निजीकरण के दर्जनों प्रस्तावों पर विचार की तैयारी, जानिए किन पर है पहले फोकस

केंद्र सरकार अगले वित्त वर्ष के दौरान दर्जनों सरकारी कंपनियों के निजीकरण पर विचार करने वाली है। मामले से जु़ड़े दो सूत्रों ने बताया कि नीति आयोग को निजीकरण के लायक सरकारी कंपनियों की पहली सूची तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसके तहत उन कंपनियों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा जो कोर सेक्टर की नहीं हैं और लाभ कमा रही हैं। लाभ में होने की वजह से इन कंपनियों को खरीदार भी मिलेंगे और अच्छी कीमत भी मिलेगी।

एक सूत्र ने कहा कि लाभ कमा रही कंपनियों से शुरुआत करने का मकसद यह है कि निवेशक सरकार की रणनीतिक विनिवेश प्रक्रिया में रुचि लेने लगें। घाटे में चल रही कंपनियों को बाद में निजीकरण के लिए उतारा जाएगा। सूत्रों के मुताबिक निजीकरण के लिए तैयार कंपनियों की पहली सूची में दो सरकारी बैंकों का भी नाम शामिल रह सकता है। ये दोनों भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के प्रांप्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) दायरे से मुक्त हो चुके बैंक होंगे।

इसके साथ ही इनमें एक गैर-जीवन बीमा कंपनी, सेल के भद्रावती और सालेम संयंत्र, सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स, सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, एनएमडीसी का नगरनार स्टील संयंत्र तथा भारत अर्थ मूवर्स के भी नाम शामिल हो सकते हैं।

वैसे, सूत्रों का कहना है कि कंपनियों की इस सूची में सबसे पहले उनका नाम होगा जिनकी निजीकरण प्रक्रिया चालू वित्त वर्ष (2020-21) में शुरू हो चुकी है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय कैबिनेट ने चालू वित्त वर्ष में एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल), शिपिंग कॉरपोरेशन, कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया तथा आइडीबीआइ बैंक के निजीकरण को मंजूरी दे दी थी। इनमें से कुछ कंपनियों की बिक्री प्रक्रिया विशिष्ट चरणों में है।

बैंकों के निजीकरण से सर्विस चार्ज बढने की आशंका

ऑल इंडिया नेशनलाइज्ड बैंक्स ऑफिसर्स फेडरेशन (एआइएनबीओएफ) ने सरकारी बैंकों के निजीकरण का विरोध किया है। फेडरेशन का मानना है कि इससे सर्विस चार्ज में बढोतरी होगी और बैंकिंग सेवा आम लोगों की पहुंच से दूर होती चली जाएगी। एक बयान में एआइएनबीओएफ ने कहा कि निजीकरण का प्रभाव मुख्य रूप से आम आदमी पर ही पडेगा, क्योंकि लाभ के उद्देश्य के सामने सामाजिक जिम्मेदारी कहीं गुम हो जाएगी।

अपने बयान में एआइएनबीओएफ का कहना था कि निजीकरण के बाद बैंक सेवा शुल्क (सर्विस चार्ज) बढा देंगे। जो ग्राहक यह बढा हुआ शुल्क देने की क्षमता रखेंगे, केवल उन्हीं को सेवा दी जाएगी। इससे बैंकिंग सेवा आम लोगों से दूर होती चली जाएगी और बैंको के राष्ट्रीयकरण के मूलभूत उद्देश्य धूमिल हो जाएंगे। फेडरेशन के मुताबिक पिछली सदी के आखिरी दशक में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के समय भी सरकारी बैंकों के निजीकरण की कोशिश हुई थी। लेकिन उसके बाद की सरकारों की ऐसी सभी कोशिशें विफल रहीं। वर्ष 1991 में बाद अस्तित्व में आए अधिकतर निजी बैंक अब बंद हो चुके हैं।

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