विजय गर्ग
मौजूदा दौर उपभोक्तावाद का है, जिसमें लोग बेतहाशा और बेतरतीब तरीके से दैनिक उपयोग का सामान इस्तेमाल कर रहे हैं। उसमें से अधिकांश को बहुत कम समय उपयोग करने के बाद सीधे कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है। उपभोग की प्रवृत्ति के पीछे मानसिकता यह है कि हम जितना ज्यादा उपभोग करेंगे या जो हमारे अधिकार में होगा, हम उतना ही सुखी रहेंगे। आधुनिकता के दौर में अधिक से अधिक उपभोग सुख, समृद्धि और अच्छे जीवन स्तर का द्योतक है। भारत में उपभोग की प्रवृत्ति में क्रांतिकारी बदलाव नब्बे के दशक में आए आर्थिक उदारवाद के बाद हुआ, जिसका असर न सिर्फ बाजार पर पड़ा, बल्कि शहरीकरण के माध्यम से मध्यवर्ग के आर्थिक और सामाजिक ढांचे और प्रवृत्ति पर भी पड़ा। पिछले तीन दशक में बाजार ने उत्पादन और उपभोग को धीरे-धीरे अपने नियंत्रण में ले लिया, जिसका नतीजा हुआ कि हमारी जरूरतें बाजार निर्धारित करने लगा है। इस प्रकार हम सब वस्तु के उपभोग की इकाई बनते चले गए, जिसका सबसे ज्यादा फायदा बाजार को हुआ। तेजी से बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद के रूपों में आर्थिक प्रगति के नए प्रतिमान बने।
इसमें कोई शक नहीं कि आर्थिक उदारवाद ने कई जटिल, जड़ आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया, जिसमें गरीबी, संसाधनों का असमान वितरण, सर्वसुलभ शिक्षा, मंथर गति का आर्थिक विकास आदि प्रमुख हैं। साथ ही, गुजरते समय के साथ यह कई बड़ी समस्याएं भी लेकर आया। इन्हीं नकारात्मक प्रभावों में उपभोक्तावाद प्रमुख है। हर आदमी अब मात्र उपभोग करने की एक इकाई बनकर रह गया है। ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की संस्कृति इसी उपभोक्तावाद की उपज है, जिसका व्यापक प्रभाव प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और व्यापक प्रदूषण के रूप में आज हमारे सामने है। इस प्रवृत्ति को लिखने की आदत में आए बदलाव से बखूबी समझा जा सकता है। आर्थिक उदारवाद के पहले लिखने के लिए निब वाला कलम होता था, जिसमें बार-बार स्याही भरी जाती थी और उसे वर्षों इस्तेमाल किया जाता था। तभी बाल पेन ने दस्तक दी, जिसमें सूखी स्याही वाले रिफिल का चलन था । इस्तेमाल के बाद रिफिल फेंक कर नया रिफिल डाला जाता था। कुछ दिनों बाद ‘लिखो फेंको’ वाला कलम आ गया।
आज स्थिति यह है कि, एक आंकड़े के मुताबिक, मात्र दस फीसद लोग रिफिल खरीदते हैं। सब कलम खरीदते हैं, क्योंकि रिफिल और नए कलम का दाम लगभग बराबर हो चुका है। उसे इस्तेमाल करने के बाद फेंक देते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक केवल अमेरिकी लोग साल भर में 1.6 अरब कलम इस्तेमाल करके फेंक देते हैं। वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा दो अरब से अधिक है। नतीजतन, लाखों टन प्लास्टिक मिट्टी, नदी और समुद्र में जा मिलता है। जब बाजार और उपभोक्तावाद ने कुछ ही दशक में लिखने जैसी आदत को इस कदर प्रभावित किया है, तो इसके प्रभाव को बाकी दिनचर्या की वस्तुओं पर अंदाजा लगाना भी भयावह है। फैशन, प्रकृति के दोहन का नया उपादान बन कर सामने आया है। वैश्विक स्तर पर हर वर्ष सौ अरब वस्त्र बनाए और इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यानी प्रति व्यक्ति बारह अलग-अलग कपड़े। यह तब है जब अधिकांश जनसंख्या बड़ी मुश्किल से अपना जीवन यापन कर पा रही है। सौ अरब कपड़े यानी वजन के हिसाब से लगभग नौ करोड़ टन कपड़ा सालाना कूड़ेदान में फेंक दिया जा रहा है। कपड़ा बनाने में ढेर सारे पानी और उर्जा की खपत होती है, इस लिहाज से वैश्विक ताप का लगभग दस फीसद भार हमारे अलग-अलग ‘मैचिंग’ कपड़े पहनने और और दिखाने की प्रवृत्ति से पड़ता है। अगर फैशन की यही प्रवृत्ति जारी रही, तो 2030 के अंत तक कूड़े के ढलाव तेरह करोड़ टन इस्तेमाल किए गए कपड़ों से भर रहे होंगे।
