बिहार के एक किसान राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर चंपारण पहुंचे महात्मा गांधी ने देश में अहिंसक आंदोलन की नींच रखी। लेकिन, एक समय ऐसा भी आया था कि गांधी जी चंपारण नहीं जाने को लेकर सोचने लगे थे। बिहार आने पर उन्हें अपमान के घूंट पीने पड़े थे। महात्मा गांधी ने इस बात का जिक्र अपने एक पत्र में किया है। जानिए, ‘बिहार’ की गांधी को लेकर ये स्मृतियां.
चिंरजीवी मंगनलाल,
जो व्यक्ति मुझे यहां ले आया है, कुछ नहीं जानता। उसने मुझे एक अजनबी जगह ला पटका है। घर का मालिक (राजेंद्र बाबू) कहीं गया हुआ है और नौकर ऐसा समझते हैं कि अवश्य ही हम दोनों भिखारी होंगे। वे हमें घर के पखाने का उपयोग भी नहीं करने देते। खाने-पीने की तो बात ही क्या? मैं सोच समझकर अपनी जरूरत की चीजें साथ रखता हूं, इसलिए बेफिक्र रह सका हूं।
मैंने अपमान के घूंट पीये हैं, इसलिए यहां की अटपटी स्थिति से कोई दुख नहीं होता। यदि यही स्थिति रही तो चंपारण जाना नहीं हो सकेगा। मार्गदर्शक कोई मदद कर सकेगा ऐसा दिखाई नहीं देता और मैं स्वयं अपना मार्ग खोज सकूं ऐसी स्थिति नहीं है। इस दशा में मैं तुम्हें अपना पता नहीं दे सकता। यदि मैं किसी को वहां से मदद के लिए लाया होता तो वह भी मुझ पर एक भार ही होता…। अपनी अनिश्चित स्थिति की बात भर बता रहा हूं, तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं…।
– मो.क. गांधी
मैं बिहार हूं। लोकतंत्र की जननी। बुद्ध और महावीर की भूमि। गुरु गोविंद सिंह की जन्मस्थली और गांधी की कर्मभूमि। मुझसे भी बापू का बड़ा नाता रहा है। अनगिनत निशानियां मैंने समेट रखी हैं। इनमें महत्वपूर्ण है सदाकत आश्रम। 1921 में बापू के सहयोग से हुई थी स्थापना। लेकिन बिहार को अफसोस है कि आजादी के बाद गांधी कभी बिहार नहीं आ सके। 10 अप्रैल 1917 को गांधी पटना आए। तब मैंने पहली बार उन्हें देखा। उस दिन का प्रसंग थोड़ा अटपटा था। गांधी यहां आ तो गए थे पर कोई ठौर नहीं था। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के घर गए, पर वे थे नहीं और घर के नौकर ने उन्हें महत्व नहीं दिया। मैंने इस अपमान की पीड़ा महसूस की गांधी की उक्त चिट्ठी में, जिसमें उनका मन आहत है।
यह सच है कि गुरु रवींद्रनाथ ने उन्हें महात्मा की उपाधि दी थी। लेकिन, बिहार की माटी भी इस बात की साक्षी है कि यहां के भोले-भाले किसान राजकुमार शुक्ल ने उन्हें महात्मा पुकारा था। दस्तावेज गवाही देते हैं कि बिहार की माटी से उन्हें इसी संबोधन से पत्र लिखा गया था। तारीख थी 27 फरवरी 1917।
लिखा था- मान्यवर महात्मा! किस्सा सुनते हो रोज औरों के, आज मेरी भी दास्तान सुनो…।’
पत्र लंबा है। याचना है कि गांधी चंपारण आएं और यहां की 19 लाख प्रजा की पीड़ा से अवगत हों। राजकुमार शुक्ल कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में चंपारण के किसानों की आवाज बनकर पहुंचे। गांधी को बुलाने से पहले पंडित मदनमोहन मालवीय और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से भी मिले और चंपारण की समस्या के बारे में बताया। लेकिन, इन लोगों ने यह कहकर मना कर दिया कि भारत की आजादी का बड़ा प्रश्न पहले उनके सामने है। बाद में राजकुमार ने गांधी जी से विनती की। कानपुर भी गए। पर गांधीजी से मुलाकात न हो सकी। अंतत: 10 अप्रैल 1917 को गांधी पटना पहुंचे।