सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले में अनुसूचित जाति और अनसूचित जनजाति (एससी-एसटी) को प्रमोशन में आरक्षण देने का फैसला राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ देने से यह साफ हो गया है।हालांकि क्रीमीलेयर पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से अभी पदोन्नति में आरक्षण बहाली के रास्ते में कुछ फौरी रुकावटें जरूर दिख रही हैं लेकिन इतना तो तय ही हो गया है कि प्रदेश की भाजपा सरकार को इस मामले में जल्द ही कोई न कोई फैसला करना होगा।
कारण यह है कि विपक्ष की तरफ से भी प्रदेश सरकार को इस मामले पर घेरने की कोशिश जरूर होगी। बसपा सुप्रीमो मायावती ने फैसले के तत्काल बाद उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण को तत्काल बहाल करने की मांग उठाकर इसका संकेत भी दे दिया है।
उधर, मिशन 2019 में फतह को चुनावी लड़ाई को 60 बनाम 40 बनाने की कोशिश में जुटी भाजपा के लिए इस मामले में देरी तमाम भ्रम पैदा करेगी और विपक्ष को उस पर अधिक हमलावर होने का मौका भी देगी। इसलिए देखने वाली बात होगी कि प्रदेश सरकार इस मामले में अब क्या रुख अख्तियार करती है। वह मायावती सरकार की नक्शेकदम पर चलते हुए प्रदेश में फिर पदोन्नति में आरक्षण लागू करती है या फिलहाल इस मुद्दे पर हवा का रुख देखकर कोई निर्णय करने की नीति पर चलती है।
प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण लागू होना फिलहाल अभी बहुत आसान नहीं दिखाई दे रहा। एक तो केंद्र सरकार को एससी-एसटी के लिए क्रीमी लेयर की परिभाषा तय करनी पड़ेगी। फिर अगर वह इस फैसले को लागू करती है तो इससे प्रदेश के सामान्य और पिछड़े वर्गों में जबर्दस्त नाराजगी फैलने का खतरा है।
सामान्य और पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों, अधिकारियों और शिक्षकों की तरफ से प्रमोशन में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता के खिलाफ सड़क से लेकर सियासी दलों और न्यायालय में लड़ाई लड़ रही सर्वजन हिताय संरक्षण समिति ने प्रदेश सरकार को इस पर आगाह भी कर दिया है।समिति के अध्यक्ष शैलेंद्र दुबे ने बुधवार को यहां कहा कि केंद्र और प्रदेश सरकार ने यदि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की व्याख्या अपने ढंग से करते हुए पदोन्नति में आरक्षण बहाल करने की कोशिश की तो सामान्य और पिछड़े वर्ग के 18 लाख अधिकारी, कर्मचारी और शिक्षक सड़कों पर उतरेंगे।
वहीं, आरक्षण समर्थकों के संगठन आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करते हुए इसे तुरंत लागू करने की मांग की है।
साफ है कि सरकार के सामने अब यह संकट है कि वह यदि इस मामले पर मौन रहती है तो उससे दलित वर्गों के लोगों में नाराजगी फैलने की आशंका है। सभी को पता है कि दलित वोटों की लामबंदी में जुटी भाजपा की केंद्र सरकार न सिर्फ अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट चुकी है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला भी एम. नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील पर ही आया है।
इसमें उसने नागराज मामले में फैसले को सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास पुनर्विचार के लिए भेजने की अपील की थी। इसलिए भी इस मुद्दे पर प्रदेश सरकार का रुख देखना काफी महत्वपूर्ण हो गया है। कारण, दूसरे दल भी इस मुद्दे पर भाजपा को घेरने की कोशिश करेंगे।अगर योगी सरकार एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण देती है तो उसे नया आदेश करना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने 27 अप्रैल 2012 को उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण और वरिष्ठता में आरक्षण (परिणामी ज्येष्ठता) देने के लिए मायावती के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार के फैसले को असंवैधानिक करार दे दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद सपा की अखिलेश यादव सरकार ने 8 मई 2012 को पदोन्नति में आरक्षण खत्म कर दिया था। मायावती सरकार ने 2007 में सर्वोच्च न्यायालय के एम. नागराज मामले में दिए गए फैसले में एससी-एसटी को प्रमोशन देने के लिए लगाई गई शर्तों की अनदेखी करते 2002 में अपनी ही सरकार में इस मामले में किए फैसले को लागू कर दिया था।-1993 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रमोशन में आरक्षण का समाप्त कर दिया।
-1994 में प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने बसपा के दबाव पर प्रमोशन में आरक्षण लागू कर दिया। इसके लिए नियम बनाते समय इंदिरा साहनी मामले का ध्यान नहीं रखा गया। पर, संयोग से किसी ने चुनौती नहीं दी।-केंद्र की नरसिंहाराव सरकार ने 1995 में 77वां संविधान संशोधन करके प्रमोशन में आरक्षण बहाल कर दिया।
-बीच में सर्वोच्च न्यायालय ने परिणामी ज्येष्ठता देने के प्रावधान को खत्म कर दिया।