हम प्रकृति का वैसे ही अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं, जैसे टिड्डी दल फसलों को सफाचट कर जाता है। रोजमर्रा के इस्तेमाल के सामान की मरम्मत की संस्कृति पूर्व आर्थिक उदारवाद के दौर की पहचान रही है, जो किसी भी सामान का अधिकतम और किफायती उपयोग सुनिश्चित करती थी । चप्पल-जूतों से लेकर, कपड़ों, बर्तन, रेडियो, टीवी, घड़ी, छाता, कृषि के सामान, यहां तक कि निब वाले पेन की मरम्मत करने वाले अर्थव्यवस्था में हिस्सेदार हुआ करते थे। ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ संस्कृति औद्योगिक क्रांति के आर्थिक संदर्भ की उपज है, जहां मूल उद्देश्य उत्पादन और उपभोक्ता के माध्यम से आर्थिक मुनाफे में उत्तरोतर बढ़ोतरी करना है। अगर उत्पाद टिकाऊ और मरम्मत के लायक होगा तो बहुत लंबे समय तक उपयोगी बना रहेगा और ऐसी वस्तुएं बाजार और मुनाफे के आड़े आएंगी, क्योंकि ऐसी वस्तुएं उपभोक्ता को लंबे समय तक के लिए बाजार से दूर कर देंगी। इसलिए कंपनियों ने न सिर्फ उत्पाद में तकनीकी परिवर्तन कर मरम्मत की संभावना को कम किया, बल्कि उसके इस्तेमाल की समय सीमा को कम कर दिया। अब हर महीने उत्पाद के माडल बदलने लगे, नई तकनीक का हवाला देकर विज्ञापन के माध्यम से उसे पहले माडल से बेहतर बताया जाने लगा। यहां तक निर्माता उत्पाद के उपयोग करने की समय सीमा भी निर्धारित करने लगे, ताकि निर्धारित समय के बाद उसे आवश्यक रूप से बदलना ही पड़े। इस तरह उपभोक्ता को बार-बार बाजार का रुख करना पड़ता है।
निर्माताओं ने भरसक प्रयास किया कि मरम्मत की संभावना खत्म हो जाए, पर जिस उत्पाद को मरम्मत से दरकिनार नहीं किया जा सकता, वहां भी दोहरे मुनाफे के लिए मरम्मत करने का अधिकार बौद्धिक संपदा संरक्षण के बहाने अपने पास ही रखा निर्माताओं के मरम्मत की प्रवृत्ति को खत्म करने के गोरखधंधे को ‘शमशेर कटारिया बनाम होंडा सील कार’ के कानूनी मामले से समझा जा सकता है कि उत्पादक समूह किस स्तर तक न सिर्फ हमें एक अदद उपभोक्ता बना रहे हैं, बल्कि एक ही उत्पाद को नए-नए कलेवर के साथ एक खास अंतराल पर बेंच कर बार-बार मुनाफा कमाकर पृथ्वी को कूड़े का अंबार बना रहे हैं।
अब चूंकि चरम उपभोक्तावाद की हकीकत सामने आने लगी है, तो भारत सरकार सावधान और निर्माताओं के ऐसे गोरखधंधे पर लगाम लगाने को तत्पर हुई है। यूरोप और अमेरिका की तर्ज पर उपभोक्ता के मरम्मत का अधिकार सुनिश्चित करने की कवायद में जुट गई है। हालांकि यह तो अभी शुरुआत है, वैश्विक और भारत के स्तर पर सतत विकास के लक्ष्य के आधार पर उत्पाद तैयार करने से लेकर उसके उपयोग की समय- सीमा जैसे मुद्दों पर नकेल कसने की जरूरत है। अगर इस दिशा में सत्ता प्रतिष्ठान संज्ञान ले, तो न सिर्फ यह उपभोक्ता के लिए किफायती होगा, बल्कि पृथ्वी को कूड़े का ढेर बनने से बचा पाएंगे। टिकाऊ, मरम्मत योग्य और किफायती उत्पाद में ही सतत विकास निहित है, जिसके मूल में कम से कम संसाधन में ज्यादा से ज्यादा उपयोग या उपभोग है।