अखिलेश, माया, प्रियंका को किसकी नज़र लग गई !
बागबां ने आग दी जब आशियाने को मेरे,
जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे।
अर्से पहले लखनऊ के साक़िब लखनवी का लिखा ये मशहूर शेर उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों की बेचारगी बन कर सामायिक हो गया है। यहां के मुख्य विपक्षी दल सपा, बसपा और कांग्रेस का जिस-जिस पर भरोसा था वो भरोसे लायक़ नहीं रहे। जिनकी लोकप्रियता की ताकत इन दलों की ताकत थी वो ताकत ही कमज़ोर पड़ती जा रही है। जनता तब तक पार्टी का नाम याद रखती है या पार्टी पर विश्वास रखती है जब पार्टी का नेता उसके बीच अपनी मौजूदगी दर्ज करता रहता है।
एक ज़माना था जब का मतलब कांग्रेस था। दूसरा जमानाआया जब कभी बसपा तो कभी सपा ने यूपी की कुर्सी संभाली। ये वो जमाने़ थे जब इन दलों के बड़े-बड़े नेता जनता के बीच रहते थे। सत्ता होती थी तो जनता के बीच सरकार की योजनाएं होती थीं और विपक्ष में होते थे तो सरकार की कमियो़-खामियों के ख़िलाफ़ ज़मीनी संघर्ष करते थे।
बसपा सुप्रीमों दशकों तक दलित समाज की ही नहीं बसपा की सबसे बड़ी ताकत कही गईं। लेकिन पिछले करीब आठ वर्षों से चल रही भाजपा की आंधी ने यूपी के क्षेत्रीय दलों के मजबूत किले भी ढहा दिए। जातिवाद की गहरी जड़ें भी दरक गईं। दलित समाज बहन मायावती से अधिक मोदी-योगी पर विश्वास करने लगा। बसपा की सबसे बड़ी ताकत मायावती को इकलौता अपना नेता मानने वाला एक वर्ग विशेष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दीवाना हो गया। वक्त की नजाकत देखकर बसपा सुप्रीमो भी अब मोदी-योगी सरकारों के खिलाफ आक्रामक न होकर विपक्ष की भूमिका में कमजोर पड़ गईं।
इसी तरह समाजवादी का सूरज इधर जितनी तेजी थे उभरा उतनी तेजी से ढलता दिखाई देने लगा।2012 में बसपा, भाजपा और कांग्रेस को शिकस्त देने के बाद अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनने के साथ यूपी के उभरते हुए ताकतवर नेता भी बने। 2017 के बाद ही बसपा और कांग्रेस सिमटने लगी और अखिलेश छठे साल भी सूबे के सबसे बड़े विपक्षी नेता के तौर पर अपनी पोजीशन क़ायम रखे हैं। लेकिन विधानसभा 2022 और फिर उपचुनाव में सपा के दो किले रामपुर और आज़मगढ़ हारने के बाद अखिलेश यादव की लोकप्रियता विफलताओं की ढलान से नीचे आती दिख रही है। गठबंधन को वो नहीं संभाल पा रहे हैं और उनके अपने ही उनकी कार्यशैली से परेशान हो चुके हैं।
कांग्रेस की बात की जाए तो कभी ये धारणा थी कि प्रियंका गांधी वाड्रा जब पार्टी की जिम्मेदारी संभाल लेंगी तो वो तुरुप का पत्ता साबित होंगी। बारिश की बूंदों की तरह यूपी कांग्रेस की बंजर भूमि में हरियाली ला देंगी।
लेकिन हुआ इसके विपरीत। जब से वो राजनीति में सक्रिय हुईं और यूपी की प्रभारी बनीं तब से बंजर भूमि और भी पत्थर बनती जा रही है। प्रियंका के नेतृत्व में हर चुनाव में यूपी में कांग्रेस का सफाया होता गया।
