शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार दोनों इस वक्त एनडीए से असहज नज़र आ रहे हैं. लेकिन जिस तरह से बीजपी का प्रभाव इस समय बढ़ उससे दोनों पार्टियां अपने आपको असुरक्षित मान रही हैं. खास बात ये है कि इनमें से एक बीजेपी के साथ सत्ता में भागीदारी निभा रही है और दूसरी खुद सरकार चला रही है बीजेपी के सहयोग से. लेकिन दोनों इस बात को लेकर कश-म-कश में हैं कि अगले चुनाव तक क्या स्थिति होगी. क्या वो बीजेपी के साथ रह पाएंगे या नहीं. शिवसेना ने तो बीजेपी के खिलाफ जैसे युद्ध ही छेड़ दिया है और जदयू भी दुबारा बीजेपी से जुड़ने के बाद बहुत ज़्यादा सहज नहीं महसूस कर रही है.
लेकिन अब स्थितियां काफी बदल चुकी हैं. शिवसेना, जो कि बाला साहेब ठाकरे के समय में महाराष्ट्र में कभी बड़े भाई की भूमिका अदा करती थी, वही अब बीजेपी के जूनियर यानी कि सहयोगी के रूप में काम कर रही है. 2014 में जब बीजेपी ने शिवसेना से गठबंधन तोड़ लिया तो शिवसेना को मजबूरन अपने अकेले के दम पर विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ा.
वहीं दूसरी तरफ, 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने बीजेपी को हराने के लिए लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया था. लेकिन लगातार मतभेदों के बावजूद शिवसेना और जेडीयू दोनों पार्टियों के पास अब एक ही रास्ता है कि वो या तो बीजेपी के शागिर्द की तरह काम करें और या तो बीजेपी का मुकाबला करें.
लेकिन जिस तरह से पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी और कांग्रेस दोनों आम आदमी पार्टी को अपना दुश्मन मान रहे थे उसी तरह से यहां महाराष्ट्र में भी एनसीपी, कांग्रेस, एमएनएस व शिवसेना बीजेपी से खतरा महसूस कर रही है इसलिए ये पार्टियां एक साथ हाथ मिला सकती हैं. कांग्रेस और एनसीपी दोनों तुलनात्मक रूप से शिवसेना के साथ सहज हैं क्योंकि शिवसेना का हिंदुत्व बीजेपी के एजेंडे को रोकने के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है. इसके साथ ही एमएनएस चीफ राज ठाकरे पहले ही ‘मोदी मुक्त भारत’ का नारा दे चुके हैं.
तो आखिर एंटी-बीजेपी फ्रंट से महाराष्ट्र में किसको सबसे ज़्यादा फायदा होगा. बीजेपी भी महाराष्ट्र से आने वाले इस खतरे को भांप रही है. सूत्रों के अनुसार शिवसेना के की प्राथमिकता होगी कि वो बीजेपी को किसी भी तरीके से रोक सके. पालघर लोकसभा उपचुनाव के दौरान उद्धव ठाकरे का ये कहना कि सभी पार्टियों को एक साथ हो जाना चाहिए, दिखाता है कि शिवसेना बीजेपी को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है.
लेकिन नीतीश के पास विकल्प कम हैं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस से संबंध खत्म कर लिया है और जिस तरह से लालू से अपने रास्ते अलग किए हैं उसके बाद उनसे जुड़ना थोड़ा मुश्किल है. नीतीश के साथ दूसरी समस्या है कि वो कभी भी अपने अकेले के दम पर सरकार नहीं बना सके. बीजेपी भी इस बात को महसूस कर रही है कि अगर उसे बिहार में अपनी पहुंच बढ़ानी है तो उसे जेडीयू को कमज़ोर करना होगा या अपने बाद दूसरे स्थान पर लाना होगा.