लोकसभा चुनाव की बिसात बिछ रही है। भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए के सामने विपक्षी गठबंधन का नाम यूपीए नहीं होगा। प्रस्तावों के अनुसार संभावित क़रीब पंद्रह दलों के महागठबंधन का नाम पीडीए हो सकता है। भाजपा चुनावी तैयारी में माहिर कही जाती है, लेकिन इस बार राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षियों की सक्रियता और एकता बता रही हैं कि बरसो बाद विपक्षियों ने गंभीरता से सत्तारूढ़ भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के खिलाफ लड़ने में लड़ो या मरो का जोश ओ जज्बा महसूस किया है।
भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की ताक़त में भले ही कोई ख़ास कमी नहीं आई है लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एनडीए का कुनबा सिकुड़ा है। पिछले लोकसभा चुनावों की तरह अब एनडीए में ना नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे जैसे नेता हैं और ना ही आकाली दल जैसे क्षेत्रीय दल की ताक़त है। इसे देखते हुए भाजपा लोकसभा चुनाव से पहले तिनका-तिनका जोड़ने की कोशिश में है। कभी बिहार बिहार में जीतनराम मांझी की पार्टी का अपने संग लाया जा रहा है तो कभी भाजपा उत्तर प्रदेश के ओमप्रकाश राजभर को अपने कुनबे में वापस लाने का मन बना रही है। विरोधी क्षेत्रीय दलों से भाजपा को खतरा है और ऐसे दलों का जनाधार दलितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों के विश्वास पर आधारित है, इसलिए पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाले छोटे-छोटे दलों से तिनका-तिनका जोड़कर सिकुड़ते एनडीए का फिर से विस्तार करने का भरसक प्रयास शुरू हो गया है।
इधर विपक्षियों की एकता फिलहाल फलती-फूलती दिख रही है। आगामी लोकसभा चुनाव की सियासी जंग की तैयारी में दोनों मोर्चे (एनडीए और संभावित पीडीए) अपने-अपने तरीकों से अपने तरकशों के तीर तैयार कर रहे हैं। लेकिन दोनों मोर्चे जिन सियासी अस्त्र-शस्त्रों का जख़ीरा तैयार कर रहे हैं इनमें से कुछ शस्त्रों में ज़ंग को साफ करना होगा।
अपना रंग रूप और स्वरूप तैयार करने का प्रयास करने वाले संभावित महागठबंधन के नाम को लेकर ही मतभेद है, जिसे शीर्ष नेताओं को दूर करना होगा। आबादी और सबसे अधिक लोकसभा सीटों के लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े दल समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भाजपा के खिलाफ मोर्चे का नाम पीडीए दिया और इसका फुलफॉर्म पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक बताता। जबकि दूसरे दल सीपीआई ने पेट्रियोटिक डेमोक्रेटिक एलायंस से परिभाषित कर डाला। यानी एक धड़ा इसे लोकतंत्र को बचाने का मोर्चा साबित करना चाहता है जबकि सपा चाहती है कि पिछड़ों,दलितों और अल्पसंख्यकों के हक़ की लड़ाई को भाजपा के खिलाफ सियासी लड़ाई को सबसे बड़ा और मजबूत हथियार बनाना चाहती है।
हांलांकि नाम को लेकर अंतिम मोहर अभी नहीं लगी है। विरोधी दलों के शीर्ष नेताओं को ये तय करना होगा कि उनका मुख्य मुद्दा क्या है। और इसे लेकर एकजुटता की कोशिश के शुरुआती दौर में एक दूसरे के प्रस्तावों के विराधाभासी बयान ना आएं। इसी तरह इस मोर्चे में आम आदमी पार्टी को पूरी तरह अपने पाले में लाना मोर्चे के लिए टेहढ़ी खीर है। जहां भाजपा बिहार के जीतन राम मांझी को अपने पाले में ले आई और महागठबंधन की कोशिश की अगुवाई करने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे।
भाजपा यूपी में पिछड़ी जाति के नेता ओमप्रकाश राजभर की पार्टी और महान दल को अपने कुनबे में लाने में सफल होती नजर आ रही है। बताया जा रहा है कि राष्ट्रीय लोकदल को भी एनडीए में लाने का भरसक प्रयास कर रही है। ऐसी आशंका को जब और भी बल मिल गया जब बिहार में विपक्षी दलों की बैठक में जयंत चौधरी नहीं आए।
यूपी की राजनीति में ख़ासकर पूर्वांचल मेंं मजबूत पकड़ रखने वाले ओमप्रकाश राजभर ने अपने बयान में साफ तौर पर भाजपा के खिलाफ गठबंधन की कोशिश की सराहना करते हुए कहा कि बसपा सुप्रीमो मायावती तक को बिहार की बैठक में नहीं बुलाया गया, उन्हें भी नहीं बुलाया गया। जयंत चौधरी भी किसी नाराजगी के होते नहीं पहुंचे। तो फिर यूपी की सबसे बड़ी चुनौती का किस प्रकार सामना किया जाएगा।
विपक्षी एकता के लिए राजनीतिक परिपक्वता बेहद अहम होती है। इंद्रकुमार गुजराल और एसडी देवगौड़ा की सरकारें बनने में विपक्ष को एकजुट करने में समझौते, त्याग और आपसी सामंजस्य बनाने में जो राजनीतिक दक्षता दिखाई गई थी क्या वो इतिहास दोहराया जा सकता है ! सबको साथ लाने में हरकिशन सुरजीत जितनी काबिलियत क्या नीतीश कुमार में है !
