एक विधवा तंगमणि को मंदिर प्रवेश के लिए मद्रास हाईकोर्ट का (4 अगस्त 2023) सहारा लेना पड़ा। पुरोहितों ने उस महिला को अभागिन करार देकर रास्ता रोक दिया था जबकि उसका दिवंगत पति भी उसी मंदिर का पुजारी था। क्या विडंबना है कि ठीक तभी भारत का चंद्रयान दूर चांद पर प्रवेश कर रहा था। प्रगति और अवनति के दो छोर के ये प्रसंग हैं। धर्मांधता का यह त्रासदपूर्ण हादसा इरोड जिले के नांबियूर तालुक में पेरियकरूपरायण मंदिर का है। श्रीमती तंगमणि अपने पुत्र के साथ अर्चना हेतु गईं थीं। तमिल मास “आड़ी” (अगस्त 9) में सालाना उत्सव था। मगर उन्हें कुछ दर्शनार्थियों ने रोक दिया।
पीड़िता की याचिका पर न्यायाधीश एन. आनंद वेंकटेश ने कहा कि जहां समाज सुधारक ऐसी मूर्खतापूर्ण मान्यताओं को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं कुछ गांवों में इनका चलन अभी भी जारी है। मानव-निर्मित नियम सुविधानुसार बनाए गए हैं। यह वास्तव में उन महिलाओं को अपमानित करता है जिन्होंने अपना पति खो दिया है। यदि किसी विधवा को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने का किसी ने प्रयास किया है, तो उनके खिलाफ कानून के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए।”
भारत का इतिहास गवाह है कि हर युग में विधवा के समर्थन में जनसंघर्ष जलते रहे। इनमें मशहूर थे बंबई के मेधाजी नारायण लोखंडे जिन्हें भारतीय श्रमजीवी आंदोलन का जनक माना जाता है। अपने समय में उन्होंने नाइयों की एक यूनियन गठित की थी। मुख्य मकसद था कि बाल विधवा के सिर को गंजा नहीं किया जाएगा। यह एक घृणित परिपाटी है हिंदू समाज में थी। इसीलिए लोखंडे हम श्रमजीवियों के आज भी आदर्श हैं। अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक हैं। इसी संदर्भ में एक मांग और उठती रही कि विधवा को उसके मैकेवालों का कुलनाम मिल जाए। इसकी पहल की थी जवाहरलाल नेहरू की सगी बहन विजय लक्ष्मी ने। जब उनके पति स्वाधीनता सेनानी रंजीत सीताराम पंडित का लखनऊ जिला जेल में (14 जनवरी 1944) निधन हो गया था तो नेहरु की इस बहन ने घोषणा की कि वे अब पुनः “कुमारी विजयलक्ष्मी नेहरू” कहलाएंगी। मगर यह सबको अस्वीकार्य रहा।
यूं विधवा विवाह का विरोध और जबरन सती प्रथा ब्रिटिश शासित भारत में आम दस्तूर था। सती प्रथा तो हत्या का ही विकृत रूप था। विधवा को नशीली दवा खिलाकर, पेट्रोल में भिगो कर पति की चिता पर लिटा दिया जाता रहा। शर्मनाक रहा देवराला (राजस्थान) में रूपकंवर सती कांड (4 सितंबर 1987)। फिर सरकार जगी और सती प्रथा अपराध घोषित हो गया। विधवा विवाह का सर्वप्रथम प्रयास ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने ही 26 जुलाई 1856 का ही था। हिंदू विधवा पुर्नविवाह तब कानून 1856 बन सका। इसके बाद हिंदू विधवाओं की फिर से शादी को कानूनी जामा पहना दिया गया। ये कानून का मसौदा खुद लार्ड डलहौजी ने तैयार किया था तो इसे पास किया लार्ड कैनिंग ने।
