आम आदमी पार्टी को अपवाद मान लीजिए तो दस वर्षों के दौरान भाजपा के नरेंद्र मोदी युग में कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय दलों का जनाधार कम हुआ है और संसद/विधानसभाओं में सीटे बहुत कम बची हैं। बसपा का सार्वाधिक नुकसान हुआ। दो दशकों तक यूपी में टॉप थ्री रहने वाली बसपा दस वर्षों से हाशिए पर है और विधानसभा की एक सीट मे सिमट गई। हालिया ओपिनियन पोल बताता है कि बसपा आगामी लोकसभा चुनाव में सिर्फ पांच फीसद में सिकुड़ सकती है। पार्टी के सांसद एक-एक कर साथ छोड़ कर जा रहे हैं।
बावजूद इसके पार्टी सुप्रीमों मायावती का सियासी रसूख क़ायम है। राजनीति में बसपा की प्रासंगिकता साफ दिखाई देती है। सियासत के जानकारों की माने तो मायावती जीरो सीट पर भी आकर किसी दूसरे दल का हित या अनहित करने का हुनर रखती हैं। कहा जाता है कि बसपा का जीरो इकाई को दहाई और दहाई को सैकड़ा बना देता है। विपक्षी दल अक्सर आरोप लगाते हैं कि मायावती के साइलेंट सपोर्ट ने ही भाजपा को बेहद मजबूत किया है। कुछ राजनीतिक पंडितों का ये भी कहना है कि फर्श से अर्श पर आने के लिए मायावती गेम चेंजर बन सकती हैं। ताजुब नहीं कि उनको प्रधानमंत्री का चेहरा बनाकर इंडिया गठबंधन कई शक्तियां प्राप्त कर ले। देश के दलित समाज का दिल जीतने के साथ सियासत में महिलाओं को मौका देने की रेस में विपक्षी समूह बाजी मार सकता है। और यदि विपक्षियों के ये आरोप सच हैं कि मायावती अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को ताकतवर बनाती हैं तो मायावती को भाजपा के खिलाफ प्रधानमंत्री का चेहरा बनाने से भाजपा को ताकत देने वाली बसपा की अदृश्य डोर भी टूट जाएगी। भाजपा के विश्वास से जुड़ चुका अच्छा खासा दलित समाज घर वापसी कर लेगा।
भाजपा की ताकत के आगे ढीला-ढाला, कन्फ्यूज और आपसी सामंजस्य में कमजोर इंडिया गठबंधन अभी तक तो काफी कमजोर सा दिख रहा है। संयोजक कौन होगा ? प्रधानमंत्री का चेहरा पेश होगा या नहीं। होगा तो कौन होगा ! चेहरा पेश नहीं होना है तो मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का चेहरा पेश करने का प्रस्ताव क्यों रखा !और इसपर भी आधी-अधूरी सहमति बनी। और तो और खड़गे खुद ही इस प्रस्ताव पर राज़ी नहीं हुए।
लोकसभा चुनाव का आखिर मुख्य मुद्दा क्या होगा ? मंहगाई बेरोजगारी या जाति जनगणना ? अभी फिलहाल तो किसी भी मुद्दे पर एकजुट होकर इंडिया के साथी जमीनी संघर्ष करते नजर नहीं आ रहे हैं। चुनाव मंडल वर्सेज कमंडल के माहौल का रंग ले ले तो इंडिया गंठबंधन की ताकत बढ़ सकती है। किंतु ऐसा इसलिए मुश्किल है क्योंकि नरेंद्र मोदी-और योगी आदित्यनाथ वाली भाजपा के वर्तमान युग ने मंडल-कमंडल दोनों का ही भगवाकरण कर दिया है। दिव्य और भव्य राममंदिर हो या लाभार्थी वर्ग में दलितों -पिछड़ों की बहुतायत वाला भाजपा का हर फेक्टर जातियों को हिन्दुत्व के बंधन में बांध कर सोशल इंजीनियरिंग के हर हुनर पर काम कर रहा है। सामाजिक न्याय, जाति जनगणना जैसे मुद्दों को उकेरने और गैर एनडीए देश के लगभग सभी दलों को इंडिया गठबंधन की ताकत बनाने का एक माकूल रास्ता भाजपा विरोधियों को अभी ही अप्रत्याशित ताकत दे सकता है।
बसपा सुप्रीमो मायावती को यदि प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने की पेशकश के साथ बसपा सुप्रीमो को साथ आने की खुली दावत दी जाए तो विपक्षियों के दोनों हाथों में लड्डू आ सकते हैं। वो आ गईं तब तो देश की सबसे बड़ी दलित नेत्री के सहारे इंडिया भाजपा को पसीने छुड़ा सकता है। फिर भी बहन जी नहीं आईं तो दलित समाज को एहसास दिलाया जा सकता है कि भाजपा की बी टीम बनने की मजबूरी में उन्होंने दलित सम्मान का सबसे बड़ा अवसर गवां दिया। ऐसे में भले ही बसपा लोकसभा में कितने भी मुस्लिम प्रत्याशी उतार दे पर मुस्लिम समाज बसपा को सिरे से नकार कर बिखराव से बचेगा और इंडिया गठबंधन की एकमुश्त ताकत बन सकता है।
बसपा समर्थों की मानें तो यदि मायावती को इंडिया गठबंधन और प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाने का प्रस्ताव रखा गया तो ये प्रस्ताव बहन जी स्वीकार होगा। ऐसे में चंद्रशेखर आजाद, ओमप्रकाश राजभर और पिछड़ी जातियों की राजनीति पर आधारित तमाम छोटे दल इंडिया के छाते के नीचे आ सकते हैं। भाजपा और एनडीए के घटक दलों के टिकट कटने पर दलित-पिछड़े बगावत करके इंडिया में शामिल हो सकते हैं। यूपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे हिन्दी पट्टी के राज्यों में भाजपा को कमजोर किया जा सकता है। देश में बड़ी आबादी वाली दलित समाज की जो आधे से ज्यादा तादाद भाजपा के विश्वास से जुड़ी है वो मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश में सत्ता परिवर्तन का मन बना सकती है।
लोकसभा चुनाव से पहले सियासी ऊंट किस करवट बैठता है, इस कहावत में थोड़ा परिवर्तन कर कहा जा सकता है कि हाथी की करवट बताएगी कि एनडीए -इंडिया में कौन किस पर भारी पड़ेगा !