अमूमन छात्रों द्वारा हंगामा बरपाना तथा तोड़फोड़ करना उनके विरोध-चिंतन को व्यक्त करने का माध्यम रहा है। ऐसे अग्निपथ पर विश्वविद्यालय छात्र यूनियन में रहकर मैं भी गुजर चुका हूं। मगर लखनऊ विश्वविद्यालय में स्थिति अब सुधर रही है। मसलन कुछ दिन पूर्व ही (11 मई 2023) इस 82-वर्ष पुराने टैगोर लाइब्रेरी के सामने ऑल-इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (वामपंथी संगठन) ने ढपली बजा कर प्रदर्शन किया था। उनकी मांग थी कि पुस्तकालय का समय बढ़ाया जाए। छात्र नेता हर्ष (और उनके साथी सुकीर्ति, ज्योति, अमन, समर, क्रांति आदि) की मांग थी कि इसका समय 24 घंटे हो। उनका कहना था कि सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक कक्षाएं चलती है और पुस्तकालय 5:30 बजे तक बंद होने लगता है। इसके कारण छात्रों को पूर्णतः लाभ नहीं मिल पाता। पढ़ने के लिए उन्हें अलग से निजी पुस्तकालयों में जाना पड़ता है। उनकी अन्य मांगें थी कि : लाइब्रेरी को 24 घंटे खोला जाए, इंटरनेट की कनेक्टिविटी को दुरुस्त कराया जाए, वाशरूम की रेगुलर साफ सफाई की जाए, लाइब्रेरी में फोटोकापी का शुल्क एक रुपये से घटाकर 50 पैसे किया जाए तथा लाइब्रेरी में पीने के साफ पानी के लिए आरओ और वाटर कूलर की व्यवस्था की जाए।
भला हो प्रो. दीप्ति रंजन साहूजी का जिनके जिम्मे लाइब्रेरी की व्यवस्था तथा प्रबंधन है। उन्होंने तत्काल लाइब्रेरी का समय बढ़ा दिया। एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय भी लिया कि कोई भी शोधार्थी और शिक्षाप्रेमी केवल आधार कार्ड लेकर लाइब्रेरी में प्रवेश पा सकता है। प्रो. साहू ने बताया कि अब टैगोर लाइब्रेरी भी एक मान्य सार्वजनिक पुस्तकालय हो गई है। यह एक बहुत उम्दा और विवेकपूर्ण कदम है। अधुना प्रो. साहू विश्वविद्यालय के जेके इंस्टीट्यूट में समाजशस्त्र विभाग के अध्यक्ष भी हैं। टैगोर लाइब्रेरी में एक सदी से चली आ रही रीति को खत्मकर अब उसकी जगह बारकोड स्कैन कर किताबें दी जायेंगी। इस पाइलट प्रोजेक्ट की शुरुआत इस सत्र से कर दी गई है। विश्वविद्यालय में कुल पांच लाख किताबें हैं, जिसमें लगभग साढ़े तीन लाख टैगोर लाइब्रेरी में है, बाकी डिपार्टमेंटल लाइब्रेरियों में हैं। छात्रों की सहूलियत के लिए किताबें डिजिटल करने की व्यवस्था भी शुरू की गई है। इससे लाइब्रेरी की किताबों का भी डेटाबेस एक क्लिक पर उपलब्ध रहेगा।
टैगोर लाइब्रेरी की विकास यात्रा में 1974 में एक महत्वपूर्ण सोपान आया जब पुस्तकालय विज्ञान भी अध्ययन कोर्स के सिलेबस में सम्मिलित किया गया। इस विभाग के संस्थापक-अध्यक्ष थे स्व. प्रो. सी. जी. विश्वनाथन जिन्होंने 18 पुस्तकें लिखी। उसमें प्रमुख है कैटलागिंग पर। इसे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। प्रो. विश्वनाथन आंध्र विश्वविद्यालय (विशाखापट्टनम) में भी आचार्य रहे। वहीं डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन तब कुलपति थे। दोनों परस्पर संबंधी भी थे। जब राधाकृष्णन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो