नई दिल्ली (शाश्वत तिवारी)। विदेशों,विशेषकर दक्षिण एशियाई देशों में मौजूद भारत आधारित प्रचीन साहित्य को सुरक्षित-संरक्षित करने का अभियान और आगे बढ़ा है। इस दिशा में थाइलैंड के बाद अब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और यूनिवर्सिटी ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमिनिटीज, हो चि मिन्ह सिटी के बीच एक समझौता हुआ है। हो चि मिन्ह सिटी स्थित यूनिवर्सिटी परिसर में इसके लिए समझौता पत्र पर राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानन्द जोशी और यूनिवर्सिटी ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमिनिटीज के अध्यक्ष प्रो. नगो थाई फुऑग लान ने हस्ताक्षर किए। इस अवसर पर वियतनाम में भारत के कौंसिलेट जनरल मदन मोहन सेट्टी भी मौजूद थे।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और यूनिवर्सिटी ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमिनिटीज, हो चि मिन्ह सिटी के बीच समझौता।
नई दिल्ली में इंदिरा गांधी कला केंद्र में कल्चरल इन्फॉर्मेटिक्स के निदेशक प्रोफेसर प्रतापानन्द झा ने उक्त जानकारी दी है। समझौते पर हस्ताक्षर के समय दिल्ली विश्वविद्य़ालय में दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ प्रो. अमरजीव लोचन और यूनिवर्सिटी ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमिनिटीज के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन विभाग के अध्यक्ष डॉ० तरान आन्ह तिएन, दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रो० लाम भी उपस्थित रहे। प्रो० झा ने बताया कि इस समझौते से वहां मौजूद भारत आधारित साहित्य को सुरक्षित करने, उसके अध्ययन-शोध और उसे दोनों देशों के आम लोगों तक पहुंचाने में मदद मिलेगी। निश्चित ही इस कदम से दोनों देशों के आपसी सहयोग में और अधिक वृदिधि होगी। बताया गया कि इस समझौते के बाद वहां मौजूद साहित्य का डिजिटलीकरण भी किया जायेगा। राष्ट्रीय कला केंद्र इसके लिए वहां यूनिवर्सिटी ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमिनिटीज परिसर में एक संरक्षण प्रोयगशाला भी बनायेगा।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने अभी मार्च में थाइलैंड की सीएमएमसी यूनिवर्सिटी के साथ भी इसी तरह का एक समझौता किया है। इसके तहत थाइलैंड में ताड़पत्रों पर मौजूद ढेर सारे बौद्ध साहित्य को सुरक्षित संरक्षित किया जा रहा है। यह सारा कार्य राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन (एनएमएम) के तहत किया जा रहा है।
दक्षिण पूर्व एशिया में ‘भारत प्रभावी देशों’ के रूप में थाईलैंड के साथ लाओस, कंबोडिया, म्यामार और वियतनाम जैसे देशों के नाम लिए जाते हैं। इन देशों से भारत के लगभग दो हजार वर्ष पुराने सम्बंध हैं। वहां बौद्ध साहित्य सहित अन्य सामग्री के संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जाती रही है।