विगत अंक में हमने जाना था, कि भगवान शंकर आदिशक्ति सतीजी के साथ, अगस्त्य मुनि जी के आश्रम से वापिस कैलाश की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। लेकिन यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी ने सतीजी के लिए जो शब्द प्रयोग किए, वे उनके दैवीय प्रभाव के अनुकूल नहीं थे। कारण कि, भगवान शंकर जब अगस्त्य मुनि के आश्रम में गये थे, तो गोस्वामी जी सतीजी के लिए ‘जगत जननी’ जैसे पूजनीय शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं-
‘संग सती जगजननि भवानी।
पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।’
वहीं जब सतीजी, जब अगस्त्य मुनि के आश्रम से वापिस कैलास को जाने लगीं, तो गोास्वामी जी इन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं-
‘मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।
चले भवन सँग दच्छकुमारी।।’
अर्थात भगवान शंकर के साथ अब जगत जननी नहीं, अपितु दक्षसुता जा रही हैं।
गोस्वामी जी के इन शब्दों के अर्थ बड़े मार्मिक हैं। आखिर क्या ही अंतर पड़ जायेगा, अगर भगवान शंकर की पत्नी कहने की बजाये, दक्ष कन्या कह दिया जायेगा? यह समझने के लिए हमें देवतायों के गुरु प्रजापति दक्ष की, भगवान शंकर जी के प्रति भावना देखनी पड़ेगी। यह वही दक्ष हैं, जिन्होंने सतीजी को भगवान शंकर के साथ परिणय सूत्र में बँधने में लाख रोड़े अटकाये थे। यह वही दक्ष हैं, जिन्होंने कहा था, कि भगवान शंकर में कोई गुण नहीं, वे निर्गुणी हैं। मैं उन्हें देवों के देव मानने के लिए सहमत नहीं हूं। भगवान तो उन्हें मैं किसी भी आधार पर नहीं मान सकता।
प्रश्न उठता है, कि पिता दक्ष के इतना विरोध करने पर भी, सतीजी ने भगवान शंकर को ही पति रुप में क्यों चुना। कारण स्पष्ट था, कि सतीजी शिवजी को केवल एक अघौड़ी नहीं, बल्कि भगवान मानती थी। दक्ष का स्वभाव है, कि वह भगवान शंकर से विपरीत चलता है। वहीं सतीजी का मत ही यह है, कि वह सदा भगवान शंकर के मतानुसार चले।
भगवान शंकर जब सतीजी को अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में लेकर चलते हैं, तो साथ मे सतीजी भी बड़े चाव से उनके आश्रम चलती हैं। उनके मन में अगस्त्य मुनि के प्रति श्रद्धा, सम्मान व प्रेम सब कुछ है। यहाँ सतीजी के हृदय के भाव भगवान शंकर से पूर्णतः मेल खाते हैं। इसीलिए गोस्वामी जी कह रहे हैं, कि भगवान शंकर के साथ जगत जननी भी हैं। लेकिन अवश्य ही अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में ऐसा कुछ तो घटा है, कि सतीजी न ही तो अगस्त्य मुनि जी के मुख से प्रस्फुटित हो रही श्रीराम कथा सुनती हैं, और न ही उतने दिन उनका मन आश्रम में लगता है। सतीजी को कोई वास्ता ही नहीं था, कि अगस्त्य मुनि कथा में क्या प्रसंग कह रहे हैं, या क्या कहना चाह रहे हैं। उन्हें तो मानों तब तक आश्रम में रुकना था, जब तक भगवान शंकर आश्रम में रुके हैं।
ऐसा नहीं कि सतीजी अगस्त्य मुनि के समक्ष कथा सुनने के लिए, भगवान शंकर के साथ नहीं बैठती थी। बैठती तो थी, लेकिन उनका मन कहीं ओर विचरण करता रहता था। दूसरी ओर भगवान शंकर श्रीराम जी की कथा श्रवण करते-करते, कितने ही बार रो भी पड़ते थे। सतीजी भी भगवान शंकर को यूँ रोते देखती, तो सोचती, कि इसमें भला रोने वाली क्या बात है? क्या कोई कहानी सुन कर भी रोता है? लेकिन भगवान शंकर जैसे-जैसे कथा सुनते, उनका हृदय श्रीराम जी के दर्शनों को लेकर और व्यग्र हो उठता। उनका रोम-रोम प्रभु के श्रीचरणों में नमस्कार करने हेतु ललायत होने लगाता। फिर ऐसा नहीं कि भगवान शंकर केवल कथा का रसपान ही करते रहते, वे अपना स्वयं का भी कोई अनुभव साँझा करते। जिसे अगस्त्य मुनि भी बड़े चाव से सुनते। मुनि और शिवजी दोनों ही इस पावन घड़ी का दिल भर कर आनंद ले रहे थे। लेकिन एक सतीजी ही ऐसी थी, जो तन से तो पूरे समय वहाँ पर उपस्थित थी, लेकिन मन से वे एक क्षण भर के लिए भी कथा में उपस्थित नहीं होती थी। उन्हें तो बस यही चिंता खाये जा रही होती थी, कि मुनि कथा को कहीं और अधिक लंबा न खींच दें। अब इतने दिन तो हो गये हैं इनके आश्रम आये, आगे पता नहीं कब तक यहाँ रुकना होगा। समस्या यह है, कि भगवान शंकर को कह भी तो नहीं सकते, कि अब बहुत हो गया। और कितनी कथा सुननी बाकी है? हम घर कब चलेंगे? सतीजी मन मार कर आश्रम में रह रही थी। बाकी कथा से मानों उनका कोई लेना देना नहीं था।
अब इसके पीछे कारण क्या था, कि सतीजी का मन श्रीराम कथा से इतना उचाट था? तो संतों के श्रीमुख से सुना है, कि सतीजी में वैसे तो भगवान शंकर जी की भक्ति के भाव कूट-कूट कर भरे हैं। वे उनके हर वाक्य को ब्रह्म वाक्य मानती थी। अगस्त्य मुनि जी की के प्रति सतीजी की जो दैवीय भावना बनी थी, कि मुनि उच्च कोटि के महापुरुष हैं, यह भावना भी उनकी शिवजी के मुख से प्रशंसा सुन-सुन कर ही बनी थी। लेकिन विड़म्बना कि सतीजी जी की यह भावना उसी समय धूमिल हो गई थी, जब उन्होंने अगस्त्य मुनि के आश्रम में अपने चरण रखे थे।