स्वयं तेरा वध करूंगा, तेरा भगवान यहां कैसे बचाएगा?” प्रल्हाद ने कहा कि ‘पिताजी! भगवान सभी जगह हैं, इस जगह, इस खंभे में भी हैं।” राक्षस ने कहा कि ‘मैं देखता हूं कि तेरा भगवान इस खंभे में कहां हैं?” ऐसा कहकर राक्षस ने ज्योंही खंभे पर जोर से घूंसा मारा तभी खंभा टूटकर गिर गया और उसमें एक शेर के मुंह और मानवीय शरीर धारण किए विष्णु दहाड़ते हुए प्रकट हुए, उनको इस रूप में नरसिंह कहा गया जाता है। नरसिंह रूप भगवान ने हिरण्यकशिपु को घसीट कर राजसभा की देहरी पर लाए। अपनी गोद में बैठाकर दबोच दिया और कहा कि ‘मैं अपने तीखे नाखूनों से अब तेरा कलेजा फाड़ दूंगा।” राक्षस ने कहा कि मैं अमर हूं, न मैं मनुष्य से न पशु से, न दिन में न रात में, न भीतर न बाहर, न जमीन पर न आकाश में कहीं भी मारा नहीं जा सकता हूं।”
तब भगवान ने कहा – मैं न मनुष्य हूं न पशु, अभी न दिन है न रात क्योंकि अभी संध्या समय है और हे राक्षस! न तू भीतर है न बाहर देहरी पर है और न तू जमीन पर है और न ही आकाश में, क्योंकि तू अभी मेरी गोद में है। ये मेरे नुकीले नाखून न तो अस्त्र है और न ही शस्त्र।” ऐसा कहकर भगवान नरसिंह ने अपने तीखे नाखूनों से एक ही झटके में हिरण्यकशिपु की छाती को फाड़कर लहूलुहान कर दिया तभी राक्षण के प्राण निकल गए।
इस तरह भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर राक्षस हिरण्यकशिपु का नाश कर लोगों को सुख और शांति प्रदान की।