कला शिक्षा की अहमियत

 

अम्बुज कुमार

कला शिक्षा औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा का एक आवश्यक अंग है। कला के माध्यम से हम अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रभावी एवं सशक्त तरीके से करते हैं। यह हमारी संस्कृति का निर्धारक तत्व है। यही कारण है कि कलाकारों का सम्मान हर जगह होता है। उनके लिए किसी देश, राज्य, समाज, जाति, या धर्म की बंदिशें नहीं होती है। इसीलिए राज्य को शिक्षा के साथ-साथ कला, खेलकूद, गीत संगीत,मूर्ति कला,स्थापत्य कला आदि की सुविधाएं प्राथमिक कक्षाओं से ही देनी चाहिए।  इससे जिन बच्चों की रुचि जिस क्षेत्र में हो, पहचानने में मदद मिल सकती है। अक्सर देखा जाता है कि जिन बच्चों की रुचि पढ़ाई में कम है और गीत-संगीत में ज्यादा है,लेकिन सुविधा नहीं होने के कारण लोग उसे पढ़ाई में ही जबरन ढकेलते हैं, जिसके कारण उसकी कोई प्राप्ति नहीं हो पाती है।
   फिल्म एवं धारावाहिक निर्देशक एवं लेखक रविकांत जी का कहना है कि इसके लिए एक तरफ जहां संगीत नाटक अकादमी को और सशक्त बनाना चाहिए, वहीं दूसरी तरफ विद्यालय स्तर से ही कला एक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। प्रारंभिक कक्षा से लेकर स्नातकोत्तर तक इसके पठन पाठन की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए हर विद्यालय में अलग से कला शिक्षक की बहाली होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि एक समय पटना में कालिदास रंगालय नाटकों के लिए दूर दूर तक जाना जाता था। लेकिन अब कलाकारों के समक्ष आर्थिक संकट गहराने एवं राज्य सरकार द्वारा संरक्षण नहीं करने के कारण यह सारी चीजें ध्वस्त होने के कगार पर है।उन्होंने कलाकारों के लिए स्थानीय स्तर पर सुविधाओं की भी मांग की है। उन्होंने सरकार से अपेक्षा की कि कम से कम हर अनुमंडल और जिला स्तर पर एक-एक ऑडिटोरियम बनाया जाए और वहीं पर समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। इसके लिए प्रखंड,अनुमंडल एवं जिला स्तर पर राशि का प्रबंध होना चाहिए और योजना बननी चाहिए। इससे कला का स्वस्थ माहौल बनाया जा सकता है। नई शिक्षा नीति के तहत इन बिंदुओं की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है।आज कला शिक्षा के अभाव में ही  अश्लीलता हावी है।   एक समय पर्व त्योहार के दौरान लगभग हर गांव में नाटक एवं गीत संगीत के आयोजन होते थे। वहां ग्रामीणों द्वारा बिना औपचारिक प्रशिक्षण के ही उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन होता था। इससे समाज में प्रेम, भाईचारा, सौहार्द बनाने में मदद मिलती थी। नाटकों में दिखाई गई बातों का असर समाज पर भी पड़ता था, लेकिन आज के दौर में कला शिक्षा के अभाव, लोगों की निष्क्रियता, रोजगार का अभाव एवं सरकार के असहयोगात्मक रवैया से यह परंपरा लुप्त हो गई है।

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