हालांकि शासन में विधवा विवाह वैध और धर्म समक्ष माना गया है। माधवाचार्य ने पाराशर भाष्य के श्लोक “नष्टेमृते” इत्यादि को मनु का वचन कहा है। फिर सब शास्त्रों में प्रधान वेद है; उससे भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि विधवा-विवाह शास्त्र सम्मत है, और सदा से होता आया है, क्योंकि तैत्तिरीयारण्यक के षष्ट प्रपाठक के एक अनुवाक के 13 और 14 मन्त्र से प्रगट होता है कि किसी अहितानि के मृत्यु होने से उसकी स्त्री अपने पति के शव के पास बैठती है तब यह मन्त्र पढ़ा जाता है। “इये नारी पति लोकं वृणानानि पद्यत्त उपस्वा मर्त्य प्रेतं। विश्वे पुराण मनु पालयंती तसौप्रजा द्रविणञ्चहे धेहि॥” अर्थात् हे मनुष्य ! तेरी स्त्री अनादि काल से प्रवृत धर्मों की रक्षा करती हुई, पतिलोक की कांक्षा करके तेरे मृत देह के समीप प्राप्त हुई उस अपनी धर्म पत्नी को इस लोक में निवासार्थ अनुज्ञा देकर सन्तान और धन ग्रहण करने दे।”
विधवा विवाह की सशक्त हिमायत करने का अधिकार मेरा नैसर्गिक और जन्मजात है। बंदरगाह नगर मछलीपत्तनम (आंध्र) में मेरी नानी आदिलक्ष्मी केवल चार वर्ष की आयु में विधवा हो गईं थीं। मेरे नानाजी सी. जगन्नाथ राव ने उनसे विवाह करना चाहा। विप्र समाज में बवंडर उठ गया। बात 1896 (करीब 127 वर्ष बीते) की है। मगर नानाजी जो गवर्नमेंट टीचर्स ट्रेंनिंग कॉलेज की प्रिंसिपल थे, अपनी हठ पर अड़े रहे। तब प्रमुख गांधीवादी पुरोधा डॉ. पट्टाभि सीतारामया ने मदद की। पाणिग्रहण करा दिया। डॉ. सीतारामया को महात्मा गांधीजी ने नामित किया था कि नेताजी सुभाष बोस के विरुद्ध कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए त्रिपुरी नगर अधिवेशन में चुनाव लड़ें। खैर डॉ. पट्टाभि की कृपा से मेरे नाना और नानी की शादी हो गई। फिर कुछ वर्ष बाद प्रश्न उठा था कि मेरी नानी की पुत्री मेरी माता स्व. सरसवाणी से शादी कौन करे ? तब मद्रास (चेन्नई) में ख्यात पच्चयप्पा कॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक मेरे पिता श्री के. रामाराव ने विवाह किया। भ्रमित सामाजिक विरोध के बावजूद। पिताजी गांधीवादी स्वाधीनता सेनानी (अगस्त 1942 : लखनऊ जेल में कैद), “नेशनल हेरल्ड” के संस्थापक-संपादक ने यह क्रांतिकारी कदम उठाया था। मेरी मां अंग्रेजी भाषा की कवियत्री थी और ज्योतिष में पारंगत रहीं।
विधवा विवाह के मसले पर सनातन धर्म सबसे अधिक उदार और संवेदनशील है। इसके प्रमाण में मैं एक निजी घटना का जिक्र कर दूँ। इसका नाता कट्टर धर्मावलंबी से है। पुरी के शंकराचार्य से। तब (1967) पुरी के गोवर्द्धन पीठ के शंकराचार्य जी स्वामी निरंजनदेव तीर्थ गौवध-बंदीवाले आंदोलन में दिल्ली जेल से रिहा होकर अहमदाबाद में रुके थे। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। प्रेस सम्मेलन में तब “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संवाददाता के नाते मैं रिपोर्टिंग पर गया था। शंकराचार्य को उद्वेलित करने की मंशा से मैंने पूछा कि धर्मप्राण भारत की प्रधानमंत्री एक विधवा हो तो क्या यह अशुभ नहीं है ? अपनी सहज भावनाओं को शंकराचार्य नियंत्रित नहीं कर पाए। उन्होंने मुझे डांटा। परामर्श दिया कि पत्रकार को ऐसे अभद्र प्रश्न नहीं पूछने चाहिए। इंदिरा गांधी द्वारा जेल में यातना पाकर बाहर आए इस जगद्गुरु ने प्रधानमंत्री का सम्मान करने की मुझे राय दी थी।