मायावती से संपर्क ना करना, ओमप्रकाश राजभर को लाने का प्रयास भी ना करना, राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी की दूरी, जीतनराम मांझी का साथ छोड़कर चला जाना, अकाली दल और चंद्रबाबू नायडू जैसे कई दलों और नेताओं को साथ लाने का प्रयास भी ना करना.. तो बताता है कि नीतीश कुमार में हर किशन सुरजीत जैसी एकजुटता क़ायम करने की सियासी धार नहीं है।
हांलांकि जब ये आम धारणा हो कि क्षेत्रीय दल सरकारी एजेंसियों के दबाव में भाजपा के खिलाफ एकजुट होने न से डरते हैं ऐसे में थोड़े प्रयासों में ही तक़रीबन पंद्रह दलों को इकट्ठा करना भी आसान काम नहीं है। संभावित पीडीए सुप्रीमों कौन रहेगा ! नीतीश कुमार या मोर्चे के सबसे बड़े दल कांग्रेस के नेता ! अभी तक तो यही प्रतीत हो रहा है कि ये दायित्व नीतीश कुमार निभाएंगे।
एक महत्वपूर्ण बात ये है कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों पर ही निर्भर रहकर भाजपा के खिलाफ जंग जीतने की खुशफहमी में नहीं रहना होगा। क्योंकि करीब पौने दो सौटों पर कांग्रेस का मुकाबला भाजपा से होता हैं, यहां किसी क्षेत्रीय दल का कोई ख़ास अस्तित्व नहीं है। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की जीत के बाद कांग्रेस को अति आत्मविश्वास में आने की जरूरत नहीं क्योंकि सर्वेक्षण बताते हैं कि अधिकांश राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ वोट देनें वाले लोकसभा में नरेंद्र मोदी से प्रभावित होकर भाजपा का समर्थन करते हैं। ये बात भी विचारणीय है कि यदि कांग्रेस का पुराने सवर्ण वोट बैंक का ज़रा सा हिस्सा भी वापसी का मूड बना भी रहा होगा तो क्षेत्रीय दलों की तर्ज पर सामाजिक न्याय यानी जाति की राजनीति की तरफ बढ़ रही कांग्रेस से सवर्ण वर्ग दूरी जारी रख सकता है।
इसी तरह भाजपा और उसके एनडीए की भी सियासी जंग के हथियारों में कहीं-कहीं ज़ंग दिखाई दे रहा है- भाजपा की सियासत का एक पहलू परिवारवाद के खिलाफ लड़ना है। कांग्रेस, सपा, राजद और उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना पर भाजपा तंज़ करती है। जबकि भाजपा उस रालोद को एनडीए में लाने के लिए डोरे डाल रही है जो दल खुद परिवारवाद के आरोपों से घिरा है। यूपी के ही ओमप्रकाश राजभर की पार्टी को भी एनडीए का हिस्सा बनाने की कोशिश हो रही है। ओमप्रकाश राजभर का पूरा परिवार उनकी पार्टी में भरा पड़ा है।
इसी तरह बिहार में जीतन राम मांझी की पार्टी भी उनके परिवार से पटी पड़ी है। इसी तरह यूपी में भाजपा के सहयोग दल अपना दल (एस) और निषाद पार्टी में भी परिवारवाद का बोलबाला है। ऐसे में भाजपा अपने पॉलिटिकल एजेंडे में परिवारवाद को कैसे शामिल कर सकती है।
राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का भाजपाई मुद्दे की धार भी कुंद हो सकती है यदि विपक्षी खेमा जनता के दिलों में ये बात बैठाने में कामयाब हो जाए कि केंद्र सरकार की एजेंसियां विरोधियों के खिलाफ एजेंसियां का दुरुपयोग कर राष्ट्र के लोकतंत्र को कमज़ोर कर रही है। बेरोजगारी और मंहगाई का मुद्दा यदि हावी हो गया तो सवाल ये भी उठेंगे कि देश का बहुसंख्यक (हिन्दू) समाज ही सबसे अधिक बेरोजगारी और मंहगाई की मार झेल रहा है। तो फिर हिन्दू समाज के लिए भी क्या ख़ाक भाजपा सरकार ने भला किया !
इसी तरह ख़ासकर दलित और पिछड़े समाज को प्रभावित करने वाला लाभार्थी तबका भी ये साबित करता है कि क्या फ्री राशन पाने वाली देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी की रेखा के नीचे आ गई है ?