एक बार सबको अपना समझकर देखिए !
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमारे हैं और विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी अपने ही हैं। दोनों आंखें खोलिए, एक की ही नहीं दोनों की कमियों को भी और ख़ूबियों को भी देखिए। हमे दोनों से स्नेह है, दोनों से अपनापन है।
क्योंकि दोनों ही हमारे देश की ताक़त हैं।
देश के कण-कण से लगाव का नाम ही राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद की किताब में नफरत का कोई चैप्टर नहीं है। इसीलिए तो कह रहा हूं कि हमें न अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से नफरत होना चाहिए है और ना ही हमारे मन मे विपक्षी नेता राहुल गांधी से ईर्ष्या का भाव होना चाहिए है। दोनों से मोहब्बत कीजिए। दोनों का अपनी-अपनी जगह महत्व है। कुछ ख़ास है हर किसी में।
उपरोक्त विचारधारा लुप्त हो रही है। ऐसे ख्याल पेश करने वाले को अजूबा कहा जा सकता है। हो सकता है ऐसे विचारों को दो नाव पर सवार वाली विचारधारा कहा जाए। ट्रोलर इसे धोबी का कुत्ता भी कह सकते हैं। कहने वाले ऐसे विचारों को बीच वाला थर्ड जेंडर कहकर मज़ाक भी उड़ा सकते हैं। लेकिन सकारात्मकता ऐसे ख्यालों को सेतु कहेगी, पुल कहेगी। कड़ी कहेगी। जोड़ना कहेगी और इसे देशप्रेम कहेगी।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को पसंद करने वालों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की खूबियों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए है। चलिए सतही बातों की बहस-मुबाहिसे के आम मुद्दे की बात करें-
मोदी के कीमती लिबास और रॉयल रहन सहन पर गर्व करना चाहिए है। वो दुनिया में हमारा ही तो प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका वैभव और उनकी शान दुनिया में हम आम भारतीयों का ही तो क़द बढ़ाती है।
नरेंद्र मोदी के प्रशंसकों को भी राहुल गांधी से नफरत छोड़नी होगी। ये राष्ट्रवाद का तकाजा है।
विपक्षी भूमिका में आम जनता के बीच ज़मीनी संघर्ष करते राहुल गांधी की फिटनेस जनता को आकर्षित करने वाली है। इस बात को भाजपा के समर्थकों को स्वीकार करना होगा। हम अपने देश से मोहब्बत करते हैं तो हमें अपने वतन के कीड़ों तक से भी नफरत नहीं होगी। तो फिर सत्ताधारी या विपक्ष के किसी नेता जनप्रतिनिधि से इसक़द्र नफरत का क्या मतलब है ? ऐसी नफरत को दीवालियापन ही तो कहा जाएगा।
ये हो सकता है कि हम बतौर दर्शक दो टीमों के खेल में किसी एक टीम की जीत की कामना करें। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि दूसरी टीम की परफार्मेंस की किसी भी खूबी को स्वीकार न करके उसके अंध विरोधी हो जाएं और मन में नफरत की आग पैदा कर लें।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी चुनाव में हम किसी एक दल को ही वोट दे सकते हैं। किसी एक के ही समर्थक हो सकते हैं। लेकिन दूसरे दल से नफरत की संस्कृति घातक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीतने वाला राजनीतिक दल सत्ता की जिम्मेदारी निभाता है तो हारने वाला विपक्ष की अहम भूमिका का निर्वहन करता है। सत्ता-विपक्ष दोनों ही जनता की सेवा के लिए ही हैं। जनता का हक़ है कि वो सत्ता पक्ष-विपक्ष दोनों में कोई भी कमी-खामी देखे तो खूब आलोचना करें, लेकिन कहीं भी नफरत की कोई गुंजाइश नहीं होना चाहिए है।
थोड़ी देर के लिए ही सही, एक बार नकारात्मक और नफरत को ताक़ पर रख दीजिए। मान लीजिए सब हमारे हैं और हम सबके हैं।
इल्ज़ाम लगता है कि सियासत नफरत फैलाती है, बंटवारा करती है, धर्म-जातियों और क्षेत्रों में बांटती है। सवाल ये कि समाज इतना कमज़ोर क्यों हो कि जो चाहे आपको नफरत की आग में झोंक दे !आपको धर्म और जातियों की गुत्थियों में बांध दे। सियासत का ख़तरनाक वायरस भी उसी पर हमला करता है जिसकी प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होती है। निष्पक्षता, एब्जर्वेशन, सच्ची जानकारियों, संतुलन और अपने विवेक की क्षमता बढ़ाएंगे तो सियासत के झूठे प्रचार वाले नफरत के वायरस को आपकी मजबूत प्रतिरोधक क्षमता हरा देगी।
ये कड़वा सच है कि जदीद (वर्तमान) दौर के समाज पर सियासत हावी होती जा रही है। हम हिप्नोटाइज किए जा रहे हैं। समाज बंट रहा हैं। इसकी वजह कुछ लोग ये बताते है कि टीवी और स्मार्ट फोन की स्क्रीन हमे गलत तरबियत(संस्कार) दे रही है और इस स्क्रीन का रिमोट सियासी खुदगर्ज़ों के साथ में हैं। अगर ये इल्ज़ाम सही हैं तो सवाल ये कि हमारे विवेक की शक्ति इतनी क्षीण क्यों होती जा रही है कि हम तमाम शक्तियों के मायाजाल में फंसकर असंतुलित होते जा रहे हैं।
हर असंतुलन का अंजाम धड़ाम हो जाना होता है। किसी भी मुआशरे (समाज) के संतुलन और असंतुलन का बैरोमीटर उस मुआशरे की मीडिया होती है। मीडिया का पर्याय संतुलन होता है। यदि किसी दौर की मीडिया में अंध विरोध या अंध समर्थन का असंतुलित दिखने लगे तो मान लीजिए कि उस दौर के समाज का पतन होना ही है।
ऐसे में जरुरत इस बात की है कि हम असंतुलित, लंगड़ी-लूली मीडिया, सोशल मीडिया, वाट्सएप, फैसबुक, टीवी, अखबारों पर आंख बंद करके विश्वास ना करें ! असंतुलित विचारों और एकतरफा ख़बरों को इग्नोर करके अपने विवेक का इस्तेमाल करें।