आखिर सचिन पायलट का इरादा क्या है?

अमरपाल सिंह वर्मा

सचिन पायलट ने राजस्थान के दौसा में 11 जून को अपने पिता की पुण्यतिथि मनाई। उन्होंने पिता को श्रद्धासुमन अर्पित किए लेकिन किसी नई पार्टी का एलान नहीं किया। तमाम राजनीतिक विश्लेषक कई दिनों से इस बात की संभावना जता रहे थे कि सचिन 11 जून को पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर नई पार्टी की घोषणा कर कांग्रेस को खुली चुनौती दे सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। अब राजनीतिक गलियारों में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर पायलट का इरादा क्या है?

चार साल से सीएम अशोक गहलोत के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे सचिन पायलट को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। उन्होंने 2020 मेंं साथी विधायकों के साथ गहलोत के खिलाफ बगावत की अगुवाई की थी। इसका खामियाजा उन्हें डिप्टी सीएम तथा कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी खोकर भुगतना पड़ा। इस घटनाक्रम के बाद गहलोत और पायलट के बीच आई कटुता जगजाहिर है। पिछले साल गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर राज्य में सत्ता परिवर्तन का प्रयास तब फ्लॉप हो गया, जब गहलोत समर्थक विधायकों ने विधायक दल की बैठक का ही बहिष्कार कर दिया। तब पायलट के सीएम बनने के मंसूबे धरे रह गए।

अति महत्वाकांक्षी पायलट ने इसे अपनी पराजय माना और लगातार गहलोत के खिलाफ खुला मोर्चा खोल रखा है। उन्होंने अप्रेल महीने मेंं वसुंधरा राजे सरकार के कथित भ्रष्टाचार की जांच के मुद्दे पर एक दिन का अनशन करके गहलोत को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। इसके बाद मई मेंं पायलट ने बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पेपर लीक जैसे मुद्दों पर अजमेर से जयपुर तक पांच दिवसीय जन संघर्ष यात्रा निकालकर तेवर दिखाए।

इस यात्रा के दौरान पायलट ने अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए कहा था कि मौसम बदल रहा है। हम अपनी मंजिल पर पहुंचेंगे लेकिन राजनीति के जादूगर कहे जाने वाले गहलोत ने मौसम को बदलने नहीं दिया है। वर्ष 2018 में राज्य में कांग्रेस के बहुमत मेंं आने पर सचिन को उम्मीद थी कि सीएम उन्हें ही बनाया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके बाद गहलोत और पायलट के बीच दूरियां बढऩे लगीं। अब तो यह स्थिति मतभेदों और मनभेदों से भी कहीं आगे जा चुकी है।

पिछले दिनों राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खडग़े ने पायलट और गहलोत को दिल्ली बुलाकर उनसे बात की। बैठक के बाद कांग्रेस महासचिव वेणुगोपाल ने दोनों नेताओं मेंं सुलह का एलान किया लेकिन धरातल पर कुछ बदला नहीं दिख रहा है। दौसा में पिता की पुण्यतिथि पर सचिन ने भले ही नई पार्टी बनाने जैसा कोई कदम नहीं उठाया लेकिन पूर्ववर्ती वसुंधरा सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच मेंं निष्क्रियता के लिए गहलोत सरकार पर निशाना साधने से बाज नहीं आए।

दरअसल, सचिन ने पिछले दिनों राजस्थान लोक सेवा आयोग को भंग करके इसका पुनर्गठन करने, सरकारी नौकरियों के पेपर लीक होने से प्रभावित बेरोजगारों को मुआवजा देने और वसुंधरा सरकार के भ्रष्टाचार की उच्च स्तरीय जांच कराने की मांग उठाई थी लेकिन इस पर कोई कदम उठाने के बजाय गहलोत ने दिमागी दिवालियेपन की बात कह डाली।
कांग्रेस आलाकमान चाहे कितना ही सुलह होने की बात कहे लेकिन दोनों तरफ तलवारें खिंची हुई हैं। ऐसे में भविष्य की तस्वीर क्या नजर आती है? हिमाचल और कर्नाटक में पार्टी की सरकार बनने से उत्साहित कांग्रेस आलाकमान चाहता है कि राज्य में यह कलह समाप्त हो और सब एकजुट होकर चुनाव लडक़र फिर से पार्टी की सरकार बनाएं। पार्टी की मंशा पूरी करने के लिए गहलोत लोक-लुभावन घोषणाओं और योजनाओं की बौछार करके जहां जनता को खुश करने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, वहीं कांग्रेस आलाकमान भी उनकी सरकार की तारीफों के पुल बांध रहा है।

गहलोत जनता को खुश करने की जिस नीति पर चल रहे हैं, उससे भाजपा समेत पूरा विपक्ष सकते में हैं। विपक्ष लोक लुभावन योजनाओं का विरोध करके जनता को नाराज करने की स्थिति मेें नहीं है। भाजपा ऐसी रणनीति बनाने मेंं जुटी है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। भाजपा चाहती है कि सचिन पायलट के बगावती तेवर बरकरार रहें। इसी कारण भाजपा नेता लगातार पायलट को उकसाने वाले बयान देते आ रहे हैं। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के संयोजक हनुमान बेनीवाल भी कई बार कह चुके हैं कि ‘‘पायलट को कांग्रेस छोडक़र अपनी अलग पार्टी बना लेनी चाहिए। इससे राज्य में तीसरे मोर्चे को मजबूती मिलेगी और आने वाले चुनाव में तीसरा मोर्चा ही अपनी सरकार बनाएगा।’’

सीएम गहलोत की हार्दिक इच्छा भी पायलट को पार्टी से बाहर देखने की है लेकिन सवाल बड़ा सवाल यह है कि पायलट खुद क्या चाहते हैं? इसमें कोई दोराय नहीं कि पायलट बड़े नेता और जाना-माना चेहरा हैं लेकिन गहलोत की रणनीति ने उन्हें दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। विधानसभा चुनावों में छह महीने से भी कम समय बचा है। ऐसे मेें पायलट खामोश बैठे रहेंगे, यह बात किसी को हजम नहीं हो रही है। राजस्थान में सरकार और संगठन दोनों में गहलोत का ही सिक्का चल रहा है। वह पूरे दमखम से सरकार को रिपीट करने की कोशिश में लगे हुए हैं। अगर राज्य में पुन: कांग्रेस सरकार बनी तो गहलोत फिर से कुर्सी पर काबिज हो जाएंगे, यह बात पायलट भी जानते हैं। पायलट के हाथ कुछ नहीं आएगा। और, अगर कांग्रेस चुनाव हार जाती है तो पायलट को पांच साल और इंतजार करना पड़ेगा। पांच साल बाद क्या होगा, क्या नहीं कौन जानता है। ऐसे में लग रहा है पायलट जल्द ही कुछ न कुछ करेंगे क्योंकि अगर उन्होंने चुनाव से पहले कुछ नहीं किया तो न केवल उनका राजनीतिक भविष्य अंधकारमय होने का खतरा है, बल्कि उनके समर्थकों के भी छिटक जाने का अंदेशा है।
(लेखक राजस्थान के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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