साम्प्रदायिक दंगे एकता स्थापित करते हैं !
नवेद शिकोह। फ्री वाली फ्रीलांसिंग के दौरान बेरोज़गारी का दौर चल रहा था। नौकरी की तलाश के दौरान अर्से बाद सुनने में आया कि शुरू होने जा रहे एक न्यूज़ चैनल में नौकरी के लिए इंटरव्यू हो रहा है। यहां सोर्स-सिफारिश के बिना योग्यता के आधार पर पत्रकारों की भर्तियां होनी थी। नई पीढ़ी को तो शायद पता भी नहीं हो कि हमारे ज़माने में नौकरियां निकलती थीं, इंटरव्यू और परीक्षाएं होती थीं। लगा मुद्दतों बाद मेरा ज़माना लौट आया। जितने अर्से बाद कुंभ का मेला होता है उतनी ही लम्बे समय बाद नौकरी के लिए इंटरव्यू होने की ख़बर सुन कर मैं उत्साह से भर गया। आखिर वो मुबारक दिन आ गया, इतनी भीड़ थी कि लगा कि कुंभ का मेला शुरू हुआ है। मेरा नंबर तीसरे दिन था, लेकिन रोज इंटरव्यू स्थल पर बैठ कर अभ्यर्थियों से पूछता था क्या-क्या पूछा जा रहा है। सब कहते थे कि सबसे दंगे पर राय मांगी जा रही है। दंगों हो तो हम कैसे रिपोर्टिंग करें जिससे दंगे भड़के नहीं और माहौल सुधरे।
ये सुन कर मैं पक्के तौर ये समझ गया कि ये चैनल तो शुरू होने से पहले ही बंद हो जाएगा। फिर भी मैंने ठान लिया कि ट्राई तो ज़रूर करूंगा। अब दिमाग में चलने लगा कि कुछ ऐसा जवाब दूं जो इस भीड़ के जवाब से अलग हो।
आख़िरकार मेरे इंटरव्यू का नंबर आया। मुझसे वही पूछा गया जो सब से पूछा जा रहा था। दंगे समाज के लिए कितने हानिकारक हैं। दंगों की आग भड़के नहीं इसलिए इसकी रिपोर्टिंग में आप क्या एहतियात बरतेंगे ?
मैंने पहले प्रश्न ही ऐसा दिया कि सबके होश फाख्ता हो गए-
दंगा समाज के लिए हानिकारक है पर इसके फायदों पर कोई ग़ौर नहीं करता।
इंटरव्यू लेने वाले एक शख्स ने कहा- क्या आप सियासी फायदे की बात कर रहे हैं !
मैंने कहा नहीं।
दंगे साम्प्रदायिक सौहार्द बढ़ाते है। जब हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं तो हिन्दू समाज में जातियों के भेद समाप्त हो जाते हैं। आपस में एकता स्थापित हो जाती है। हिन्दू जाग जाता है और एक हो जाता हे।
इसी तरह हिंदू-मुस्लिम तनाव के बीच मुस्लिम समाज में मसलकों के बीच दूरियां मिट जाती हैं। शिया-सुन्नी मतभेदों पर विराम लग जाता है।
दोनों धर्मों के इन-हाउस झगड़े के थमते ही इन-हाउस सौहार्द की बयार बहने लगती है।
मैंने अपनी पत्रकारिता का लखनवी अनुभव साझा करते हुए कहा की तहज़ीब का शहर लखनऊ दंगों का शहर भी रहा है। यहां के जबरदस्त दंगों के इतिहास के तीन दशक मेरी आंखों से गुजरे हैं। गंगा जमुनी तहज़ीब के शहर लखनऊ में जितनी शिया-सुन्नी हिंसा हुई हैं उतनी साम्प्रदायिक हिंसा हिंदू-मुस्लिम के बीच भी नहीं हुई। मोहर्रम या बारावफात के मौके पर लखनऊ और यूपी के कई हिस्सों में जान-माल का नुक़सान पहुंचाने वाले भीषण साम्प्रदायिक दंगों का काला इतिहास है। हिंदू-मुस्लिम तनाव के बीच मुसलमानों की फिरकावाराना टकराव एकता और अखंडता में तब्दील हो जाता हैं। देवबंदियों और बरेलवियों के बीच की खाई को दो धर्मों के बीच तनाव की मिट्टी पाट देती है।
इसी तरह अक्सर हिन्दू समाज में अगड़ों-पिछड़ों, अगड़ों-दलितों, ठाकुरों-पंडितों, दलितों-यादवों के बीच मतभेदों को हिंदु-मुस्लिम तनाव खत्म कर देता है।
मुझे याद है एक ज़माने में पत्थरबाजी की परंपरा शिया-सुन्नी दंगों में शुरू हुई थी। सुन्नियों का आरोप था कि शिया अपनी मजलिसों-जुलूसों में हमारे जज्बातों को आहत करने वाली बात करते हैं। जब शिया जुलूस निकालते थे तो सुन्नी पत्थरबाजी करने लगते थे। (जैसा कि शियों का आरोप था)
ये राहत की बात है कि अब इनके बीच आपसी पत्थरबाजी बंद हो गई है। आजकल शिया-सुन्नी भाई-भाई.. मुसलमानों मुत्तहिद (एकता स्थापित करो) हो.. जैसे नारे लग रहे हैं।
हिंदू-मुस्लिम के बीच सौहार्द होने पर सौहार्द्र के तमाम मोती बिखर जाते हैं। सनातनियों की दर्जनों जातियों, वर्णों, वर्गों के बीच तकरार शुरू हो जाती है। इधर मुसलमान अलग बिखर जाता है। शिया सुन्नी तो छोड़िए सुन्नी-सुन्नी और शिया-शिया के बीच भी फिरक़े और गुट हो गए हैं।
इसलिए यदि एक तनाव पचास तनावों को रोके तो क्या बुरा है !
इंटरव्यू लेने वाले एक शख्स ने पूछा- सभी धर्मों, मज़हबों, जातियों, मसलकों के लोग बिना लड़े सौहार्द से नहीं रह सकते क्या ?
मैंने कहा- नहीं, उत्सर्जन को उत्सर्जित होने का कोई एक रास्ता तो चाहिए ही। नफरत कहीं न कहीं से निकलती है, कभी धार्मिक संकीर्णता से तो कभी जातिवाद के रास्ते।
हमारें संस्कारों मे़ कमी है। टीवी मीडिया का नफरती माहौल हमारे संस्कारों में शामिल हो गया है। सोशल मीडिया और टीवी चैनलों के नफरती माहौल ने हमारे अंदर नफरत का वायरस डाल दिया है। वो फूटता रहता है और हम धर्म-जाति की संकीर्णता के गिरफ्त में आ जाते हैं। जो दूसरे धर्म वालों से नफ़रत करता है, उनके ऐब खोजता है वही एक वक्त के बाद अपने ही धर्म के भीतर जातिवाद का ज़हर उगलता है।
हमारे संस्कारों में मोहब्बत और इंसानियत का धर्म पैदा हो जाए तो कोई सियासत कोई टीवी मीडिया, कोई व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी हमारी नई पीढ़ी में धर्म-जाति का ज़हर नहीं घोल सकती है।
इस इंटरव्यू में मेरी लम्बी गुफ्तगू रिकार्ड हो रही थी। मेरा सलेक्शन हो गया। मेरे विचारों की क्लिपिंग को चैनल का प्रोमों बनाया गया और चैनल शुरू होने से पहले ही बंद हो गया।