पंडित माधवराव सप्रे, हिंदी पत्रकारिता और साहित्य में लगभग भुला दिए गए महानायक हैं। भारतबोध और भारतीयता के सबसे प्रखर प्रवक्ता स्प्रे हमारे स्व को जगाने वाले लेखक हैं। हिंदी नवजागरण के अग्रदूत माधवराव सप्रे को याद करना उस परंपरा को याद करना है, जिसने देश में न सिर्फ भारतीयता की अलख जगाई वरन हिंदी समाज को आंदोलित भी किया। उनके हिस्से इस बात का यश है कि उन्होंने मराठीभाषी होते हुए भी हिंदी की निंरतर सेवा की। अपने लेखन, अनुवाद, संपादन और सामाजिक सक्रियता से समाज का प्रबोधन किया। 19 जून,1871 को मध्यप्रदेश के एक जिले दमोह के पथरिया में जन्मे सप्रे जी एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। आज के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तीन राज्य उनकी पत्रकारीय और साहित्यिक यात्रा के केंद्र रहे। छत्तीसगढ़ मित्र, हिंदी केसरी के माध्यम से पत्रकारिता में किया गया उनका कार्य अविस्मरणीय है। उनकी देशज चेतना, भारत प्रेम, जनता के दर्द की गहरी समझ उन्हें बड़ा बनाती है। राष्ट्रोत्थान के लिए तिलक जी के द्वारा चलाए जा रहे अभियान का लोकव्यापीकरण करते हुए वे एक ऐसे संचारक रूप में आते हैं, जिसने अपनी जिंदगी राष्ट्र को समर्पित कर दी। सप्रे जी की बहुमुखी प्रतिभा के बहुत सारे आयाम और भूमिकाएं थीं। वे हर भूमिका में पूर्ण थे। कहीं कोई अधूरापन नहीं, कच्चापन नहीं।
सप्रे जी को लंबी आयु नहीं मिली। सिर्फ 54 साल जिए, किंतु जिस तरह उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं की स्थापना की, पत्र-पत्रिकाएं संपादित कीं, अनुवाद किया, अनेक नवयुवकों को प्रेरित कर देश के विविध क्षेत्रों में सक्रिय किया वह विलक्षण है। 26 वर्षों की उनकी पत्रकारिता और साहित्य सेवा ने मानक रचे। पंडित रविशंकर शुक्ल, सेठ गोविंददास, गांधीवादी चिंतक सुंदरलाल शर्मा, द्वारिका प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीधर वाजपेयी,माखनलाल चतुर्वेदी, लल्ली प्रसाद पाण्डेय,मावली प्रसाद श्रीवास्तव सहित अनेक हिंदी सेवियों को उन्होंने प्रेरित और प्रोत्साहित किया। जबलपुर की फिजाओं में आज भी यह बात गूंजती है कि इस शहर को संस्कारधानी बनाने में सप्रे जी ने एक अनुकूल वातावरण बनाया। जिसके चलते जबलपुर साहित्य, पत्रकारिता और संस्कृति का केंद्र बन सका। 1920 में उन्होंने जबलपुर में हिंदी मंदिर की स्थापना की, जिसका इस क्षेत्र में सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ाने में अनूठा योगदान है।
हिंदी पत्रकारिता में उनका गौरवपूर्ण स्थान है। सन् 1900 के जनवरी महीने में उन्होंने छ्त्तीसगढ़ के छोटे से कस्बे पेंड्रा से ‘छत्तीसढ़ मित्र’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। दिसंबर,1902 तक इसका प्रकाशन मासिक के रुप में होता रहा। इसे प्रारंभ करते हुए उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा-“संप्रति छत्तीसगढ़ विभाग को छोड़ एक भी प्रांत ऐसा नहीं है, जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-करकट जमा हो रहा है वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिध्द मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करे। ” यह बात बताती है कि भाषा के स्वरूप और विकास को लेकर वे कितने चिंतित थे। साथ ही हिंदी भाषा को वे एक समर्थ भाषा के रुप में विकसित करना चाहते थे, ताकि वह समाज जीवन के सभी अनुशासनों पर सार्थक अभिव्यक्ति करने में सक्षम हो सके।
