के. विक्रम राव : आज सुबह हम मेहनतकशों की होली रही। दिवाली थी शाम को। विश्व मई (श्रमिक) दिवस है : मई माह की पहली तारीख। मगर दौर और हालात अब बदल गए। जब सदीपूर्व इसको मनाया जाना शुरू हुआ था तो शिकागो में काम के घंटे घटाने हेतु हड़ताल हुई थी। आज तो विरोध यूं ही कुचल दिया जाता है। संगठन निर्वीर्य हो गए। श्रमिक एकता टूट गई गुटों में, कट गई पार्टियों में।
लेकिन आज खुशी इसलिए हुई कि चीन के पत्रकार फेंग बिन को जेल से रिहा कर दिया गया। वह वुहान में तीन वर्षों तक कैद रहे। माजरा क्या था ? जनवरी 2020 में सर्वप्रथम फेंग बिन ने कोविड-19 के बारे में समाचार प्रसारित किया था। इस विभीषिका का दुष्प्रभाव हजारों मील दूर भारत के गांव-गांव में पड़ा था। बजाय फेंग बिन द्वारा राष्ट्र को सचेत करने के लिए तारीफ करने के, शी जिनपिंग की सरकार ने उन्हें कैद कर डाला। फेंग बिन ने अपना पहला वीडियो 25 जनवरी 2020 को रिकॉर्ड किया था। उनके शॉट्स ज्यादातर वुहान के विभिन्न जिलों में रोग की स्थिति को दिखाया था। इसे कई हजार बार देखा गया। फैंग ने फरवरी 2020 को एक नया वीडियो जारी किया था। जिसमें वुहान अस्पताल के सामने एक मिनीवैन के पीछे लाशों के ढेर को दिखाया गया है। वीडियो को ट्विटर पर साझा किया था। फैंग को उसी दिन गिरफ्तार किया गया था। सच्चाई दर्शाने पर चेतावनी भी दी गई।
निडर फेंग बिन ने महाबली कम्युनिस्ट-राज को बता दिया था कि : “मैं मरने से नहीं डरता।” इस मई दिवस पर दूसरी भली खबर थी कि कुमारी झांग जान, एक दिलेर पत्रकार, जो लड़ी थी, जेल गई, कल रिहा हो गई। उसने कोविड पर सरकारी लापरवाही को उजागर किया था। उन पर आरोप लगा कि वह जनता को भड़काती है। सड़क पर झगड़ा करती है। उन्हें जेल में डाल दिया गया। कोविड-19 पर उसने भी सरकारी लापरवाह को पेश किया था। अर्थात किसान-मजदूरों के इस माओवादी राष्ट्र में बुद्धिकर्मियों पर गजब का जुल्म ढाया गया।
अतः इस श्रमिक दिवस पर अंतर्मुखी होकर हम श्रमिक वर्ग को मनन करना पड़ा कि आज हमारा परंपरागत सूत्र अर्थहीन क्यों हो गया है ? हम तो चेतावनी देते रहते थे कि : “हर ज़ोर जुल्म के टक्कर में, संघर्ष हमारा नारा है।”
इसके निदान हेतु श्रम-कृषक शक्ति पर फूल रहे समाजवादी पुरोधाओं से हमें पूछना पड़ेगा। समता-मूलक समाज की झंडाबरदारों के समक्ष केवल दो ही वर्ग होते हैं : शोषित और शोषक। मगर अब यह जातिग्रस्त हो गया। ऐसा विभाजन क्यों हुआ ? क्या सवर्णों में निर्धन और पिछड़ों में धनपशु नहीं हो सकते ? आज समाजवादी चरित्र कितना वीभत्स हो गया है ? इसका नमूना पेश है। उस कालखंड में समाजवादी युवक सभा में हम लोग होते थे। बात 1958 की है। डॉ राममनोहर लोहिया को हम लोगों ने लखनऊ के विश्वविद्यालय में बुलाया था। लोहियाजी