गत दिनों एक संक्षिप्त समाचार, नन्हा सा, मगर राष्ट्र के हित में विशद, दब गया, ओझल ही रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा के सिलसिले में यह है। भारत-वापसी की यात्रा के समय में मोदी मिस्र की राजधानी काहिरा में रविवार (25 जून 2023) रुकेंगे। गत 25 वर्षों में भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली मिस्र यात्रा है। राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल-सिसी से भेंट करेंगे जो पिछले गणतंत्र दिवस पर नई दिल्ली में विशेष अतिथि रहे। वे चौथी बार भारत आने वाले हैं। इसी इतवार को विशेष तौर पर प्रधानमंत्री काहिरा की हजार वर्ष पुरानी अल-हाकिम मस्जिद में भी हाजिर रहेंगे। तब उनका एक वैश्विक प्रभाव पड़ेगा। ठीक उसी भांति जब इस्लामी बांग्लादेश की अपनी यात्रा (26 मार्च 2021) पर प्रधानमंत्री माटुआ वैष्णो संप्रदाय के अवर्ण हिंदु अल्पसंख्यक (साधु हरचंद ठाकुर के भक्तों) से मिलने गए थे। इन दोनों घटनाओं का अपना ऐतिहासिक गौरव है। कूटनीतिक दृष्टि से महत्व भी।
प्रधानमंत्री की इस “अल-हाकिम द्वि-अम्र अल्लाह” मस्जिद में उपस्थिति एक दूरगामी संदेश प्रेषित करेगी। यह मस्जिद भारत में बसे लाखों दाऊदी बोहरा मुसलमानों का है जो अधिकांश दक्षिण गुजरात में रहते हैं। यह लोग पैग़ंबरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब के वंशज हैं। दाऊदी बोहरा मुख्यत: गुजरात के सूरत, अहमदाबाद, जामनगर, राजकोट, दाहोद और महाराष्ट्र के मुंबई, पुणे, नागपुर, राजस्थान के उदयपुर व भीलवाड़ा और मध्य प्रदेश के उज्जैन, इन्दौर, शाजापुर जैसे शहरों और कोलकाता चेन्नई में बसते हैं। पाकिस्तान के सिंध प्रांत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, दुबई, ईराक, यमन व सऊदी अरब में भी उनकी अच्छी संख्या में हैं। मुंबई में इनका पहला आगमन करीब ढाई सौ वर्ष पहले हुआ था।
दाऊदी बोहराओं के 21वें और अंतिम इमाम तैयब अबुल कासिम थे। उनके बाद 1132 ईस्वी से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हो गई, जो दाई-अल-मुतलक सैयदना कहलाते हैं। बोहरा समुदाय 11वीं शताब्दी में उत्तरी मिस्र से भारत पहुंचा था।
ज्यादातर व्यापार आदि में हैं। मूलत: मिस्र में उत्पन्न और बाद में अपना धार्मिक केंद्र यमन फिर 11वीं शताब्दी में धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में इन्होंने अपनी जगह बनाई। जब समुदाय बहुत बड़ा हो गया, तब 1539 के बाद इस मत का मुख्यालय यमन से भारत में सिद्धपुर आ गया। उत्तर गुजरात के पाटन जनपद का यह सिद्धपुर नगर सरस्वती नदी तट पर है। यहां पांडव अज्ञातवास में रहे थे। यहीं धनाढ्य वोहरा मुस्लिमों की वोहरावाद हवेलियां हैं। दाऊदी बोहरा समुदाय काफी समृद्ध, संभ्रांत और पढ़ा-लिखा समुदाय है। कुछ लोग जो किसानी करते हैं। दाऊदी बोहरा मुसलमान मेहनतकश और शांतिप्रिय कौम है। इस समाज में मस्जिद, मुसाफिरखाने, दरगाह और कब्रस्तान का नियंत्रण करने वाले सैफी फाउंडेशन, गंजे शहीदा ट्रस्ट, अंजुमन बुरहानी ट्रस्ट जैसे दर्जनों ट्रस्ट हैं। इन्हीं लोगों में 10वीं से 12वीं सदी के दौरान इस्लामी दुनिया के अधिकतर क्षेत्रों में ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य और वास्तु में जो उपलब्धियां हासिल कीं वह आज मानव सभ्यता की पूंजी हैं। इनमें एक है काहिरा में विश्व के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक ‘अल-अजहर’।
