बीएस राय/ Jharkhand News: झारखंड में इस बार चुनाव के नतीजे एक नई राजनीतिक दिशा की ओर इशारा कर रहे हैं। यह राज्य के लिए ऐतिहासिक क्षण हो सकता है क्योंकि 24 साल बाद पहली बार कोई पार्टी यहां मजबूत स्थिति में सत्ता में लौटी है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आखिर भाजपा पूरी ताकत लगाने के बावजूद सत्ता में क्यों नहीं आ पाई? इस खबर में हम इसी सवाल का विश्लेषण करेंगे।
झारखंड में स्थानीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के पास स्पष्ट और मजबूत मुख्यमंत्री चेहरे का अभाव था। भाजपा के पास सिर्फ दो नाम थे जो मुख्यमंत्री बनने की क्षमता रखते थे। बाबू लाल मरांडी और चंपई सोरेन। दिलचस्प बात यह थी कि दोनों ही नेता दलबदलू थे। चंपई विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हुए थे। इसके उलट हेमंत सोरेन की लोकप्रियता कहीं ज़्यादा थी।
वहीं, एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल के मुताबिक, 41 फ़ीसदी लोगों ने मुख्यमंत्री के तौर पर हेमंत सोरेन को पसंद किया, जबकि सिर्फ़ 7 फ़ीसदी लोगों ने चंपई और 13 फ़ीसदी लोगों ने बाबू लाल को पसंद किया। लोकप्रियता के इस अंतर ने चुनावी मैदान में बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं।
हेमंत सोरेन ने महिलाओं के बीच अपनी पकड़ और मज़बूत की। उन्होंने मैया सम्मान योजना शुरू की, जिसके तहत हर महीने हर महिला के बैंक खाते में 1000 रुपए जमा किए गए। इस योजना का सीधा फ़ायदा महिलाओं को मिल रहा था, और बीजेपी इसका प्रभावी तरीक़े से जवाब देने में विफल रह। हेमंत ने अपनी पत्नी कल्पना सोरेन को भी चुनावी मैदान में उतारा. कल्पना ने चुनाव प्रचार में करीब 100 रैलियां कीं, जिसमें महिलाओं की भारी भीड़ जुटी। इस चुनाव में महिलाओं के वोट प्रतिशत में चार फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखी गई, जो सीधे तौर पर हेमंत सोरेन के पक्ष में गई।
हेमंत सोरेन ने चुनावी रैलियों में आदिवासी मुद्दों को प्रमुखता से उठाया। उन्होंने कहा कि आदिवासियों की पहचान की रक्षा सबसे ज़रूरी है। हेमंत ने यह भी आरोप लगाया कि उनकी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत होने के बावजूद केंद्र सरकार और राज्यपाल ने उनके द्वारा रखे गए कई प्रस्तावों को मंजूरी नहीं दी। इनमें खतियानी और आरक्षण जैसे मुद्दे प्रमुख थे। भाजपा और केंद्र सरकार पर आदिवासी वर्ग की अनदेखी का आरोप हेमंत के लिए बड़ा राजनीतिक हथियार साबित हुआ और आदिवासी इलाकों में उन्हें जोरदार समर्थन मिला।
कुड़मी वोटबैंक भी इस चुनाव में अहम साबित हुआ। पहले यह वोटबैंक आजसू पार्टी के साथ था, लेकिन इस बार जयराम महतो के आने के बाद ये वोटर भाजपा से अलग होते दिखे। सुदेश महतो के साथ भाजपा का गठबंधन भी बहुत फायदेमंद नहीं रहा। आजसू पार्टी सिर्फ 2-3 सीटों पर बढ़त बनाए हुए दिख रही है। कुड़मी वोटर खास तौर पर कोल्हान और कोयलांचल इलाकों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं और इस बार इन वोटरों के भाजपा से दूर होने का सीधा फायदा हेमंत सोरेन को मिला।
भाजपा ने कई बड़े नेताओं को चुनावी मैदान में उतारा था, लेकिन अधिकांश बड़े नेता अपनी सीटों पर पिछड़ते नजर आए। बोकारो से कद्दावर नेता बिरंची नारायण, देवघर से नारायण दास और गोड्डा से अमित मंडल पिछड़ते नजर आए। यही हाल मधु कोड़ा की पत्नी का भी रहा, जो जगन्नाथपुर सीट से चुनाव लड़ रही थीं। इन बड़े नेताओं की हार भाजपा के लिए बड़ा झटका थी और इससे पार्टी की राजनीतिक स्थिति और कमजोर हुई।
झारखंड के इस चुनावी मुकाबले में हेमंत सोरेन के गठबंधन ने अपनी रणनीतियों के तहत महिलाओं, आदिवासियों और स्थानीय मुद्दों को बखूबी भुनाया, जबकि भाजपा की रणनीति कमजोर साबित हुई। मुख्यमंत्री पद के चेहरे का अभाव, महिलाओं और आदिवासियों का समर्थन खोना और बड़े नेताओं की हार भाजपा के लिए बड़ा राजनीतिक झटका है। इन वजहों से झारखंड में भाजपा सत्ता में वापसी करने में सफल नहीं हो पाई और हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिलता दिख रहा है।