रिक्शा पर नहीं सवार होते थे। इसे वे मानव द्वारा मानव का लहू चूसना मानते थे। चारबाग रेलवे स्टेशन से एपी सेन हाल (बादशाहबाग) तक का तांगे का किराया तब दो रुपए था। हम युवजनों ने अपने दैनिक पाकेट मनी (चवन्नी) से राशि जमा की और उस समाजवादी पुरोधा को तांगे से लेकर आये। करीब पांच दशकों बाद मुझे समाजवादी युवजन समाज (तब तक युवतियां भी सदस्या बन गईं थीं) को संबोधित करने का आमंत्रण मिला। सभास्थल के बाहर करीब साठ नवीनतम माडल की मोटरकार दिखीं। अपने उद्बोधन में मैंने कह भी दिया कि : “राज्य सरकार भले ही सोशलिस्ट हुई हों, पर लोहियावादी युवजन पूंजीवादी मनोवृति से ग्रसित हो गये हैं।” पता चला कि अधिकतर श्रोता ठेकेदार हैं, सरकारी धंधा कराते हैं। या फिर थानों से सरोकार रखते हैं। भाजपा और कांग्रेस के युवजनों से कोई शिकायत नहीं है। वे तो सभी पूंजीशाही के बेहिचक पैरोकार हैं। गांधीवादी सादगी तो समाजवादी की पहचान रही थी।
दूसरी विशेषता इन युवा सोशलिस्टों की रहती थी : जीवट संघर्ष। वही लोहियावाली बात कि : “सड़क खामोश रहेगी, तो संसद आवारा हो जाएगी।” जेल जाना हमारी बुनियादी पहचान होती थी। बेल (जमानत) पर रिहा होना पाप था। चुनाव अभियान में राजनारायणजी हमारे पथप्रदर्शक होते थे। चना और सत्तू मिलता था। जुलूस, जनांदोलन और जेल जाना हर कर्मठ नेता की शिनाख्त होती थी।
इसी संदर्भ में आज का मई दिवस (मजदूर दिवस) एक त्रासद स्मृति ताजा कराता है। कभी तो पुराने नारे सुनाई पड़ें : “जगह है कितनी जेल में तेरे, देखा देखा है और देखेंगे।” तपती धूप जिसने नहीं सही, वह भला कैसा नेता ? तब पलट कर प्रश्न भी पूछा जा सकता है कि प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने कब कारागार की यात्रा की ? उनकी मां और बहन को पुलिस थाने से साबका कब हुआ ? बापू (असली गांधी) ने तो आधी आयु ब्रिटिश जेल में ही बिता दी थी।
यहां आधारभूत तर्क यही है कि सत्ता पाना हो (सुखोपार्जन हेतु ही सही) तो कष्ट तो झेलना ही होगा। लोहिया तो गुलाम भारत में, बाद में आजाद देश में भी जेल भुगतते ही रहे। मगर सत्ता हेतु सौदा नकार दिया। नेहरू काबीना में विदेश मंत्री बन सकते थे। काशीराम-मायावती का उदाहरण तो है ही कि सत्ता को पाना ही एकमात्र ध्येय है। बिना संघर्ष के सत्ता की आदत पड़ जाती है। सोनिया-कांग्रेसियों जैसी। याद आया 8 मई 1974 जब लाखों रेल कर्मचारियों से उनके सोशलिस्ट नेता जॉर्ज फर्नांडिस आदि नारा लगवाते थे कि : “यह लड़ाई कौन लड़ेगा ?” उनके साथी तब गुंजाते थे : “जिसने मां का दूध पिया है।” अर्थात दूध भी किस्म किस्म का होते हैं। जो विरोध दर्शाते हैं, सर्जाते हैं। आज मई दिवस (श्रमिक दिवस) पर गांठ बांध लें। अभी तो यह अंगड़ाई है। आगे की तैयारी करें।