क्या बापू विभाजन रोक सकते थे ?

के. विक्रम राव

गांधी उत्सर्ग दिवस पर विमर्श कर लें कि अगर बापू पाकिस्तान के विरोध में आमरण अनशन पर बैठ जाते तो ? विभाजन टल जाता, भले ही रुक न पाता। डॉ. राममनोहर लोहिया ने इस पहलू को उठाया है अपनी पुस्तक “गिल्टी मेन ऑफ पार्टीशन” में। संभावना बड़ी थी। प्रबल आशंका थी कि तब तक मोहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु हो जाती। ठीक बारह माह बाद गले-आंतों के कारण (11 सितंबर 1948) उनका इंतकाल हो भी गया। मेरी ताजा पुस्तक “अब और पाकिस्तान नहीं” में यह मसला उठा है। (पंकज शर्मा, अनामिका प्रकाशन : 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली 110002, फोन नंबर : 97735-08632)। जिन्ना के बाद दूसरा कोई मुस्लिम नेता था ही नहीं। सिंधी, पंजाबी, बांग्ला, पठान, बलूच, सुन्नी, शिया आदि इस्लामिस्ट साथ रह नहीं पाते। पाकिस्तान नफरत में जन्मा था, ईर्ष्या में मर जाता। आज की तस्वीर देखें। पूर्वी भाग टूटा। बलूच कगार पर है। तालिबानी भी पाकिस्तान से खदेड़े जा रहे हैं। बचेगा कौन ? पंजाबी फौजी और भारत से भागे मुसलमान जो आज भी खानाबदोश हैं। अंग्रेज भी तब तक ऊब जाते और बिस्तर बांध लेते।

ज्योतिषीय रेखाओं के संकेत के अनुसार उस घेरे में केवल दो व्यक्ति ही सबसे बड़े लाभार्थी थे विभाजन के। जिन्ना जो साल भर में गुजर गए। जवाहरलाल नेहरू जो तेरह वर्ष तक सत्तासुख भोगते रहे। उनके वंशज डटे भी रहे तीन दशकों तक। अतः जवाब मिल ही गया कि पाकिस्तान बना आखिर किसके खातिर ? फैज अहमद फ़ैज़ ने तो साफ जवाब लिख दिया था : “यह (पाकिस्तान) वह सुबह नहीं जिसका इंतजार था।” एक तथ्य हमेशा याद रहेगा। बादशाह खान (अब्दुल गफ्फार खान) ने कहा था : “जिन्होंने पाकिस्तान का राज पाया, वे ही लोग थे जिनके पुरखे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिदमतगार थे। अंग्रेजो के थाली चट्टे थे।” कितना कड़वा सच था ? जून 1947 (दो राष्ट्र बनने के माह भर पूर्व ही) मेजर जनरल आगा मोहम्मद याह्या खान ने क्वेटा के स्टाफ कॉलेज में सेना के बटवारे पर मुख्य प्रशिक्षक कर्नल एस. डी. वर्मा से कहा था : “सर हम लोग किस बात का जश्न मना रहे हैं ? हम लोग एक मजबूत राष्ट्र हो सकते थे। अब हम एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे होंगे।” यही मार्शल याह्या थे जो बाद में टूटे-फूटे पाकिस्तान के पूर्वी भूभाग को भी काटने में सफल रहे। बांग्लादेश था। अपनी किताब “जिन्ना” में लेखक इश्तियाक अहमद ने कहा था : “याह्या खान का वक्तव्य ज्योतिषीय था।” अंतत पाकिस्तानी में पाकिस्तान नहीं रहे। केवल पंजाबी, सिंधी, पठान बलूच। ये लोग तो हिंदुस्तान में भी हैं। तो अलग कैसे ?

पाकिस्तान बनने से मौलाना अबुल कलाम आजाद भी गलत साबित हुए। मौलाना आजाद के 27 अक्टूबर 1914 को कोलकाता में दिए गए भाषण के कुछ अंश पढ़ें : “यह (मुस्लिम) बिरादरी अल्लाह द्वारा स्थापित की गई है। सारे बुनियादी संबंध खत्म हो सकते हैं पर यह (मुस्लमान का मुस्लमान से) संबंध अटूट है। एक पिता अपने पुत्र के खिलाफ जा सकता है, एक माता अपने बच्चे को अपनी गोदी से अलग कर सकती है, भाई अपने भाई का दुश्मन हो सकता है, किंतु एक चीनी मुस्लमान का अफ्रीकी मुस्लमान से, एक अरब के रेगिस्तान में रहने वाले खानाबदोश का तातार चरवाहे और एक भारत के नए मुस्लमान का मक्का (के शुद्ध रक्त) के कुरेशी से जो संबंध है उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं तोड़ सकती।” मगर मौलाना आजाद से ज्यादा नेक मुसलमान जिन्ना माने गए। दारुल इस्लाम लेकर रहे। आजाद भारत में नहीं रह पाये।

इसी बीच अंग्रेजी शासन ने हिंद मुसलमान के लिये पृथक निर्वाचन क्षेत्रा की हिमायत शुरू कर दी। उन्होंने अपनी परिवर्तित राय भी व्यक्त की कि, ‘संयुक्त चुनाव प्रणाली से राष्ट्रीयता सबल नहीं हो सकती।’ (मीट मिस्टर जिन्ना, लेखक ए.ए. राउफ, मद्रास प्रकाशन, 1944, पृष्ठ 90)। जब दिसम्बर 1928 में कलकत्ता के कांग्रेस अध्विेशन मे नेहरू रपट पर चर्चा हुई तो जिन्ना ने पृथक चुनाव क्षेत्र की मांग पर ज्यादा जोर नहीं दिया। लेकिन शीघ्र ही साम्प्रदायिक विभाजन का सिद्धान्त उनके लिए अभियान का एकमात्र कार्यक्रम बन गया।

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