जीते जी भी सरहदों की हिफाजत कर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया और मरने के बाद भी सीमाओं की सुरक्षा उसी मुस्तैदी से निभा रहे हैं. जी हां महावीर चक्र विजेता और 1962 के युद्ध में चीन की विशाल सेना से अकेले लोहा लेने वाले जांबाज योद्धा जसवंत सिंह रावत पर बनी फिल्म ’72 आवर्स: मारटायर हू नेवर डायड’ 18 जनवरी को देश भर में प्रदर्शित की जाएगी. भारतीय सेना के इस महावीर ने 72 घंटों तक ना सिर्फ चीन की सेना को रोक कर रखा बल्कि दुश्मन के 300 से अधिक सैनिकों को अकेले मार गिराया था. अब इस महावीर की कहानी को रुपहले पर्दे पर दिखाया जाऐगा.
फिल्म क अधिकतर शूटिंग उत्तराखंड में हुई है. फ़िल्म का टीजर सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय हो रहा है. यह फिल्म 1962 युद्ध के अमर सपूत जसवंत सिंह रावत की कहानी जिसकी जाबांजी को दुश्मन देश ने भी सम्मान दिया. इस फिल्म के जरिए 1962 में भारत चीन युद्ध की गौरवगाथा अब दुनिया फ़िल्म के माध्यम से देखेगी. निर्देशक और लेखक अविनाश ध्यानी ने इस बायोपिक को बनाया है.
उत्तराखंड में हुई है फिल्म की शूटिंग
खास बात यह है कि इस फिल्म के निर्देशक अविनाश ध्यानी ने ही जसवन्त सिंह रावत का रोल भी निभाया है. वहीं इस फिल्म की शूटिंग चकराता, गंगोत्री, हर्सिल और हरियाणा के रेवाड़ी में हुई है. अविनाश बताते हैं कि जसवन्त रावत पर फिल्म एक ऐसे योद्धा की कहानी है जिन्होंने चीन की सेना को अकेले 72 घंटों तक रोक के रखा. अविनाश ध्यानी ने ही इस फिल्म की कहानी लिखी है. फिल्म जेएसआर प्रोडक्शन बैनर तले करीब 12 करोड़ लागत से बनी है.
बचपन से सेना में भर्ती होने का था जुनून
पौड़ी गढवाल के बाडियू गांव में 15 जुलाई 1941 को गुमान सिंह रावत और लाला देवी के घर में जन्मे रावत आज भी सैनिकों और देशवासियों के दिलों में जिंदा हैं. सात भाई बहनों में जसवन्त सिंह रावत सबसे बडे भाई थे. 16 अगस्त 1960 में जसवन्त सिंह सेना में भर्ती हुए. जसवन्त सिंह के छोटे भाई विजय सिंह रावत नम आंखों से बताते है कि भर्ती होने के बाद वे बड़ी मुश्किल से केवल एक बार छुट्टी लेकर घर आए और फिर हमेशा के लिए देश की शरहदों की हिफाजत के लिए शहीद हो गये फिर कभी लौट कर नहीं आए. जसवंत सिंह के भाई आज भी देहरादून में रहते हैं. जसवंत सिंह के छोटे भाई विजय सिंह कहते हैं कि जिस योद्धा को परमवीर चक्र दिया जाना चाहिए था वो सम्मान जसवंत सिंह को नहीं मिला.
72 घंटों तक रोका चीन की सेना को
भारत चीन युद्ध के दौरान जसवन्त सिंह की 4वीं गढ़वाल रेजीमेंट में तवांग जिले के नूरांग पोस्ट पर तैनात थे. चीन से हर मोर्चे पर भारत युद्ध में कमजोर पड़ रहा था. नूरांग पोस्ट पर तैनात जसवन्त सिंह की बटालिन को पीछे हटने का आदेश मिला लेकिन जसवन्त सिंह अपने दो साथियों गोपाल सिंह गुसाई और त्रिलोक सिंह नेगी के साथ उसी पोस्ट पर रुक गये. तीनों ने चीनी सैनिकों के एक बंकर पर हमला कर उनकी मशीन गन छीन ली. जसवन्त सिंह ने जब देखा कि चीन की पूरी डिवीजन ने हमला कर दिया है तो उन्होंने अपने दोनों साथियों को वहां से चले जाने को कहा और अकेले ही 72 घंटो तक अलग अलग जगह से दुश्मन पर गोलियां दागते रहे. इस लडाई में जसवन्त सिंह का साथ सैला और नूरा नाम की दो स्थानीय युवतियां दे रही थीं.
मंदिर और जसवंतगढ़ बनाया
जिस स्थान पर जसवन्त सिंह शहीद हुए थे वहां एक भव्य मंदिर स्थित है और उस पूरे इलाके को जसवंतगढ़ के नाम से जाना जाता है. सेना की एक टुकडी वहां 12 महीने तैनात रहती है जो हर पहर उनके खाने, कपने और सोने का प्रबंध करती है. हर साल 17 नवम्बर को वहा पर कार्यक्रम किया जाता है. लोगों का मानना है कि आज भी उनकी आत्मा देश की सीमाओं की रक्षा कर रही है.