शशवत तिवारी
साहित्य, अध्यात्म और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जो सीमाओं को लांघ कर आदर्श बन जाते हैं। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य एक ऐसे ही विलक्षण व्यक्तित्व हैं। सागर स्थित डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें मानद डी.लिट उपाधि प्रदान करने का निर्णय न केवल अकादमिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक चेतना की पुनर्पुष्टि भी है।
जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा इस प्रस्ताव को स्वीकृति दी गई, तब यह केवल एक परंपरागत प्रक्रिया नहीं थी—यह उस भारत का स्वीकृतिपत्र था, जो अपने असाधारण नायकों को पहचानना और सम्मानित करना सीख रहा है।
एक जीवन जो प्रेरणा बन गया:
गिरधर मिश्र से जगद्गुरु रामभद्राचार्य तक का सफ़र एक साधना है। मात्र दो महीने की आयु में दृष्टि खो देने के बाद भी उन्होंने न केवल 22 भाषाएं सीखी, बल्कि लगभग 80 ग्रंथों की रचना की, जिनमें चार महाकाव्य भी शामिल हैं। वे न केवल रामानंद संप्रदाय के प्रमुख आचार्यों में से एक हैं, बल्कि एक अद्भुत वक्ता, रचनाकार और शिक्षाविद भी हैं।
उन्होंने जगद्गुरु रामभद्राचार्य दिव्यांग विश्वविद्यालय की स्थापना की, जहां दिव्यांग विद्यार्थियों को न केवल उच्च शिक्षा मिलती है, बल्कि आत्मविश्वास और गरिमा से जीने का रास्ता भी।
यह सिर्फ उपाधि नहीं, सामाजिक संदेश है:
इस डी.लिट सम्मान में निहित सबसे बड़ा संदेश यही है कि शिक्षा और अध्यात्म का वास्तविक मापदंड व्यक्ति की दृष्टि नहीं, उसकी दृष्टि का विस्तार होता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य उन विरल विभूतियों में हैं, जो हमें यह सिखाते हैं कि शारीरिक सीमाएं आत्मिक ऊँचाइयों को नहीं रोक सकतीं।
अकादमिक संस्थानों की भूमिका:
यह उपाधि उस दौर में दी जा रही है जब शिक्षा व्यवस्था में मूल्यों की जगह बाज़ारीकरण और प्रमाणपत्रों की दौड़ हावी है। ऐसे में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय का यह निर्णय, हमारी विश्वविद्यालय प्रणाली के मूल उद्देश्य — ज्ञान, संवेदना और सेवा — की ओर लौटने की आकांक्षा का प्रतीक है।
यह सम्मान केवल एक व्यक्ति को नहीं, बल्कि उस विचार को समर्पित है जो कहता है — ज्ञान, दृष्टि का विषय नहीं, साधना का फल है।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य आज भी हमारी उस परंपरा की जीवंत मिसाल हैं, जहाँ अंधकार में भी आलोक संभव है — बशर्ते आत्मा जाग्रत हो।