जब निराशा, हताशा, विषाद, मायूसी, उदासी, व्यथा घेर ले तो मन को खिन्न न होने दें। इतिहास, पुराण के कुछ पुराने पृष्ठों को याद कर लें। यही दिन (जेष्ठ की द्वादशी) था जब ऋष्यमूक पर्वत (कोप्पल), कर्नाटक, के वनों में निराश राम की हनुमान से भेंट हुई थी। शाश्वत मैत्री उसी क्षण सर्जी। फिर राम को सीता मिल गईं। राजा सुग्रीव को रानी रुमा और किष्किंधा का राज। यह सारी गाथा वाल्मीकि और तुलसीदास ने लिखी है। इसीलिए आज का दिन (बड़ा मंगल : 16 जुलाई 2023) भाग्यशाली है। इसी दिन 2006 में दोनों कटे घुटनों के साथ 47-वर्षीय मार्क इंग्लिस एवरेस्ट पर चढ़ गया था। उस वक्त उसका एक कृत्रिम पैर तो बर्फ पर ही टूट गया था। वह हिम्मत नहीं हारा। इस घटना ने हर दिव्यांग का दिल खिला दिया था। क्या संयोग है कि आज (दोपहर दो बजे) ही विविध भारती पर बिसराए गीतों में एक बजा था। शायद शकील (बदायूंवाले) की पंक्तियां थीं। लखनऊ के नौशाद ने धुन बनाई थी। लताजी की आवाज थी, भैरवी राग में। शब्द थे : “ऐ दिल तुझे कसम है, तू हिम्मत न हारना। दिन ज़िंदगी के जैसे, गुज़रे गुज़ारना।” बड़ा उत्साहवर्धक था।
तनिक लखनवी प्रसंग का उल्लेख हो। प्रसंग भी सामयिक है। जब भी बड़े मंगल की बात आती है तो लखनऊ का जिक्र जरूर होता है। राजधानी से जुड़ी एक कहानी है। इस के अनुसार एक व्यापारी था जिसने हनुमान जी से मन्नत मांगी थी कि अगर उसका केसर और इत्र का व्यापार चल गया तो वो यहां बजरंगबली का भव्य मंदिर बनवाएगा। कुछ दिनों बाद इस व्यापारी से नवाब वाजिद अली शाह मिले जिन्होंने उस व्यापारी का सारा इत्र और केसर खरीद लिया। व्यापारी की मन्नत इस तरह से पूरी हो गई और उसने हनुमान जी का विशाल मंदिर बनवाया। तभी से ही लखनऊ में ज्येष्ठ के महीने में बड़े मंगल को मनाने की परंपरा शुरू हो गई। दूसरी कहानी भी काफी प्रचलित है। लखनऊ के अलीगंज में स्थित पुराने हनुमान मंदिर का निर्माण बेगम आलिया ने करवाया था। कहते हैं उन्हें सपने में एक बार हनुमान जी दिखाई दिए थे। मंदिर बनवाने के दो साल बाद अचानक से महामारी फैल गई थी। तब बेगम ने भगवान हनुमान की विधि विधान पूजा करवायी थी। पूजा का दिन भी ज्येष्ठ महीने का मंगलवार था। महामारी दूर हो गई। तभी से यहां हर ज्येष्ठ महीने के मंगलवार के दिन बड़ा मंगल मनाया जाता है।
एक अन्य कथा महाभारत से। भीम को अपने बल पर काफी घमंड हो गया था। इस गर्व को तोड़ने के लिए हनुमान जी ने एक बूढ़े वानर का रूप लिया। भीम को दुरुस्त कर दिया। जब यह महाबली पांडव उस बूढ़े बंदर की पूंछ को टस से मस नहीं कर पाये तो चरण स्पर्श कर क्षमा याचना की। बजरंगबली उदार थे, छोड़ दिया। जिस दिन हनुमान जी ने भीम का घमंड तोड़ा था वह ज्येष्ठ महीने का मंगलवार था।