कुछ पत्र लंबे समय तक चलते हैं पर पहचान नहीं बना पाते । ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की प्रकाशन अवधि हालांकि बहुत कम है ,किंतु इस समय में भी उसने गुणवत्तापूर्ण, विविधतापूर्ण सामग्री को प्रकाशित कर आदर्श संपादकीय,लेखकीय परंपरा को निर्मित करने में मदद की, वह भी एक ऐसे इलाके से जहां इसकी कोई पूर्व परंपरा नहीं थी। बत्तीस पेज की यह पत्रिका समग्रता के साथ आती है, जिसमें कथा, कहानी, समाचार, प्रार्थना, पत्र, नीति विषयक बातें, उपदेशपरक और व्यंग्य परक लेख, समीक्षाएं प्रकाशित होती थीं। सप्रे ने जी ने संपादकीय तो नहीं लिखे किंतु समाचारों के अंत में सुझाव के रुप में एक वाक्य जाता था। एक साल के बाद इसका स्वरूप पूरी तरह साहित्यिक हो गया और समाचारों प्रकाशन इसमें बंद हो गया। इस मासिक पत्र के प्रकाशक अधिवक्ता वामनराव लाखे थे और सप्रे जी के साथ संपादक के रूप में रामराव चिंचोलकर का नाम भी जाता था। इस पत्र की गुणवत्ता और सामग्री को बहुत सराहना मिली। उस समय के प्रमुख अखबार भारत मित्र(कोलकाता) ने लिखा कि –“इस पत्र के संपादक एक महाराष्ट्रीयन हैं तथापि हिंदी बहुत शुद्ध लिखते हैं। लेख भी बहुत अच्छे होते हैं। हम आशा करते हैं कि मध्यप्रदेश वासी इस पत्र को बनाए रखने की चेष्ठा करेंगें।” अभावों के चलते यह यात्रा बंद हो गयी और सप्रे जी नागपुर के देशसेवक प्रेस में काम करने लगे। वहीं पर सप्रे जी ने जीवन के कठिन संघर्षों के बीच 1905 में हिंदी ग्रंथ प्रकाशन-मंडली की स्थापना की। इसके माध्यम से हिंदी भाषा के विकास और उत्थान तथा अच्छे प्रकाशनों का लक्ष्य था। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के कार्यों से प्रभावित सप्रे जी ने 13 अप्रैल,1907 से ‘हिंदी केसरी’ का प्रकाशन आरंभ किया। भारतबोध की भावना भरने, लोकमान्य तिलक के आदर्शों पर चलते हुए इस पत्र ने समाज जीवन में बहुत खास जगह बना ली। राष्ट्रीय जागरण की भावना से ओतप्रोत इस पत्र में देश के जाने-माने पत्रकारों का सहयोग रहा। बताते हैं कि मुंबई के प्रख्यात पत्रकार जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, सप्रे जी के आग्रह पर उस समय के प्रमुख अखबार ‘श्रीवेंकेटेश्वर समाचार’ के संपादक की नियमित नौकरी छोड़कर नागपुर चले आए और ‘हिंदी केसरी’ से जुडे। संपादक शिरोमणि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के मर्ई,1907 के अंक में लिखा-“हिंदी केसरी निकल आया। अच्छा निकाला। …आशा है इस पत्र से वही काम होगा जो तिलक महाशय के मराठी पत्र से हो रहा है। इसके निकालने का सारा पुण्य पंडित माधवराव सप्रे बी.ए. को है। महाराष्ट्री होकर भी हिंदी भाषा पर आपके अखंड और अकृत्रिम प्रेम को देखकर उन लोगों को लज्जित होना चाहिए, जिनकी जन्मभाषा हिंदी है, पर जो हिंदी में एक सतर भी नहीं लिख सकते, अथवा न ही लिखना चाहते हैं।”
