महेंद्र मिश्र या महेंदर मिसिर का नाम बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोकगीतकारों में सर्वोपरि है। वे लोकगीत की दुनिया के सम्मानित बादशाह थे। उनकी रचित पूरबी वहां-वहां तक पहुंची है, जहां-जहां भोजपुरी सभ्यता, संस्कृति एवं भोजपुरी भाषा पहुंची है। अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने कभी दूसरों द्वारा रचित गीत नहीं गाया। उनकी कविता में गेयता का स्थान सर्वोपरि है। आज ही के दिन 1886 में उनका निधन हुआ था।
जीवनवृत्त, एक नजर
महेंद्र मिश्र का जन्म सारण जिला के जलालपुर प्रखंड से सटे एक गांव कांही मिश्रवलिया में 16 मार्च, 1886 को मंगलवार को हुआ। इनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के लगुनही धर्मपुरा से आकर बस गये थे। महेंद्र मिश्र के पिता का नाम था-शिवशंकर मिश्र। छपरा के तत्कालीन जमींदार हलिवंत सहाय से जुड़े हुए थे। उनके आचार्य थे पंडित नान्हू मिश्र। उनके भीतर जो कवि-गीतकार सुषुप्त पड़ा था, आंख मलते अंगड़ाइयां लेने लगा। इस महान पूर्वी गीतकार की मृत्यु 26 अक्टूबर, 1946 ई. को हो गई।
गुलामी के दौर में छापते थे नोट
कहा जाता है कि महेंद्र मिश्र कोलकाता से नोट छापने की एक मशीन लेकर मिश्रवलिया आये। नोट बनाने का काम गुप्त रूप से शुरू हुआ। अनेक क्रांतिकारी युवक मिश्रवलिया आने लगे तथा मिश्र जी उनकी भरपूर आर्थिक मदद करते। गांधी जी के आह्वान पर आयोजित होने वाले धरना, जूलूस आदि में भाग लेने वाले सत्याग्रहियों के भोजन आदि का सम्पूर्ण भार वहन करते। पर उनका हृदय खींचता था संगीत की महफिलों के आरोह-अवरोह और तरन्नुम की तरफ । उनका मस्तिष्क खींचता था राष्ट्रीय आन्दोलनों तथा उसमें शरीक हजारों लाखों व्यक्तियों की सेवा और त्याग की तरफ ।
पकड़े गए तो जेल में ही रच डाला महाकाव्य
पटना के सीआइडी अफसर जटाधारी प्रसाद को नोट छापने वाले व्यक्ति का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। जटाधारी प्रसाद ने वेश और नाम बदल लिया। वे हो गए गोपीचंद और महेंद्र मिश्र के घर नौकर बनकर रहने लगे। धीरे-धीरे गोपीचंद उर्फ गोपीचनवा महेंद्र मिश्र का विश्वासी नौकर हो गया । महेंद्र मिश्र के घर डीएसपी भुवनेश्वर प्रसाद के नेतृत्व में दानापुर की पुलिस ने छापा मारा। महेंद्र मिश्र पकड़े गए। उनके कंठ से कविता की दो पंक्तियां- पाकल पाकल पनवां खियवले गोपीचनवां, पिरतिया लगाके भेजवले जेलखानवां.., निकली तो गोपीचंद ने उनके पांव पकड़ लिए। जेल में ही भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य और उनका गौरव-ग्रन्थ ‘अपूर्व रामायण’ रचा गया ।
हास्य-विलासपूर्ण जीवन भीतर था संवेदनशील कवि
ऊपर से वह भले ही हास्य-विलासपूर्ण जीवन जीते रहे, उनके भीतर एक कोमल और अत्यंत ही संवेदनशील कवि था। मूलत: वे साहित्यप्रेमी और सौहार्दप्रेमी कलाकार थे। उनकी श्रृंगारिक कविताओं में एक प्रकार की रोमांटिक संवेदना है। प्रेम की कोमलता है।
उन्होंने कभी भी नाच, नौटंकी या लोक नाटक से स्वयं को नहीं जोड़ा। तत्कालीन युग की आम जनता की रुग्ण मानसिकता, कलात्मक रूचि के ह्रास, नैतिकता बोध की कमी और सामाजिक मान्यता को ध्यान में रखकर विचार किया जाये तो यह सिद्ध होता है कि मिश्र जी द्वारा गायिकाओं, कलाकारों एवं नर्तकियों आदि से घनिष्ट सम्बन्ध रखने के मूल में उनकी सामाजिक सुधार की तीव्र भावना ही कार्य कर रही थी। समाज में फैली कुरीतियों तथा गलत चीजों के प्रति उनके मन में विद्रोह का भाव था। कुलटा स्त्री, बेमेल विवाह और भ्रष्ट आचरण से सम्बंधित उनकी अनेक कविताएं इस कथन का प्रमाण हैं।
पुरबी गीतों को दी अलग तासीर
उनकी एक महान देन है ‘पुरबी।’ उनके पहले पूरबी गीत भी था, इसका पता नहीं चलता । दरअसल, मिश्र जी के पूरबी गीतों की तासीर ही कुछ अलग है। महेंद्र मिश्र के पूरबी गीत न तो किसी परंपरा की उपज हैं, न नकल हैं, न उनकी नकल ही संभव है।
मिश्रजी की रचनाएं, एक नजर
मिश्र जी द्वारा प्रणीत गीतों के बीस काव्य-संग्रहों की चर्चा उनके ‘अपूर्व रामायण’ तथा अन्य स्थानों पर आई है। महेंद्र मंजरी, महेंद्र विनोद, महेंद्र दिवाकर, महेंद्र प्रभाकर, महेंद्र रत्नावली, महेंद्र चन्द्रिका, महेंद्र कुसुमावती, अपूर्व रामायण सातों कांड, महेंद्र मयंक, भागवत दशम स्कंध, कृष्ण गीतावली, भीष्म बध नाटक आदि की चर्चा हुई है । पर इनमें से अधिकांश आज अनुपलब्ध हैं।
उनकी रचनाओं का आधार श्रृंगारिक है, पर मूल भावना भक्तिमय ही है। उन्होंने भोजपुरी एवं खासकर पूरबी गीतों का अद्भुत परिमार्जन किया है। इसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।