सर्दी का मौसम आने के साथ हर साल भारत के गंगा मैदान क्षेत्र के अधिकांश हिस्से घने कोहरे और धुंध से घिर जाते हैं। खासकर दिसंबर और जनवरी के महीनों में कोहरे और धुंध का बहुत अधिक असर होता है। घने कोहरे की वजह से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हवाई यात्रा और सड़क परिवहन बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इसके कारण भारी आर्थिक क्षति होती है और जनजीवन खतरे में पड़ जाता है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-मद्रास के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में पाया है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में कोहरे और धुंध की वजह से पार्टिकुलेट मैटर में सबसे अधिक हिस्सा अकार्बनिक क्लोराइड का होता है। यह अध्ययन एक प्रतिष्ठित पीयर-रिव्यू इंटरनेशनल जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित किया गया है।
पिछले कई अध्ययनों ने पीएम2.5 (2.5 माइक्रोमीटर से कम व्यास वाले पार्टिकुलेट मैटर या एयरोसोल) को प्रमुख प्रदूषक माना है। इस वजह से दिल्ली समेत पूरे भारतीय-गंगा मैदानी क्षेत्र में कोहरे और धुंध बनते हैं। हालांकि, पीएम 2.5 की भूमिका और राष्ट्रीय राजधानी में धुंध और कोहरा छाने के विस्तृत रासायनिक विवरण को समझने में कमी रह गई थी। और यह कमी हवा की गुणवत्ता और दृश्यता मे सुधार की कारगर नीतियां बनाने में सबसे बड़ी बाधा थी। नए अध्ययन से कोहरा बनने की रासायनिक प्रक्रिया में पीएम 2.5 की सटीक भूमिका के बारे में हमारी समझ बहुत बढ़ी है, जिससे नीति निर्माताओं को दिल्ली में हवा की गुणवत्ता और दृश्यता में सुधार के लिए बेहतर नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।
ये हैं वजह
यह अध्ययन इस बात की जानकारी देता है कि दिल्ली के अंदर पीएम2.5 की मात्रा में उच्च क्लोराइड का स्रोत क्या है। साथ ही यह भी बताता है कि धुंध और कोहरा बनने और दृश्यता में कमी में इसकी कितनी भूमिका है। अध्ययन बताता है कि उच्च पीएम 2.5 और इसके कारण जाड़े की ठंडी रातों में दिल्ली में धुंध और कोहरा बनने की मुख्य वजह हाइड्रोक्लोरिक एसिड (एचसीएल) की रासायनिक प्रतिक्रियाएं हैं। यह एसिड प्लास्टिक युक्त कचरा जलने और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाओं से सीधे वातावरण में उत्सर्जित होता है। हालांकि, इससे पूर्व भी शोधकर्ताओं ने पीएम 2.5 में क्लोराइड की अधिक मात्रा का अवलोकन किया, पर यहां सवाल उठता है कि क्लोराइड की अधिकता के संभावित स्रोत क्या हैं और क्या यह धुंध और कोहरा बनने के लिए जिम्मेदार है?
अध्ययन का नेतृत्व आईआईटी मद्रास ने किया है। इसमें मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री, जर्मनी, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, यूएसए, जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, यूएसए और मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी, यूके का सहयोग रहा है।
ऐसे की गई स्टडी
वैज्ञानिकों और विद्यार्थियों के एक समूह ने दिल्ली में पीएम 2.5 की रासायनिक संरचना और अन्य महत्वपूर्ण गुणों के साथ दिल्ली की सापेक्ष आर्द्रता और तापमान को मापने के लिए अत्याधुनिक उपकरण लगाए, जो पूरे एक महीने 24 घंटे अत्यंत सावधानी और विशिष्ट विशेषज्ञता के साथ संचालित किए गए। इससे आए निष्कर्ष शोधकर्ताओं के लिए आश्चर्यजनक थे और इस तरह पीएम 2.5 में क्लोराइड की अधिकता का रहस्य सामने आया। दिल्ली में धुंध और कोहरा बनने में इसकी सटीक भूमिका भी सामने आई।
अध्ययन का नेतृत्व करने वाले डॉ सचिन एस. गुंथे ने कहा कि अध्ययन के दौरान एक बड़ा प्रश्न यह सामने आया कि यदि दिल्ली पर पीएम2.5 का कुल बोझ प्रदूषित मेगासिटी बीजिंग की तुलना में बहुत कम है तो दिल्ली में दृश्यता में कमी की इतनी बड़ी समस्या क्यों है? डॉ. सचिन ने कहा कि हमने यह महसूस किया कि दिल्ली पर पीएम 2.5 का कुल बोझ बीजिंग समेत दुनिया के अन्य प्रदूषित महानगरों की तुलना में बहुत कम है। दिल्ली के आसपास दृश्यता में कमी की वजह ‘एचसीएल’ का स्थानीय उत्सर्जन है, जिसकी बड़ी वजह प्लास्टिक-युक्त कचरे का जलना और अन्य औद्योगिक प्रक्रियाएं हैं।
आईआईटी मद्रास में केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. आर. रविकृष्ण ने कहा कि शुरू के कुछ दिनों के परिणाम देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि दिल्ली का मामला अलग है, क्योंकि दिल्ली जैसे प्रदूषित शहरी क्षेत्र में आम तौर पर यह उम्मीद होती है कि पार्टिकुलेट मैटर का सबसे बड़ा अकार्बनिक अंश सल्फेट होगा, जबकि हमने क्लोराइड को पार्टिकुलेट मैटर का उच्चतम अकार्बनिक अंश पाया।
इसलिए बनता है कोहरा
एचसीएल विभिन्न स्रोतों से निकलकर अमोनिया से जुड़ता है, जिसका इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होता है। इस तरह अमोनियम क्लोराइड (एनएच4सीएल) के संघनित होने से एयरोसोल बनते हैं और एयरोसोल कणों के जल ग्रहण करने की क्षमता बहुत बढ़ती है। इनका आकार बढ़ने के परिणामस्वरूप अंततः घना कोहरा बनता है। अगर क्लोराइड की मात्रा अधिक नहीं हो तो कोहरा बनना काफी कम हो जाएगा।
दिल्ली में इन कणों के जल ग्रहण करने की समझ बढ़ाना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका पूरे क्षेत्र की दृश्यता पर बुरा असर पड़ता है और इससे आर्थिक नुकसान और जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इस अध्ययन से एक अन्य तथ्य यह सामने आया है कि प्लास्टिक जलने से वातावरण में विषैला उत्सर्जन न केवल मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि पहली बार इस उत्सर्जन को दृश्यता और जलवायु से जोड़कर देखा गया है।
डॉ. सचिन गुंथे ने कहा कि हम प्लास्टिक के जलने को दृश्यता में कमी की बड़ी वजह मानते हैं। हमें उम्मीद है कि हमारे शोध के निष्कर्षों से नीति-निर्माताओं को उन नीतियों को अधिक सक्षमता से लागू करने और प्रभावी बनाने में मदद मिलेगी, जो प्लास्टिक और क्लोरीन के अन्य स्रोतों को खुले में जलने से रोकने के लिए पहले से मौजूद हैं।