बहुआयामी प्रतिभा के धनी सप्रे जी अप्रतिम लेखक, गद्यकार, अनुवादक और कोशकार के रूप में हिंदी की सेवा करते हैं। उनमें हिंदी समाज की समाज की समस्याओं, उसके उत्थान को लेकर एक ललक दिखती है। वे भाषा को समृद्ध होते देखना चाहते हैं। हिंदी निबंध और कहानी लेखन के क्षेत्र में वे अप्रतिम हैं तो समालोचना के क्षेत्र में भी निष्णात हैं। हिंदी साहित्य में एक साथ कई परंपराओं को विकसित करना चाहते हैं। उसमें आलोचना की परंपरा भी खास है। उनके लिए कोई विषय अछूता नहीं है। वे हिंदी की सार्मथ्य को बढ़ते हुए देखना चाहते हैं। सप्रे जी ने उस समय की लोकप्रिय पत्रिकाओं में 150 से अधिक निबंध लिखे। छत्तीसगढ़ मित्र में 6 कहानियां लिखीं। सन् 1968 में ‘सारिका’ पत्रिका द्वारा ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी को पहली कहानी घोषित किया गया, तब वे बहुत चर्चा में आए और साहित्य जगत में लंबी बहस चली। हर बड़ा लेखक आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ जरूर लिखता है।सप्रे जी ने नई पीढ़ी के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए इलाहाबाद से छपने वाली पत्रिका ‘विद्यार्थी’ में ‘जीवन संग्राम में विजय पाने के कुछ उपाय’ शीर्षक से एक लेखमाला लिखी। इस लेखमाला में 20 लेख थे।
अपने अनुवाद कर्म से उन्होंने हिंदी की दुनिया को समृध्द किया। एक अनुवादक के रूप में उनका सबसे बड़ा काम है ‘दासबोध’ को हिंदी के पाठकों को उपलब्ध कराना। नागपुर जेल से मुक्ति के बाद सप्रे जी 1909 के आरंभ में वर्धा के पास हनुमानगढ़ में संत श्रीधर विष्णु पराजंपे से दीक्षा लेते हैं और उनके आश्रम में कुछ समय गुजारते हैं। इसके पश्चात गुरू आज्ञा से उन्होंने मधुकरी करते हुए दासबोध के 13 पारायण किए और रायपुर में रहते हुए उसका अनुवाद किया। समर्थ गुरू रामदास रचित ‘दासबोध’ एक अद्भुत कृति है, जिसे पढ़कर भारतीय परंपरा का ज्ञान और सामाजिक उत्तरदायित्व के भाव दोनों से परिचय मिलता है। इसके साथ ही सप्रे जी ने ‘महाभारत मीमांशा’ का अनुवाद भी किया। यह ग्रंथ चिंतामणि विनायक वैद्य द्वारा रचित महाभारत के ‘उपसंहार’ नामक मराठी ग्रंथ का अनुवाद था। लोकमान्य तिलक जिन दिनों मांडले जेल में थे, उन्होंने कारावास में रहते हुए ‘गीता रहस्य’ की पांडुलिपि तैयार की। इसका अनुवाद करके सप्रे जी ने हिंदी जगत को एक खास सौगात दी। इसके साथ ही उन्होंने ‘शालोपयोगी भारतवर्ष’ को भी मराठी से अनूदित किया। सप्रेजी ने 1923-24 में ‘दत्त-भार्गव संवाद’ का अनुवाद किया था जो उनकी मृत्यु के बाद छपा। उनका एक बहुत बड़ा काम है काशी नागरी प्रचारणी सभा की ‘विज्ञान कोश योजना’ के तहत अर्थशास्त्र की मानक शब्दावली बनाना। जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदी में अर्थशास्त्रीय चिंतन की परंपरा प्रारंभ सप्रे जी ने ही किया।
उनकी 153वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमें यह ध्यान रखना है कि सप्रे जी का योगदान लगभग उतने ही महत्त्व का है, जितना भारतेंदु हरिश्चंद्र या महावीर प्रसाद द्विवेदी का। लेकिन इन दोनों की तरह सप्रे जी की परिस्थितियां असाधारण हैं। उनके पास काशी जैसा समृद्ध बौद्धिक चेतना संपन्न शहर नहीं है ना ही ‘सरस्वती’ जैसा मंच। सप्रे जी ने बहुत छोटे स्थान पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रारंभ करते हैं और बाद में नागपुर से ‘हिंदी केसरी’ निकालते हैं। 23 अप्रैल,1926 में उनका निधन हो जाता है। बहुत कम सालों की जिंदगी जीकर वे कैसे खुद को सार्थक करते हैं, सब कुछ सामने है। माधवराव सप्रे जैसे महानायक की स्मृतियां आज भी हमारा संबल बन सकती हैं। अपने सुखों का त्यागकर वे पूरी जिंदगी भारत मां और उसके पुत्रों के लिए कई मोर्चों पर जूझते रहे। ऐसे महान भारतपुत्र को शत्-शत् नमन।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी), नयी दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)