सिर्फ महानिर्वाणी अखाड़े के महंत को पता है भस्म रमाने की विधि

ज्योतिर्लिंग महाकाल मंदिर में भस्मारती की परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। सत्यम, शिवम सुंदरम की अवधारणा को प्रतिपादित करती इस परंपरा का मुख्य आधार ब्रह्म परम सत्य है और जगत मिथ्या है। तात्पर्य यह कि जगत का अंतिम सत्य भस्म है। नश्वर संसार में सब कुछ नष्ट हो जाता है। शिव इसी सत्य को स्वीकार कर भस्म रमाते हैं।

महानिर्वाणी अखाड़े के महंत विनीतगिरी महाराज के अनुसार भस्म बनाने से रमाने तक की संपूर्ण प्रक्रिया वैदिक व गोपनीय है। परिसर स्थित ओंकारेश्वर मंदिर के पीछे भस्मी कक्ष में अखंड धूना प्रज्जवलित है। इस धूने में प्रतिदिन औषधि मिश्रित गाय के गोबर से निíमत कंडों को जलाकर भस्म तैयार की जाती है। इस भस्म को कपड़े से छाना जाता है। सुबह भस्मारती के समय भस्म को गर्भगृह में ले जाया जाता है। भगवान को वैदिक मंत्रों के द्वारा भस्म रमाई जाती है।

शिवलिंग पर किस मंत्र के माध्यम से, किस ओर भस्म रमाई जाएगी इसका पूरा विधान गोपनीय है। इस गोपनीय प्रक्रिया को महाकाल मंदिर समिति महानिर्वाणी अखाड़े के महंत अपने प्रतिनिधि को सिखाते हैं। इसके अतिरिक्त यह शिक्षा कहीं ओर नहीं दी जाती है। अखाड़े की परंपरा अनुसार गादीपति महंत भगवान महाकाल को भस्म रमाते हैं, या फिर उनके प्रतिनिधि (वर्तमान में महंत विनीतगिरी महाराज) भगवान को भस्म अर्पित करते हैं। इसके अलावा उनके प्रतिनिधि गणोशपुरी महाराज यह दायित्व निभा सकते हैं।

अर्धनारीश्वर, गणोश तथा कृष्ण रूप में भी होते हैं दर्शन: मंदिर के पुजारी प्रदीप गुरु के अनुसार भगवान महाकाल का रूप पुजारी के मनोभाव तथा पर्व व त्योहारों के अनुसार निखरता है। भगवान अवंतिकापुर के राजा हैं इसलिए आमतौर पर उन्हें राजाधिराज के रूप में श्रृंगारित किया जाता है। श्रृंगार करने वाले पुजारी भांग से मुखाकृति बनाकर सूखे मेवे से श्रृंगारित करते हैं, भगवान का यह रूप राजा की तरह नजर आता है। इसके अलावा जन्माष्टमी पर भगवान श्रीकृष्ण, चतुर्थी पर गणपति, मास शिवरात्रि पर अर्धनारीश्वर, सोमवार को चंद्र, रविवार को सूर्य रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं।

शिवनवरात्रि में यह रूप विशेष: शिवनवरात्रि के नौ दिन भगवान का शेषनाग, घटाटोप, छबीना, होल्कर, मनमहेश, उमा-महेश, शिव तांडव तथा महाशिवरात्रि की रात सप्तधान रूप में श्रृंगार किया जाता है। यह सभी मुखोटे चांदी से निíमत हैं।तीन किलो भांग से होता है श्रृंगार : नित्य संध्या को भगवान महाकाल के भांग श्रृंगार में तीन किलो भांग का उपयोग होता है।

महाशिवरात्रि पर सवा मन फूलों का सेहरा सजता है: महाकालेश्वर मंदिर की पूजन परंपरा अनूठी है। इस मंदिर में प्रतिदिन होने वाली पांच आरती में भगवान के श्रृंगार की परंपरा है। पुजारी प्रत्येक आरती से पहले चंदन, कुमकुम, भांग व सूखे मेवे से भगवान का दिव्य स्वरूप में श्रृंगार करते हैं। पर्व, त्योहार तथा वार के अनुसार भगवान का श्रृंगार किया जाता है। इसके अलावा शिवनवरात्रि के नौ दिनों में भगवान का चांदी के मुखारविंदों से दूल्हा रूप में श्रृंगार किया जाता है। भगवान महाकाल के श्रृंगार में शिव सहस्त्रनामावली में उल्लेखित रूपों का समावेश भी किया जाता है। इसके लिए चांदी के मुखारबिंदों का उपयोग होता है। महाशिवरात्रि पर रात्रि पर्यंत पूजा के बाद तड़के चार बजे भगवान के शीश सवा मन फूल, फल से बना सेहरा सजाया जाता है। महाशिवरात्रि के तीन दिन बाद चंद्र दर्शन की दूज पर साल में एक बार भगवान पंच मुखारविंद रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं।

महाकाल मंदिर के पुजारी पं. महेशने बताया कि भगवान महाकाल के श्रृंगार की परंपरा पुरातन है। पुजारी मन के भाव व हाथों की कुशलता से भगवान महाकाल को निराकार से साकार रूप प्रदान करते हैं। श्रृंगार में केसर, चंदन, भांग, सूखे मेवे, वस्त्र,आभूषण आदि का उपयोग होता है। शिवनवरात्रि में चांदी के मुखोटे व ऋतु अनुसार फल, फूल श्रृंगार सामग्री का हिस्सा होते हैं। महाशिवरात्रि के बाद दूज पर भगवान का एक साथ पांच रूप में श्रृंगार किया जाता है।

परंपरा अनुसार भस्म रमाते समय महिलाएं निकालती हैं घूंघट: महाकाल मंदिर में प्रतिदिन तड़के चार बजे भस्मारती के रूप में मंगला आरती होती है। इसे भस्मी स्नान भी कहा जाता है। यही वह पल है, जब आरती दर्शन करने वाली महिलाएं घूंघट निकाल लेती हैं। मान्यता है कि भस्म रमाते समय महाकाल दिगंबर रूप में रहते हैं। भगवान के दिगंबर रूप के दर्शन महिलाओं के लिए वर्जति हैं। भगवान को भस्म अर्पित करने के बाद भांग व चंदन से श्रृंगार कर उन्हें नवीन वस्त्र, आभूषण धारण कराकर आरती की जाती है। सुबह भोग, शाम संध्या तथा रात को शयन आरती के दौरान श्रृंगार होता है।

 

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