दाऊदी बोहरा इमामों को मानते हैं। बोहरा समुदाय के लोग सूफियों और मज़ारों पर खास विश्वास रखते हैं। उनके 21वें और अंतिम इमाम तैयब अबुल क़ासिम थे, जिसके बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हुई, जो दाई-अल-मुतलक कहलाते हैं। 52वें दाई-अल-मुतलक महान भारतीय राष्ट्रवादी डॉ. सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन थे। उनके निधन के बाद जनवरी 2014 से उनके बेटे सैयदना डॉ. मुफद्दल सैफुद्दीन ने उनके उत्तराधिकारी के तौर पर 53वें दाई-अल-मुतलक के रूप में जिम्मेदारी संभाली है। दाऊदी बोहरा समुदाय इस्माइली समुदाय का उप-समुदाय है। गत फरवरी में पीएम ने मुंबई में इस दाऊदी-बोहरा समुदाय के शैक्षणिक संस्थान अल जामिया-तुस-सैफियाह अरब अकादमी के नए कैंपस का उद्घाटन किया था। उससे पहले भी 2018 में वो इंदौर में बोहरा समुदाय के कार्यक्रम में शामिल हुए थे।
मिस्र की चौथी सबसे बड़ी अकीदतमंदों का पूजास्थल है, अल-हकीम मस्जिद। मोहम्मद बुरहानुद्दीन द्वारा 1980 में सफेद संगमरमर और सोने की ट्रिम में इस मस्जिद का बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण और नवीनीकरण किया गया था। जीर्णोद्धार में 27 महीने लगे और 24 नवंबर 1980 को मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात, और अन्य उच्च पदस्थ मिस्र के अधिकारियों द्वारा आयोजित एक समारोह में मस्जिद को आधिकारिक रूप से फिर से खोला गया। प्लास्टर नक्काशियों, लकड़ी के टाई-बीम और कुरान के शिलालेखों सहित मूल सजावट के अवशेष संरक्षित किए गए हैं। चार आर्केड्स से घिरे इस मस्जिद का बड़ा सा आंगन है।
दो मीनारें हैं। मस्जिद का इस्तेमाल 14वीं सदी में रोक दिया गया, और इसका अस्तबल के तौर पर इस्तेमाल किया गया। नेपोलियन के आधिपत्य में फ्रांसिसी अभियान के दौर तक इस मस्जिद का जेल के रूप में उपयोग किया जाता था। फ्रांसिसी मस्जिद के मीनार का वॉच टॉवर के रूप में लगाया था। समृद्ध सजावट और कुफिक लिपि को मस्जिद के अंदरूनी हिस्सों पर, मीनारों के शाफ्ट पर और मिहराब (जहां इमाम खड़े होते हैं) के ऊपर, गुंबद की खिड़कियों पर स्टुको फ्रिज़ सजावट पर देखा जा सकता है। मस्जिद अल-हकीम के पुनर्निमाण की कई बार नौबत आई। भूकंप की वजह से 13वीं सदी से पहले मस्जिद ध्वस्त हो गया था. बाद में बायबर्स अल-गशांकिर के दौर में और फिर सुल्तान हसन के दौर में इसका विकास किया गया।
मोदी की यह मस्जिद यात्रा इस्लामिक विश्व की नजर में बड़ी गौरतलब है। मोदी की यात्राओं से अरब देशों में हिंदुओं को अर्चना को अधिकार हासिल हुआ है। आज आबू धाबी में गुजरात का स्वामी नारायण मंदिर (अमीरात), मोतीश्वर शिव मंदिर (मस्कत), शिव-कृष्णा मंदिर दुबई, श्रीनाथ मंदिर, (बहराइन) में निर्मित हुए हैं। इतिहास का क्या चमत्कार है कि यही अरब लुटेरे गुजरात के सोमनाथ मंदिर को कई बार लूटकर, ध्वस्त कर गए थे। इतिहास ने अपना प्रतिशोध ले लिया।