प्रो. विश्वनाथन भी वहीं के लाइब्रेरी विभाग में आ गए थे। फिर अवकाश प्राप्त कर वे नवसृजित पंतनगर के कृषि विश्वविद्यालय (उधम सिंह नगर जिला, उत्तराखंड) में आ गए। वहां भी पुस्तकालय विभाग की स्थापना की। उसके पूर्व लखनऊ के मशहूर अमीनद्दौला लाइब्रेरी में 1939 में रहे थे। प्रो. विश्वनाथन के नाम से लखनऊ विश्वविद्यालय में लाइब्रेरी विज्ञान की परीक्षा में श्रेष्ठ छात्र के लिए वार्षिक स्वर्ण पदक भी रखा गया है। उनकी पुत्री डॉ. के. सुधा राव (रिटायर्ड रेल चिकित्सा मुख्य निदेशक) मेरी पत्नी हैं।
टैगोर लाइब्रेरी के इतिहास में एक अत्यंत कालिमापूर्ण दिन भी आया। जब 1973 में उग्र भीड़ ने इसे जला दिया था। उन दिनों यूपी में पीएसी के क्रुद्ध सिपाहियों ने अपने वेतनमान को लेकर भी हड़ताल कर दी थी। मुख्यमंत्री पं. कमलापति त्रिपाठी को त्यागपत्र देना पड़ा था। इंदिरा गांधी ने तब पं. हेमवती नंदन बहुगुणा को मुख्यमंत्री नामित किया था। पीएसी के कुछ सिपाही विश्वविद्यालय परिसर में तैनात थे। उन लोगों ने छात्र संघर्ष के समय इन अराजक तत्वों को रोका नहीं जो पुस्तकालय को आग लगा रहे थे। दोनों के संघर्ष में विश्वविद्यालय परिसर में भारतीय सेना की (22 मई 1973) कंपनी ने प्रवेश किया था। इसमें 31 सिपाही मरे थे।
इस सशस्त्र मुकाबले का मूलभूत कारण था कि विश्वविद्यालय परीक्षा में सुव्यवस्था हेतु टीचर्स एसोसिएशन ने परिसर में उचित पुलिस बल के मदद की मांग की थी। छात्रों ने विरोध किया था। मतभेद ने हिंसक आकार ले लिया। तभी वहां तैनात हड़ताली पीएसी जवान छात्रों से मिल गए। नारे भी लगे थे : “छात्र-पीएसी एकता जिंदाबाद।” फलस्वरूप दमन चक्र चला। शिकार हुआ बौद्धिक केंद्र टैगोर लाइब्रेरी !
उन दिनों “इस लाइब्रेरी के जलने की खबर मैंने “टाइम्स ऑफ इंडिया” में पढ़ी थी, जिसका मैं बड़ौदा में दक्षिण गुजरात का ब्यूरो प्रमुख था। अत्यंत क्षोभ और ग्लानि हुई। तभी याद आया किस प्रकार मध्य युग में विश्व के प्रमुख पुस्तकालयों को इस्लामी हमलावरों ने भी जला दिया था। याद आया बिहार की पांचवी सदी का नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय, जिसे बख्तियार खिलजी के हमलावरों ने (1193) में ग्यारह दिन तक जलाया। सारे ग्रंथ राख हो गए। इससे पूर्व मिस्र में एलेक्जेंड्रिया के ख्यात पुस्तकालय को इस्लाम के दूसरे खलीफा उमर इब्न अला-खताब (634-6441) के आदेश पर जला दिया गया। कारण बताया गया कि वे अमूल्य और महान ग्रंथ यदि कुरान से सहमत हैं तो अनावश्यक है और यदि विपरीत है तो नापाक हैं। अतः मुस्लिम सेनापति को खलीफा का फरमान था लाइब्रेरी ही जला दो। ठीक ऐसा ही चंगेज खान के पोते हलागू खान ने बगदाद में किया। वहां के “हाउस आफ विजडम” (ज्ञान का घर) पुस्तकालय का (फरवरी 1258) तेरह दिन तक जलाकर खत्म कर दिया गया।
अतः इन्हीं दानवी घटनाओं के संदर्भ में टैगोर लाइब्रेरी पर हुये मई 1973 के हमले में उसे जला देना एक अत्यंत दुखद प्रकरण है। मगर अब नागरिक चेतना इतनी तो जागृत है कि टैगोर लाइब्रेरी के अमूल्यवान धरोहर, उसकी किताबें सुरक्षित रहेंगी।