तो अब विवरण हो दिव्यांगों की वीरगाथाओं का। कहने को निराशा के अलावा क्या रहा उन लोगों के पास ? एक भी कर्मेन्द्रिय कटी या टूटी तो वे साधारण इंसान तो रहते है नहीं। अपंग होकर, दया के पात्र बन जाते हैं। फिलहाल यहां इन्हीं तकदीर के सताए व्यक्तियों की चर्चा हो। याद आई सात हजार वर्ष पुरानी ऋग्वेद की पंक्ति : “पंगुम लंघयते गिरिम।” यही कई बार इतिहास में साबित हो चुका है। मार्क इंग्लिस का विवरण है। वह 1982 में कुक नामक पर्वतमाला के शिखर पर चढ़ा। बर्फीले तूफान में घिर गया। घुटने ठंड से पंगु हो गए। काटने पड़े। पर हिम्मत नहीं हारी। माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। इससे भी बड़ा शौर्यभरा वाकया था अमरीकी खिलाड़ी एरिक बाइडन का जो नेत्रहीन था। वह 25 मई 1998 में एवरेस्ट पर भी चढ़ गए। सिर्फ रास्ता टटोलते हथेली से। ऐसे पराक्रम की कहानियों में युवा अरुणिमा सिन्हा की याद तो सदैव आती है। यह 24-वर्षीय पर्वतारोहिणी अरुणिमा 2011 में दिल्ली ट्रेन से जा रहीं थीं। उसके डिब्बे में डाकू घुस आए। उसकी सोने का हार खींचना चाहा। उसने हाथापाई की। चोरों ने उसे उठाकर पटरी पर फेंक दिया था। उधर से रेल आ रही थी। उसके दोनों पैर कट गए। पर वाह री वीरबाला अरुणिमा ! टांगों में लोहे की छड़ लगवाई। एवरेस्ट फतह कर लिया। वह पहली ऐसी महिला चैंपियन बनी। इसी महिला वर्ग में चर्चा हो बछेंद्री पाल की भी। नाकुरी (उत्तरकाशी, उत्तराखंड) में जन्मी वह खेतिहर परिवार की थीं। बी.एड. तक की पढ़ाई पूरी की। मेधावी और प्रतिभाशाली होने के बावजूद उन्हें नौकरी नहीं मिली। बछेंद्री ने ‘नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग’ कोर्स के लिये आवेदन कर दिया। सीट पा ली। सन 1982 में एडवांस कैम्प के तौर पर उन्होंने गंगोत्री (6,672 मीटर) और रूदुगैरा (5,819) की चढ़ाई को पूरा किया। फिर 1984 में भारत का चौथा एवरेस्ट अभियान शुरू हुआ। इस अभियान में जो टीम बनी, उस में बछेंद्री समेत सात महिलाओं और ग्यारह पुरुषों को शामिल किया गया था। इस टीम के द्वारा 23 मई 1984 को अपराह्न 1 बजकर सात मिनट पर 29,028 फुट (8,848 मीटर) की ऊंचाई पर ‘सागरमाथा (एवरेस्ट)’ पर भारत का झंडा लहराया गया। इस के साथ एवरेस्ट पर सफलता पूर्वक क़दम रखने वाले वे दुनिया की पांचवी महिला बनीं।
इन समस्त परिदृश्यों और घटनाओं से उत्प्रेरित होना बड़ा स्वाभाविक है। कहते भी हैं कि मान लो तो हार है, ठान लो तो जीत है। जो लड़ा नहीं तो वह तो हारा ही होगा। कौटिल्य ने कहा था : “उत्साही से शत्रु ही मित्रता कर लेता है।” अर्थात साहस तो होना ही चाहिए। स्वामी विवेकानंद की युक्ति याद आती है : “संसार में आधे से अधिक लोग तो इसलिए असफ़ल हो जाते हैं कि समय पर उनमें साहस का संचार नहीं हो पाता और वे भयभीत हो उठते हैं।” अतः याद रखें : “हिम्मते मरदां, मद दे खुदा।”