मेरे हमराह, हमजोली, क्लासफेलो कामरेड सैय्यद हैदर अब्बास रजा दिवंगत हो गए। उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति रहे। उस दौर में (1955-60) हम साथ थे। वे जुबिली कॉलेज से विश्वविद्यालय में प्रवेश पाए थे। मैं कान्यकुब्ज वोकेशनल कॉलेज से। राजनीतिक रूप से हैदर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र शाखा स्टूडेंट फेडरेशन के नेता थे। मैं लोहियावादी समाजवादी युवक सभा का विश्वविद्यालय का सचिव। रिश्ते बड़े मिठासभरे थे।
हम दोनों के साथी आरिफ नकवी का बस माहभर पूर्व (20 अक्टूबर 2024) बर्लिन में इंतकाल हुआ था। हम तीनों छात्र संघर्ष में सक्रिय रहे। जब राष्ट्रपति का आदेश साया हुआ हैदरभाई को जज नामित करते हुए तो मैं हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) में “टाइम्स आफ इंडिया” का ब्यूरो प्रमुख था। लखनऊ से तबादला हुआ था। मेरे बधाई पत्र को हैदरभाई कई बार उल्लिखित कर चुके हैं। मेरा संबोधन था : “My dear Haider. You will go a long way in judiciary”.
न्यायमूर्ति कैसे मज्लूम की मदद कर सकते हैं, यहां इसका एक उदाहरण पेश है। वह माह था जून का। लखनऊ बेंच का आखिरी कार्यकारी दिन। सैकड़ों फाइलें खंडपीठ के टेबल पर जमा थी। शाम ढल रही थी। अगर उस दिन सुनवाई नहीं होती तो फिर डेढ़ माह प्रतीक्षा करनी पड़ती। वह “नेशनल हेराल्ड” के यातनाग्रस्त कार्मिकों के राहत का मसला था। बिना वेतन के तीन कर्मचारी तब तक भूख से मर चुके थे। शेष संकट से ग्रस्त थे। सोनिया गांधी-मोतीलाल वोरा के इस दैनिक पत्र-समूह ने कमाया तो अरबों, पर मेरे मजदूर साथियों को बिना वेतन के तड़पाया।
हाईकोर्ट से ही राहत और प्राणदान मिल सकता था। मेरे विश्वविद्यालय के सहपाठी रहे न्यायमूर्ति सैयद हैदर अब्बास रजा लखनऊ खंडपीठ के अध्यक्ष थे। मुझे इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में भी जानते थे, “टाइम्स ऑफ इंडिया” संवाददाता के अलावा। मुझे अदालत में देखकर कारण पूछा : “कैसे आए ?” मैंने “नेशनल हेराल्ड” “नवजीवन” और “कौमी अखबार” के कर्मचारियों की दयनीय दशा बताई। हमारे वकील स्व. शम्भूनाथ तांगडी और संजय भसीन को सुना। जस्टिस रजा ने तत्काल हमारी याचिका की फाइल मंगवाई। खुली अदालत में श्रमिकों की प्राणरक्षा में आदेश दिया।
तात्पर्य है कि जब मानव-हृतंत्री के निनाद को सुन सकें तभी जज साहब न्याय दें। न्यायमूर्ति सैय्यद हैदर अब्बास रजा का दिल पत्रकार-अखबारी श्रमिकों के दर्द से पिघला था। न्याय दिया। जीविका हेतु प्रबंधन को वित्तीय मदद का आदेश हुआ। अमूमन हाईकोर्ट तो केवल पथरीले कानून ही न कि इंसानी हितों की रक्षा करता है। मैं स्वयं और मेरे IFWJ के साथी इस सम्पूर्ण प्रकरण के प्रत्यक्षदर्शी और लाभार्थी हैं। एक पुरानी बात। नैनीताल में 1953 में हुई वाइस चांसलरों की बैठक में, जो प्रदेश के गवर्नर व विश्वविद्यालयों के चांसलर केएम मुंशी की अध्यक्षता में हुई, उस छात्र यूनियनों के भंग करने व वाइस चांसलर की नियुक्तियों में सरकारी दाखिले को बढ़ावा देने का निर्णय लिया गया। उस समय जुबली कॉलेज के छात्र यूनियन के सचिव और स्टूडेंट फेडरेशन के सक्रिय सदस्य भी हैदर थे। उक्त आंदोलनों में हम दोनों ने हिस्सा लिया।
मैं गवाह हूँ 1958 में जब विश्वविद्यालय में व्याप्त भ्रष्टाचार व कुप्रशासन के विरुद्ध बहुत बड़ा आंदोलन हुआ। सभी छात्र नेताओं के साथ-साथ हैदर को भी कई बार लखनऊ, फैजाबाद, बनारस व मथुरा के जेलों में कई महीनों तक रहना पड़ा। बाद में हाई कोर्ट में न्यायाधीश की नियुक्ति के बाद उन्होंने भूतपूर्व लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संगठन की नींव डाली। इसका पहला अधिवेशन गवर्नर हाउस में हुआ, जिसका उद्घाटन विश्वविद्यालय के उनके सहपाठी व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री आनंद ने किया। चूंकि विश्वविद्यालय में 1920 के नवंबर के महीने से शिक्षा दीक्षा कार्य शुरू हुआ था। इस कारण हर वर्ष उसी महीने में सम्मेलन आयोजित किया जाता रहा, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में विशेष सेवा अर्पित करने वाले विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों को प्रशंसा पत्र व अवार्ड दिया जाता रहा। मुझे भी मिला था। हैदर के कारण। हैदरभाई जहां भी रहेंगे, न्याय का परचम लहराते ही दिखेंगे। मेरा लाल सलाम आपको।