आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा था कि महिलाओं की सुरक्षा ऐसी होनी चाहिए कि अकेली महिला खुद को सुनसान सड़कों पर बिल्कुल सुरक्षित समङो। आखिर क्यों घर के अंदर और बाहर महिलाएं खौफ के साए में जीने को मजबूर हैं? कब एक मां अपनी बेटी को दुपट्टा खोल कर ओढ़ने और नजरें नीची कर चलने की हिदायत देना बंद करेगी? कब कोई बाप अपने बेटे को किसी लड़की को गलत नजर उठाकर नहीं देखने की नसीहत देगा? कब कैंडल जलाने, नारे लगाने का दौर थमेगा? कब लोगों की विकृत मानसिकता में बदलाव आएगा? कब सरकारें आईने दिखाते आंकड़ों को हटाने की बजाए इनसे सबक लेकर समाज सुधार की पहल करेंगी?
हर साल की तरह एक बार फिर ये सारे सवाल आज जिंदा हो गए हैं, क्योंकि एक बार फिर देश-दुनिया में महिलाओं के सम्मान और अधिकार के नाम पर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। महिला सशक्तीकरण को लेकर बड़े-बड़े कसीदे पढ़े जा रहे हैं। आधी आबादी की पूरी आजादी के जोर-शोर के साथ ढेरों दावे किए जा रहे हैं। शिक्षा से लेकर सियासत तक में उनका स्थान सुनिश्चित करने के वादे किए जा रहे हैं। मगर महिला सशक्तीकरण के दावों से टकराती मौजूदा वक्त की सच्चाई कुछ और ही हकीकत बयां कर रही है। वह कह रही है कि छह दशक से ज्यादा बीत गए हमें आजादी मिले हुए।
आजादी परंपराओं को भुला देने की, आजादी सच्चाई को अस्वीकारने की, आजादी किसी लाड़ली के अस्मत को लूट लेने की, आजादी किसी कच्ची कली के खिलने से पहले ही मसल देने की, आजादी आधी आबादी के अरमानों को रौंद देने की, और आजादी औरत को एक खिलौना बनाने की, फिर ये एक दिन के सम्मान का ढोंग क्यों? यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि महिलाओं की भागीदारी समाज में हर स्तर पर बढ़ी है, फिर भी बहुसंख्यक महिलाओं के योगदान, उनकी आर्थिक उपादेयता का न तो सही तरीके से आकलन होता है और न ही उन्हें वाजिब हक मिलता है।
कोई भी समाज महिला कामगारों द्वारा राष्ट्रीय आय में किए गए योगदान को दरकिनार नहीं कर सकता। बावजूद इसके उनको पर्याप्त महत्व नहीं मिलता। हालांकि भारत के श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी दुनिया के मुकाबले काफी कम है। फिर भी घरेलू काम में महिलाओं की भागीदारी अधिक है। यह सही है कि महिलाओं की शिक्षा दर में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि महिलाओं की पूरी आजादी की मांग तो लंबे अरसे से चली आ रही है, लेकिन वह दिवास्वप्न जैसा ही प्रतीत हो रहा है। पर ज्यों-ज्यों वक्त बदल रहा है, त्यों-त्यों इस मांग का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। पहले महिलाएं याचक की मुद्रा में थीं, लेकिन जिस रफ्तार से उनके व्यक्तित्व का विकास हो रहा है, उससे लग रहा है कि पूरी आजादी के लिए वो ‘याचना नहीं अब रण होगा’ की तर्ज पर काम करेंगी।
उल्लेखनीय है कि ग्रामीण इलाकों में 15 से 19 आयु वर्ग की लड़कियों में शिक्षा के प्रसार के साथ श्रम क्षेत्र में उनकी भागीदारी घटी है। यह अच्छी बात है, लेकिन 20 से 24 वर्ष की आयु सीमा की लड़कियों के आंकड़े बताते हैं कि उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का लाभ उन्हें रोजगार में बहुत नहीं मिला है। दरअसल महिलाओं की क्षमता को लेकर समाज में व्याप्त धारणा का भी अहम योगदान होता है। देश की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में आधुनिकता के बावजूद कई स्तरों पर महिलाओं को उनका वाजिब हक नहीं मिल पाता। जब तक इस भेदभाव को दूर नहीं किया जाता, तब तक महिला-पुरुष बराबरी सिर्फ किताबी बातें ही रह जाएंगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 21वीं सदी के 19वें वर्ष में भी महिलाओं के प्रति दूषित दृष्टिकोण रखा जा रहा है। जानकारों का कहना है कि पत्रकारिता में सेक्सिस्ट लेखों और तस्वीरों की मिसालें अब भी आम है।
फर्क नजरिये का है, रेखा के इस ओर या उस ओर। महिला की तारीफ एक जगह है और उसकी काबिलियत को कम आंकना या सुंदरता के नाम पर दरकिनार कर देना दूसरी। यह भी साफ है कि सफल कामकाजी पुरुषों के रूप-रंग पर ऐसी टिप्पणियां नहीं की जाती। शायद ही किसी लेख में उनके पहनावे को उनके करियर से जोड़ा जाता हो। लब्बोलुआब ये है कि समाज की सोच को बदलने की जरूरत है।
जेनेवा स्थित ‘वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम’ के वार्षिक जेंडर गैप इंडेक्स के अनुसार भारत 142 देशों की सूची में 13 स्थान गिरकर 114वें नंबर पर पहुंच गया। भारत में महिला सशक्तीकरण और आरक्षण को लेकर भले लंबे-चौड़े दावे किए जाते रहे हों, यहां महिला उद्यमियों की राह आसान नहीं है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों की तरह उनको उद्योग जगत में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कई बार महिलाओं की काबिलीयत पर भी सवाल उठाए जाते हैं। यही वजह है कि महिला उद्यमिता सूचकांक की ताजा सूची में शामिल 77 देशों में से भारत 70वें स्थान पर है। पश्चिम बंगाल समेत देश के कई राज्यों में तो हालात और बदतर हैं। महिला मुख्यमंत्री के सत्ता में होने के बावजूद इस मामले में पश्चिम बंगाल की हालत बाकी राज्यों से बहुत खराब है। बताया जाता है कि उद्योग के क्षेत्र में महिलाओं के पिछड़ने की प्रमुख वजहों में मजदूरों की उपलब्धता और कारोबार के लिए पूंजी जुटाने में होने वाली दिक्कतें शामिल हैं।
वाशिंगटन स्थित ग्लोबल इंटरप्रेन्योरशिप एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट की ओर से वर्ष 2015 में जारी ऐसे सूचकांक में 30 देश शामिल थे और उनमें भारत 26वें स्थान पर था। इससे साफ है कि देश में महिला उद्यमियों के स्थिति सुधरने की बजाय और बदतर हो रही है। हालांकि संस्था का कहना है कि पिछले साल के मुकाबले भारत की रैंकिंग में कुछ सुधार हुआ है। यह सही है कि भारत में अब उच्च तकनीकी शिक्षा और प्रबंधन की डिग्री के साथ हर साल पहले के मुकाबले ज्यादा महिलाएं कारोबार के क्षेत्र में कदम रख रही हैं। लेकिन यह भी सही है कि समानता के तमाम दावों के बावजूद उनको इस क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। महिला उद्यमियों की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए पहले समाज का नजरिया बदलना जरूरी है।