ताकतवर सत्तारूढ़ भाजपा ने दो साल पहले से लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं, पार्टी ने ख़ासकर यूपी में शत प्रतिशत अस्सी सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। राष्ट्रीय दल होने के नाते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इकलौती मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल होगी। लेकिन यूपी कांग्रेस प्रभारी प्रिंयका गांधी युद्ध क्षेत्र (यूपी) से ही ग़ायब हैं। प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी खाली पड़ी है और यूपीसीसी के कार्यालय में सन्नाटा पसरा रहता है।
विधानसभा की सीटों और वोट प्रतिशत के लिहाज़ से यूपी में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ा विपक्षी दल है। सपा ने जातिगत और क्षेत्रीय केमिस्ट्री की गणित से तमाम छोटे दलों के साथ मजबूत गठबंधन तैयार करके विधानसभा चुनाव लड़ा था। लेकिन चुनाव हारने के बाद सपा में भगदड़ जैसे हालात पैदा हो गए। आरोप लगने लगे कि आपसी सामंजस्य और ज़मीनी संघर्ष में बेहद कमजोर अखिलेश यादव एकक्षत्र राज चला रहे हैं, किसी की सुनते नहीं, मिलते नहीं, समय नहीं देते। ट्वीट और एसी की राजनीति तक सीमित पार्टी अध्यक्ष रामपुर और आजमगढ़ के लोकसभा उपचुनाव में निकले तक नहीं और नतीजतन पार्टी ने आजमगढ़ और रामपुर जैसे अपने गढ़ तक गंवा दिए। इन आरोपों के साथ सपा गंठबंधन के मजबूत घटक सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव इत्यादि ने किनाराकशी कर ली। अखिलेश यादव पर तमाम आरोप लगाते हुए तर्क दिया कि राष्ट्रपति चुनाव में हमसे वोट मांगने के लिए घटक दलों को बुलाया तक नहीं। भाजपा द्वारा एनडीए की राष्ट्रपति उम्मीदवार के समर्थन के लिए ससम्मान बुलाए गए ओम प्रकाश राजभर और शिवपाल यादव ने एनडीए की उम्मीदवार को समर्थन देने का एलान कर दिया। इस बीच खबरें आईं कि सपाईयों ने क्रास वोटिंग की।
उधर शिवपाल और तमाम सपा विधायक इस बात पर भी खफा हुए थे कि जिन यशवंत सिन्हा ने मुलायम सिंह यादव को आईएसआई का एजेंट कहा था उन्हें विपक्ष का राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाए जाने पर अखिलेश यादव ने आपत्ति क्यों नहीं जताई और उन्हें समर्थन देने का फैसला क्यों किया। एक के बाद एक इस तरह के तमाम विवादों से सपा में बिखराव, कलह और पार्टी अध्यक्ष से नाइत्तेफाकी का सिलसिला जारी है।
सपा का सबसे बड़ा मुस्लिम वोट बैंक भी बिखरता दिख रहा है और यादव समाज में भाजपा लोकसभा चुनाव में तो सेंध लगा ही देती है।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी राहत की बात ये है कि वो छोटे-छोटे दल जिनके साथ ने सपा गंठबंधन को भाजपा को चुनौती देने लायक बनाया था वो अब छिटक रहे हैं।
हांलांकि लोकतांत्रिक में इन तरह विपक्ष का हाशिए पर आना अच्छा नहीं समझा जाता। सियासत और हुकुमत भी खेल का मैदान जैसी होती है, जब कोई गोल हो तो सीटी की आवाज में दम होना चाहिए है। सीटी की आवाज़ मरी-मरी सी हो तो हो तो हो सकता है कि गलती करने वाला या हारने वाला खिलाड़ी दबंगई दिखाकर गलती को स्वीकार ही नहीं करें और गलती को गलती ही न मानें।
सत्ता का आईना टूट जाए तो सत्ता अपनी कमियों को न स्वीकारें और न सुधारे। सियासत हो हुकुमत, इंसान या भूत-प्रेत सबकी फितरत एक जैसी होती है। आईना न हो तो डायन भी खुद को मिस यूनिवर्स से कम नहीं मानती।