प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं —
त्रयो न्याया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।
कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ॥
विदुर जी कहते हैं, हे भरतश्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि के लिये उत्तम, मध्यम और अधम—ये तीन प्रकार के न्यायोचित उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान् जानते हैं॥
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः ।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रिविधेष्वेव कर्मसु ॥
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राजन् ! उत्तम, मध्यम और अधम— ये जो तीन प्रकारके पुरुष होते हैं, इनको यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मोमें लगाना चाहिये ।।
त्रय एवाधना राजन्भार्या दासस्तथा सुतः ।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ॥
राजन् ! धन के तीन अधिकारी माने जाते हैं। स्त्री, पुत्र तथा दास और ये जो कुछ भी धन कमाते हैं, वह धन भी उसी का होता है जिसके अधीन ये रहते हैं।
हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।
सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषा क्षयावहः ॥
जो दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग करता है वह निश्चित ही विनाश को प्राप्त हो जाता है।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
काम, क्रोध और लोभ- ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं, अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिये ।।
भक्तं च बजमानं च तवास्मीति वादिनम् ।
त्रीनेतान् शरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत् ॥
भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले, इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्यों को संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये।।
चत्वारि राज्ञा तु महाबलेन वर्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात् ।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कुर्यान् न दीर्घसूत्रैरलसैश्चारणैश्च ॥
अल्प बुद्धिवाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाजी में काम करने वाले और स्तुति तथा जी हजूरी करने वाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। बुद्धिमान राजा इन चारों को त्याग देता है । विद्वान् पुरुष ऐसे लोगों को पहचान लेते हैं।
चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थ धर्मे ।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ॥
तात ! गृहस्थ-धर्म में रहने वाले सज्जन लोग इन चार प्रकार के मनुष्यों को अपने घर में सदा रखते हैं । अपने कुटुम्ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्च कुल का व्यक्ति , धनहीन मित्र और बिना सन्तान की बहन, इन्हे अपने से दूर नहीं करना चाहिए।
चत्वार्याह महाराज सद्यस्कानि बृहस्पतिः ।
पृच्छते त्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे ॥
महाराज ! इन्द्र के पूछने पर देवगुरु बृहस्पतिजी ने जिन चारों को तत्काल फल देने वाला बताया था, उन्हें आप मुझसे सुनिये- ॥
देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च धीमताम् ।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम् ॥ ७७ ॥
देवताओं का सङ्कल्प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता और पापियों का विनाश ये चारों अपना फल तत्काल देते है।
चत्वारि कर्माण्यभयङ्कराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रं उत मानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ॥
चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किन्तु वे ही यदि ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं-आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान।
पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्याः प्रयत्नतः ।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥
हे भरतश्रेष्ठ ! पिता, माता, आत्मा गुरु, और मनुष्य को इनको पंचाग्नि की संज्ञा दी गई है। जी-जान से इनकी सेवा करनी चाहिये
पञ्चैव पूजयँल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान्पितॄन्मनुष्यांश्च भिक्षूनतिथिपञ्चमान् ॥
देवता, पितर, मनुष्य, संन्यासी और अतिथि- इन पाँचों की पूजा करने वाला मनुष्य शुद्ध यश प्राप्त करता है।
पञ्च त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि ।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ॥
राजन् ! आप जहाँ-जहाँ जायँगे वहाँ-वहाँ मित्र- शत्रु, उदासीन, आश्रय देने वाले तथा आश्रय पाने वाले – ये पाँचों आप के पीछे लगे रहेंगे अत: हमें सतर्कता बरतनी चाहिए।
पञ्चेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।
ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम् ॥
इंद्रियों की महत्ता बताते हुए महात्मा विदुर जी कहते हैं– पाँच ज्ञानेन्द्रियों वाले पुरुष की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष) युक्त हो जाय तो उससे उसकी बुद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेद से पानी ॥
षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्री भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥
मनुष्य के भीतर छ: दोष होते हैं । ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले व्यक्ति को नींद, तन्द्रा (ऊँघना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घ सूत्रता (जल्दी हो जाने वाले काम में अधिक देर लगाने की आदत)-इन छः दुर्गुणों को त्याग देना चाहिये ॥